महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-255
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दिग्विजयार्थं गतेन कर्णेन सकलराजवशीकरणपूर्वकं पुनर्हास्तिनपुरंप्रत्यागमनम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-255-1x |
ततः कर्णो महेष्वासो बलेन महता वृतः। द्रुपदस्य पुरं रम्यं रुरोध भरतर्षभ ।। | 3-255-1a 3-255-1b |
युद्धेन महता चैनं चक्रे वीरं वशानुगम्। सुवर्णं रजतं चापि रत्नानि विविधानि च। करं च दापयांमास द्रुपदं नृपसत्तम ।। | 3-255-2a 3-255-2b 3-255-2c |
तं विनिर्जित्य राजेन्द्र राजानस्तस्य येऽनुगाः। तान्सर्वान्वशगांश्चक्रे करं चैनानदापयत् ।। | 3-255-3a 3-255-3b |
अथोत्तरां दिशं गत्वा वशे चक्रे नराधिपान्। भगदत्तं च निर्जित्य राधेयो गिरिमारुहत् ।। | 3-255-4a 3-255-4b |
हिमवन्तं महाशैलं युध्यमानश्च शत्रुभिः। प्रययौ च दिशः सर्वान्नृपतीन्वशमानयत् ।। | 3-255-5a 3-255-5b |
स हैमवतिकाञ्जित्वा करं सर्वानदापयत्। नेपालविषये ये च राजानस्तानवाजयत् ।। | 3-255-6a 3-255-6b |
अवतीर्य ततः शैलात्पूर्वां दिशमभिद्रुतः। अङ्गान्वङ्गान्कलिङ्गांश्च शुण्डिकान्मिथिलानथ ।। | 3-255-7a 3-255-7b |
मागधान्कर्कखण्डांश्च निवेश्य विषयेऽऽत्मनः। आवशीरांश्च योध्यांश्च अहिक्षत्रांश्च सोऽजयत् ।। | 3-255-8a 3-255-8b |
पूर्वां दिशं विनिर्जित्य वत्सभूमिं तथाऽगमत् ।। | 3-255-9a |
वत्सभूमिं विनिर्जित्य केवलां मृत्तिकावतीम्। मोहनं पत्तनं चैव त्रिपुरीं कोसलां तथा ।। | 3-255-10a 3-255-10b |
एतान्सर्वान्विनिर्जित्य करमादाय सर्वशः। दक्षिणां दिशमास्थाय कर्णो जित्वा महारथान्। रुक्मिणं दाक्षिणात्येषु योधयामास सूतजः ।। | 3-255-11a 3-255-11b 3-255-11c |
स युद्धं तुमुलं कृत्वा रुक्मी प्रोवाच सूतजम्। प्रीतोस्मि तव राजेन्द्र विक्रमेण बलेन च ।। | 3-255-12a 3-255-12b |
न ते विघ्नं करिष्यामि प्रतिज्ञां समपालयम्। प्रीत्या चाहं प्रयच्छामि हिरण्यं यावदिच्छसि ।। | 3-255-13a 3-255-13b |
समेत्य रुक्मिणा कर्णः पाण्ड्यं शैलं च सोगमत् ।। | 3-255-14a |
स केवलं रणए चैव नीलं चापि महीपतिम्। वेणुदारिसुतं चैव ये चान्ये नृपसत्तमाः। दक्षिणस्यां दिशि नृपान्करान्सर्वानदापयत् ।। | 3-255-15a 3-255-15b 3-255-15c |
शैशुपालिं ततो गत्वा विजिग्ये सूतनन्दनः। पार्श्वस्थांश्चापि नृपतीन्वशे चक्रे महाबलः ।। | 3-255-16a 3-255-16b |
आवन्त्यांश्च वशे कृत्वा साम्ना च भरतर्षभ। वृष्णिभिः सह संम्य पश्चिमामपि निर्जयत् ।। | 3-255-17a 3-255-17b |
वारुणीं दिशमागम्य यावनान्वर्बरांस्तथा। नृपान्पश्चिमभूमिस्थान्दापयामास वै करान् ।। | 3-255-18a 3-255-18b |
विजित्य पृथिवीं सर्वां सपूर्वापरदक्षिणाम्। सम्लेच्छाटविकान्वीरः सपर्वतनिवासिनः ।। | 3-255-19a 3-255-19b |
भद्रान्रोहितकांश्चैव आग्रेयान्मालवानपि। गणान्सर्वान्विनिर्जित्य नीतिकृत्प्रहसन्निव ।। | 3-255-20a 3-255-20b |
शशकान्यवनांश्चैव विजिग्ये सूतनन्दनः। नग्नजित्प्रमुखांश्चैव गणाञ्जित्वा महारथान् ।। | 3-255-21a 3-255-21b |
एवं स पृथिवीं सर्वां वशे कृत्वा महारथः। विजित्य पुरुषव्याघ्रो नागसाह्वयमागमत् ।। | 3-255-22a 3-255-22b |
तमागतं महेष्वासं धार्तराष्ट्रो जनाधिपः। प्रत्युद्गत्य महाराज सभ्रातृपितृबान्धवः ।। | 3-255-23a 3-255-23b |
अर्चयामास विधिना कर्णमाहवशोभिनम्। आश्रावयच्च तत्कर्म प्रीयमाणो जनेश्वरः ।। | 3-255-24a 3-255-24b |
यन्न भीष्मान्न च द्रोणान्न कृपान्न च वाह्लिकात्। प्राप्तवानस्मि भद्रं ते त्वत्तःप्राप्तं मया हि तत् ।। | 3-255-25a 3-255-25b |
बहुना च किमुक्तेन शृणु कर्ण वचो मम। सनाथोस्मि महाबाहो त्वया नाथेन सत्तम ।। | 3-255-26a 3-255-26b |
न हि ते पाण्डवाः सर्वे कलामर्हन्ति षोडशीम्। अन्येवा पुरुषव्याघ्र राजानोऽभ्युदितोदिताः ।। | 3-255-27a 3-255-27b |
स भवान्धृतराष्ट्रं तं गान्धारीं च यशस्विनीम्। पश्य कर्ण महेष्वास अदितिं वज्रभृद्यथा ।। | 3-255-28a 3-255-28b |
ततो हलहलाशब्दः प्रादुरासीद्विशांपते। हाहाकाराश्च बहवो नगरे नागसाह्वये ।। | 3-255-29a 3-255-29b |
रकेचिदेनं प्रशंसन्ति निन्दन्ति स्म तथा परे। तूष्णीमासंस्तथा चान्ये नृपास्तत्र जनाधिप ।। | 3-255-30a 3-255-30b |
एवं विजित्य राजेन्द्र कर्णः शस्त्रभृतांवरः। सपर्वतवनाकाशां ससमुद्रां सनुष्कुटाम् ।। | 3-255-31a 3-255-31b |
देशैरुच्चावचैः पूर्णां पत्तनैर्नगरैरपि। द्वीपैश्चानूपसंपूर्णैः पृथिवीं पृथिवीपते ।। | 3-255-32a 3-255-32b |
कालेन नातिदीर्घेण वशे कृत्वा तु पार्थिवान्। अक्षयं धनमादाय सूतजो नृपमभ्ययात् ।। | 3-255-33a 3-255-33b |
प्रविश्य च गृहं राजन्नभ्यन्तरमरिंदम। गान्धारीसहितं वीरो धृतराष्ट्रं ददर्श सः ।। | 3-255-34a 3-255-34b |
पुत्रवच्च नरव्याघ्र पादौ जग्राह धर्मवित्। धृतराष्ट्रेण चाश्लिष्य प्रेम्णा चापि विसर्जितः ।। | 3-255-35a 3-255-35b |
तदाप्रभृति राजा च शकुनिश्चापि सौबलः। जानाते निर्जितान्पार्थान्कर्णेन युधि भारत ।। | 3-255-36a 3-255-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 255 ।। |
3-255-7 मुण्डिकान्मिथिलानिति ख.पाठः ।। 3-255-13 प्रतिज्ञां क्षत्रधर्मं समपालयं पालितवानस्मि। रक्षत्रधर्मावेक्षयैव त्वया सह युद्धं कृतं न त्वज्जिगीषयेति भावः ।। 3-255-14 शैलं श्रीशैलम् ।। 3-255-20 आग्नेयान्मालवानिति ख. पाठः ।। 3-255-24 तत्कर्म कर्णविजयं पुरे उद्धोषयामास ।। 3-255-27 अभ्युदित्नेभ्योपि उदिताः श्रेष्ठतमाः ।। 3-255-31 आकाशः पर्वतवनयोरन्तरालम्। सस्याद्युत्पत्तिभूमिमित्यर्थः ।। 3-255-32 अनूपं सर्वतोजलं तेन संपूर्णैः ।।
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