महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-171
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पार्थेन निवातकवचैः सह युयुत्सया मातलिसनाथेनेन्द्ररथेन तत्पुरंप्रति गमनम् ।। 1 ।।
अर्जुनशङ्खध्वनिश्रवणेन सन्नद्धैर्निवातकवचैस्तेन सह युद्धारम्भः ।। 2 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुन उवाच। | 3-171-1x |
ततोऽहं स्तूयमानस्तु तत्रतत्र सुरपिभिः। अपश्यमुदधिं भीममपांपतिमथाव्ययम् ।। | 3-171-1a 3-171-1b |
फेनवत्यः प्रकीर्णाश्च संहताश्च समुच्छिताः। ऊर्मयश्चात्र दृश्यन्ते चलन्तइव पर्वताः ।। | 3-171-2a 3-171-2b |
नावः सहस्रशस्तत्र रत्नपूर्णाः समन्ततः। `नभसीव विमानानि विचरन्त्यो विरेजिरे' ।। | 3-171-3a 3-171-3b |
तिमिङ्गिलाः कच्छपाश् तथा तिमितिभिङ्गिलाः। मकराश्चात्र दृश्यन्ते जले मप्रा इवाद्रयः ।। | 3-171-4a 3-171-4b |
शङ्खानां च महबाणि मग्रान्यप्सु ममन्ततः। दृश्यन्ते स्म यथा रात्रौ तारास्तन्वभ्रमंवृताः ।। | 3-171-5a 3-171-5b |
तथा सहस्रशस्तत्ररत्नसङ्घाः प्लवन्त्युत। वायुश् घृर्णते भीमस्तदद्भुतमिवाभवत् ।। | 3-171-6a 3-171-6b |
तमतीत्य महावेगं सर्वाम्भोनिधिमुत्तमम्। अपश्यं दानवाकीर्णं तद्दैत्यपुरमन्तिकात् ।। | 3-171-7a 3-171-7b |
तत्रैव मातलिस्तृणं निपात्य पृथिवीतले। दानवान्रथघोपेण तन्पुरं समुपाद्रवत् ।। | 3-171-8a 3-171-8b |
रथघोषं तु तं श्रुत्वा स्तनयित्नोग्विम्बरे। मन्वाना देवराजं मामाविग्ना दानवाऽभवन् ।। | 3-171-9a 3-171-9b |
सर्वे संभ्रान्तमनसः शग्चापधराः स्थिताः। तथाऽसिशूलपरशुगदामुसलपाणयः ।। | 3-171-10a 3-171-10b |
ततो द्वाराणि पिदधुर्दानवास्त्रस्तचेतसः। संविधाय पुरे रक्षां न स्म कश्चन दृश्यते ।। | 3-171-11a 3-171-11b |
ततः शङ्खमुपादाय देवदत्तं महास्वनम्। परमां मुदमाश्रित्य प्राधमं तं शनैरहम् ।। | 3-171-12a 3-171-12b |
स तु शब्दो दिवं स्तब्ध्वा प्रतिशब्दमजीजनत्। वित्रेसुश्च निलिल्युश्च भूतानि सुमहान्त्यपि ।। | 3-171-13a 3-171-13b |
ततो निवातकवचाः सर्व एव समन्ततः। दंशिता विविधैस्त्राणैर्विचित्रायुपाणयः ।। | 3-171-14a 3-171-14b |
आयसैश्र महाशूलैर्गदाभिर्मुसलैरपि। पट्टसैः करवालैश्च रथचक्रैश्च भारत ।। | 3-171-15a 3-171-15b |
शतघ्नीभिर्भुशुण्डीभिः खङ्गैश्चित्रैः स्वलंकृतैः। प्रगृहीतैर्दितेः पुत्राः प्रादुरासन्सहस्रशः ।। | 3-171-16a 3-171-16b |
ततो विचार्य बहुशो रथमार्गेषु तान्हयान्। प्राचोदयत्समे देशे मातलिर्भरतर्षभ ।। | 3-171-17a 3-171-17b |
तेन तेषां प्रणुन्नानासाशुत्वाच्छीघ्रगामिनाम्। नान्वपश्यत्तदा कश्रित्तन्मेऽद्भुतमिवाभवत् ।। | 3-171-18a 3-171-18b |
ततस्ते दानवास्तत्रयोधवातान्यनेकशः। विकृतस्वररूपाणि भृशं सर्वाण्यचोदयन् ।। | 3-171-19a 3-171-19b |
तेन शब्देन सहसा समुद्रे पर्वतोपमाः। आप्लवन्त गतैः सत्वैर्मत्स्याः शतसहस्रशः ।। | 3-171-20a 3-171-20b |
3-171-4 तिमिर्मत्स्यस्त गिलति महामतस्यस्तिमिगिलः तमपि गिलतीति तिमितिमिगिलः। तिमिरिव गिलनीयस्तिमिगिलो यस्येति विग्रहः ।। 3-171-6 घूर्मते भ्रमति ।। 3-171-13 दिवं स्तब्ध्वा आकाश व्याप्य ।। 3-171-14 दशिताः सन्नद्धाः। त्राणैः कवचैः ।। 3-171-19 ततस्तेदानवास्तत्र बादित्राणि सहस्रशः। विकृतस्वररूपाणि भृशं सर्वाण्यनादयन् इति झ. पाठः ।। 3-171-20 आप्लवन्त पलायने कृतवन्तः। गतैः सत्वैर्विगताभिर्वुद्धिभिरुपलक्षिता भ्रान्ता इत्यर्थः ।। 3-171-24 तारकामये इति झ. पाठः। तत्र तारकामये तारार्थे संग्रामे इत्यर्थः ।।
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