महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-129
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ऋत्विक्चोदनया सोमकेन राज्ञा जन्तुनामकपुत्रवपाया होमे तद्गन्धाघ्राणनेन तद्भार्याशते पुत्रशतोत्पत्तिः ।। 1 ।। लोकान्तरं गतेन सोमकेन ऋत्विजा सह तद्भोग्यस्वपुत्रहननजनारकीयदुःखानुभवपूर्वकं तेन सहैव स्वीयसुकृतकलोपभोगः ।। 2 ।।
सोमक उवाच। | 3-129-1x |
ब्रह्मन्यद्यद्यथा कार्यं तत्कुरुष्व तथातथा। पुत्रकामतया सर्वंकरिष्यामि वचस्तव ।। | 3-129-1a 3-129-1b |
लोमश उवाच। | 3-129-2x |
ततः स याजयामास सोमकं तेन जन्तुना। मातरस्तु बलातपुत्रमपाकार्षुः कृपान्विताः ।। | 3-129-2a 3-129-2b |
हा हताः स्मेति वाशन्त्यस्तीव्रशोकसमाहताः। तं मातरः प्त्यकर्षन्गृहीत्वा दक्षिणे करे ।। | 3-129-3a 3-129-3b |
सव्ये पाणौ गृहीत्वा तु याजकोपि स्म कर्षति। कुररीणामिवार्तानामपाकृष्य तु तं सुतम् ।। | 3-129-4a 3-129-4b |
विशस्य चैनं विधिवद्वपामस्य जुहाव सः। वपायां हूयमानायां गन्धमाघ्राय मातरः ।। | 3-129-5a 3-129-5b |
आर्ता निपेतुः सहसा पृथिव्यां कुरुनन्दन। सर्वाश्च गर्भानलबंस्ततस्ताः पार्थिवाङ्गनाः ।। | 3-129-6a 3-129-6b |
ततो दशसु मासेषु सोमकस्य विशांपते। जज्ञे पुत्रशतं पूर्णं तासु सर्वासु भारत ।। | 3-129-7a 3-129-7b |
जन्तुर्ज्येष्ठः समभवज्जनित्र्यामेव पूर्ववत्। स तासामिष्ट एवासीन्न तथाऽन्ये निजाः सुताः ।। | 3-129-8a 3-129-8b |
तच्च लक्षणमस्यासीत्सौवर्णं पार्श्व उत्तरे। तस्मिन्पुत्रशते चाग्र्यः स बभूव गुणैरपि ।। | 3-129-9a 3-129-9b |
ततः स लोकमगमत्सोमकस्य गुरुः परम्। अन्वक्षमेव पश्चात्तु सोमकोप्यगमत्परम् ।। | 3-129-10a 3-129-10b |
अथ तं नरके घोरे पच्यमानं ददर्श सः। तमपृच्छत्किमर्थं त्वं नरके पच्यसे द्विज ।। | 3-129-11a 3-129-11b |
तमब्रवीद्गुरुः सोऽथ पच्यमानोऽग्निना भृशम्। त्वं मया याजितो राजंस्तस्येदं कर्मणः फलम् ।। | 3-129-12a 3-129-12b |
एतच्छ्रुत्वा स राजर्षिर्धर्मराजमथाब्रवीत्। अहमत्र प्रवेक्ष्यामि मुच्यतां मम याजकः ।। | 3-129-13a 3-129-13b |
मत्कृते हि महाभागः पच्यते नरकाग्निना। `सोहमात्मानमाधास्ये नरके मुच्यतां गुरुः' ।। | 3-129-14a 3-129-14b |
धर्म उवाच। | 3-129-15x |
नान्य कर्तुः फलं राजन्नुपभुङ्क्ते कदाचन। इमानि तव दृश्यन्ते फलानि वदतांवर ।। | 3-129-15a 3-129-15b |
सोमक उवाच। | 3-129-16x |
पुण्यान्न कामये लोकानृतेऽहं ब्रह्मवादिनम्। इच्छाम्यहमननैव सह वस्तुं सुरालये ।। | 3-129-16a 3-129-16b |
नरके वा धर्मराज कर्मणाऽस्य समो ह्यहम्। पुण्यापुण्यफलं देव सममस्त्वावयोरिदम् ।। | 3-129-17a 3-129-17b |
धर्मराज उवाच। | 3-129-18x |
यद्येवमीप्सितं राजन्भुङ्खास्य सहितः फलम्। तुल्यकालं सहानेन पश्चात्प्राप्स्यसि सद्गतिम् ।। | 3-129-18a 3-129-18b |
लोमश उवाच। | 3-129-19x |
स चकार तथा सर्वं राजा राजीवलोचनः। क्षीणपापश्च तस्मात्स विमुक्तो गुरुणा सह ।। | 3-129-19a 3-129-19b |
लेभे कामाञ्शुभान्राजन्कर्मणा निर्जितान्स्वयम्। सह तेनैव विप्रेण गुरुणा स गुरुप्रियः ।। | 3-129-20a 3-129-20b |
एष तस्याश्रमः पुण्यो य एषोग्रे विराजते। क्षान्त उष्यात्र षड्रात्रं प्राप्नोति सुगतिं नरः ।। | 3-129-21a 3-129-21b |
एतस्मिन्नपि राजेन्द्र वत्स्यामो विगतज्वराः। षड्रात्रं नियतात्मानः स़ज्जीभव कुरूद्वह ।। | 3-129-22a 3-129-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 129 ।। |
3-129- वाशन्त्यः क्रोशन्त्यः ।। 3-129- वपां देहान्तर्गतमपूपाकारं मासम् ।। 3-129- लक्षणं चिह्नम् ।। 3-129- सोमकस्य ऋत्विगिति शेषः ।। 3-129- क्षान्तः क्षमावान्। उष्य उषित्वा ।।
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