महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-121
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सात्यकिना पाणअडवानपेक्षणेन स्वैरेव धार्तराष्ट्रादिहननपूर्वकं पाण्डवानामावनवाससमापनमभिमन्यो राज्येऽभिषच नोक्तिः ।। 1 ।। कृष्णेन सात्यकिंप्रतिपाण्डवानां परबाहुबलैकानुपजीवित्वादिगुणकथनपूर्वकं तन्निपेधनम् ।। 2 ।।
सात्यकिरुवाच। | 3-121-1x |
न राम कालः परिदेवनाय यदुत्तरं त्वत्र तदेव सर्वे। समाचरामो ह्यनतीतकालं युधिष्ठिरो यद्यपि नाह किंचित् ।। | 3-121-1a 3-121-1b 3-121-1c 3-121-1d |
ये नाथवन्तोऽद्य भवन्ति लोके ते नात्मना कर्म समारन्ते। तेषां तु कार्येषु भवन्ति नाथाः शैब्यादयो राम यथा ययातेः ।। | 3-121-2a 3-121-2b 3-121-2c 3-121-2d |
येषां तथा राम समारभन्ते कार्याणि नाथाः स्वमतेन लोके। रते नाथवन्तः पुरुषप्रवीरा नानाथवत्कृच्छ्रमवाप्नुवन्ति ।। | 3-121-3a 3-121-3b 3-121-3c 3-121-3d |
कस्मादिमौ रामजनार्दनौ च प्रद्युम्नसाम्बौ च मया समेतौ। वसन्त्यरण्ये सह सोदरीयै- स्त्रैलोक्यनाथानभिगम्य पार्थाः ।। | 3-121-4a 3-121-4b 3-121-4c 3-121-4d |
निर्यातु साध्यद्य दशार्हसेना प्रभूतनानायुधचित्रवर्मा। यमक्षयं गच्छतु धार्तराष्ट्रः सबान्धवो वृष्णिबलाभिभूतः ।। | 3-121-5a 3-121-5b 3-121-5c 3-121-5d |
त्वं ह्येव कोपात्पृथिवीमपीमां संवेष्टयेस्तिष्ठतु शार्ह्गधन्वा। स धार्तराष्ट्रं जहि सानुबन्धं वृत्रं यथा देवपतिर्महेन्द्रः ।। | 3-121-6a 3-121-6b 3-121-6c 3-121-6d |
भ्राता च मे यः स सखा गुरुश्च जनार्दनस्यात्मसमश्च पार्थः। तदर्थमेको हि य उद्यमन्वै करोति कर्णोऽस्त्रमवारणीयम् ।। | 3-121-7a 3-121-7b 3-121-7c 3-121-7d |
[यदर्थमैच्छन्मनुजाः सुपुत्रं शिष्यं गुरुं चाप्रतिकूलवादम्। यदर्थमभ्युद्यतमुत्तमं त- त्करोति कर्माग्र्यमपारणीयम् ।।] | 3-121-8a 3-121-8b 3-121-8c 3-121-8d |
तस्यास्त्रवर्षाण्यहमुत्तमास्त्रै- र्विहत्य सर्वाणइ रणेऽभिभूय। कायाच्छिरः सर्पविषाग्निकल्पैः शरोत्तमैरुन्मथिताऽस्मि राम ।। | 3-121-9a 3-121-9b 3-121-9c 3-121-9d |
खङ्गेन चाहं निशितेन सङ्ख्ये कायाच्छिरस्तस्य बलात्प्रमत्य। ततोऽस् सर्वाननुगान्हनिष्ये दुर्योधनं चापि कुरूश्च सर्वान् ।। | 3-121-10a 3-121-10b 3-121-10c 3-121-10d |
आत्तायुधं मामिह रौहिणएय पश्यन्तु भैमा युधि जातहर्षाः। निघ्नन्तमेकं कुरुयोधमुख्या- नग्निं महाकक्षमिवान्तकाले ।। | 3-121-11a 3-121-11b 3-121-11c 3-121-11d |
प्रद्युम्नमुक्तान्निशितान्न शक्ताः। सोढुं कृपद्रोणविकर्णकर्णाः। जानासि पीर्यं च तवात्मजस्य कार्ष्णिर्भवत्येव यथा रणस्थः ।। | 3-121-12a 3-121-12b 3-121-12c 3-121-12d |
साम्बः ससूतं सरथं भुजाभ्यां दुःशासनं शास्तु बलात्प्रमथ्य। न विद्यतेजाम्बवतीसुतस्य रणेऽविषह्यं हि रणोत्कटस्य ।। | 3-121-13a 3-121-13b 3-121-13c 3-121-13d |
एतेन बालेन हि शम्बरस्य दैत्यस्य सैन्यं सहसा प्रणुन्नम्। `हतः स पापो युधि केवलेन युद्धेऽद्वितीयो हरितुल्यवीर्यः' ।। | 3-121-14a 3-121-14b 3-121-14c 3-121-14d |
वृत्तोरुरत्यायतपीनबाहु- रेतेन सङ्ख्ये निहतोऽश्वचक्रः। को नाम साम्बस्य महारथस्य रणे समक्षं रथमभ्युदीयात् ।। | 3-121-15a 3-121-15b 3-121-15c 3-121-15d |
यथा प्रविश्यान्तरमन्तकस्य काले मनुष्यो न विनिष्क्रमेत। तथा प्रविश्यान्तरमस्य सङ्ख्ये को नाम जीवन्पुनराव्रजेच्च ।। | 3-121-16a 3-121-16b 3-121-16c 3-121-16d |
द्रोणं कच भीष्मं च महारथौ तौ सुतैर्वृतं चाप्यथ सोमदत्तम्। सर्वाणइ सैन्यानि च वासुदेवः प्रधक्ष्यते सायकवह्निजालैः ।। | 3-121-17a 3-121-17b 3-121-17c 3-121-17d |
किंनाम लोकेषु विषह्ममस्ति- कृष्णस्य सर्वेषु सदेवकेषु। आत्तायुधस्योत्तमबाणपाणे- श्चक्रायुधस्याप्रतिमस्य युद्धे ।। | 3-121-18a 3-121-18b 3-121-18c 3-121-18d |
ततो निरुद्धोऽप्यसिचर्मपाणि- र्महीमिमां धार्तराष्ट्रैर्विसंज्ञैः। हृतोत्तमाङ्गैर्निहतैः करोतु कीर्णाङ्कुशैर्वेदिमिवाध्वरेषु ।। | 3-121-19a 3-121-19b 3-121-19c 3-121-19d |
गदोल्मुकौ बाहुकभानुनीथाः शूरश्र सङ्ख्ये निशठः कुमारः। रणोत्कटौ सारणचारुदेष्णौ कुलोचितं विप्रथयन्तु कर्म ।। | 3-121-20a 3-121-20b 3-121-20c 3-121-20d |
सवृष्णिभोजान्धकयोधमुख्या समागता सात्वतशूरसेना। हत्वा रणे तान्धृतराष्ट्रपुत्रा- न्लोके यशः स्फीतमुपाकरोतु ।। | 3-121-21a 3-121-21b 3-121-21c 3-121-21d |
ततोऽभिमन्युः पृथिवीं प्रशास्तु यावद्व्रतं धर्मभृतांवरिष्ठः। युधिष्ठिरः पारयते महात्मा द्यूते यथोक्तं कुरुसत्तमेन ।। | 3-121-22a 3-121-22b 3-121-22c 3-121-22d |
अस्मत्प्रमुक्तैर्विशिखैर्जितारि- स्ततो महीं भोक्ष्यति धर्मराजः। निर्धार्तराष्ट्रां हतसूतपुत्रा- मेतद्धि नः कृत्यतमं यशस्यम् ।। | 3-121-23a 3-121-23b 3-121-23c 3-121-23d |
वासुदेव उवाच। | 3-121-24x |
असंशयं माधव सत्यमेत- द्गृह्णीम ते वाक्यमदीनसत्व। स्वाभ्यां भुजाभ्यामजितां तु भूमिं नेच्छेत्कुरूणामृषभः कथंचित् ।। | 3-121-24a 3-121-24b 3-121-24c 3-121-24d |
न ह्येष कामान्न भयान्न लोभा- द्युधिष्ठिरो जातु जह्यात्स्वधर्मम्। भीमार्जुनौ चातिरथौ यमौ च तथैव कृष्णा द्रुपदात्मजेयम् ।। | 3-121-25a 3-121-25b 3-121-25c 3-121-25d |
उभौ हि युद्धेऽप्रतिमौ पृथिव्यां वृकोदरश्चैव धनंजयश्च। कस्मान्न कृत्स्नां पृथिवीं प्रशासे- न्माद्रीसुताभ्यां च पुरस्कृतोऽयम् ।। | 3-121-26a 3-121-26b 3-121-26c 3-121-26d |
यदा तु पाञ्चालपतिर्महात्मा सकेकयश्चेदिपतिर्वयं च। युध्येम विक्रम्य रणे समेता- स्तदैव सर्वे रिपवो हि न स्युः ।। | 3-121-27a 3-121-27b 3-121-27c 3-121-27d |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-121-28x |
नेदं चित्रं माधव यद्ब्रवीषि सत्यं तु मे रक्ष्यतमं न राज्यम्। कृष्णस्तु मां वेद यथावदेकः कृष्णं च वेदाहमथो यथावत् ।। | 3-121-28a 3-121-28b 3-121-28c 3-121-28d |
यदैव कालं पुरुषप्रवीरो वेत्स्यत्ययं माधव विक्रमस्य। तदा रणे त्वं च शिनिप्रवीर सुयोधनं जेष्यसि केशवश्च ।। | 3-121-29a 3-121-29b 3-121-29c 3-121-29d |
प्रतिप्रयान्त्वद्य दशार्हवीरा दृष्टोस्मि नाथैर्नरलोकनाथैः। धर्मेऽप्रमादं कुरुताप्रमेया द्रष्टाऽस्मि भूयः सुखिनः समेतान् ।। | 3-121-30a 3-121-30b 3-121-30c 3-121-30d |
वैशंपायन उवाच। | 3-121-31x |
तेऽन्योन्यमामन्त्र्य तथाऽभिवाद्य वृद्धान्परिष्वज्य शिशूंश्च सर्वान्। यदुप्रवीराः स्वगृहाणि जग्मु- स्ते चापि तीर्थान्यमुसंविचेरुः ।। | 3-121-31a 3-121-31b 3-121-31c 3-121-31d |
विसृज्य वृष्णीननु धर्मराजौ विदर्भराजोपचितां सुतीर्थाम्। जगाम पुण्यां सरितं पयोष्णीं सभ्रातृभृत्यः सह लोमशेन ।। | 3-121-32a 3-121-32b 3-121-32c 3-121-32d |
सुतेन सोमेन विमिश्रतोयां पयः पयोष्णीं प्रति सोध्युवास। द्विजातिमुख्यैर्मुदितैर्महात्मा संस्तूयमानः स्तुतिभिर्वराभिः ।। | 3-121-33a 3-121-33b 3-121-33c 3-121-33d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्तयात्रापर्वणि एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 121 ।। |
3-121-2 शैव्यादय इति स्वार्थे ष्यञ् ।। 3-121-7 स पार्थोपि तिष्ठत्विति पूर्वेणान्वयः ।। 3-121-8 यदर्थं शत्रुवधार्थम्। तत् सुपुत्रादिकम्। अस्माकमस्तीति शेषः ।। 3-121-11 भैमा भीमकर्मकर्तारो भीमवंशजा वा ।। 3-121-14 एतेन प्रद्युम्नेन ।। 3-121-33 सुतेन अभिषुतेन। यज्ञे सोमपानतुल्यं तज्जलपानमित्यर्थः। पयोष्णीं प्रति पयोष्ण्यां पयोमात्रमध्युवासं भक्षितवान् ।।
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