महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-205
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उदङ्केन राज्येस्वपुत्राभिषेचनपूर्वकं वनंप्रस्थितं बृहदश्वं प्रति तन्निवारणपूर्वकं धुन्धुनामकासुरहननचोदना ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-205-1x |
इक्ष्वाकौ संस्तिते राजञ्शशादः पृथिवीमिमाम्। प्राप्तः परमधर्मात्मा सोऽयोध्यायां नृपोऽभवत् ।। | 3-205-1a 3-205-1b |
शशादस्य तु दायाद ककुत्स्थो नाम वीर्यवान्। अनेनाश्चापि काकुत्स्थः पृथुश्चानेनसः सुतः ।। | 3-205-2a 3-205-2b |
विष्वगश्वः पृथोः पुत्रस्तस्मादार्द्रश्च जज्ञिवान्। आर्द्रस्य युवनाश्वस्तु श्रावस्तस्तस्य चात्मजः ।। | 3-205-3a 3-205-3b |
जज्ञे श्रावस्तको राजा श्रावस्ती येन निर्मिता। श्रावस्तस्य तु दायादो बृहदश्वो महाबलः ।। | 3-205-4a 3-205-4b |
बृहदश्वस् दायादः कुवलाश्व इति स्मृतः। कुवलाश्वस्य पुत्राणां सहस्राण्येकविंसतिः ।। | 3-205-5a 3-205-5b |
सर्वे विद्यासु निष्णाता बलवन्तो दुरासदाः। कुवलाश्वश्च पितृतोगुणैरभ्यधिकोऽभवत् ।। | 3-205-6a 3-205-6b |
समये तं तदा राज्ये बृहदश्वोऽभ्यषेचयत्। कुवलाश्वं महाराज शूरमुत्तमधार्मिकम् ।। | 3-205-7a 3-205-7b |
पुत्रसंक्रामितश्रीस्तु बृहदश्वो महीपतिः। जगाम तपसे धीमांस्तपोवनममित्रहा ।। | 3-205-8a 3-205-8b |
अथ शश्वाव राजर्षिं तमुदङ्को नराधिप। वनं संप्रस्थितं राजन्बृहदश्वं द्विजोत्तमः ।। | 3-205-9a 3-205-9b |
तमुदङ्को महातेजाः सर्वास्त्रविदुषांवरम्। न्यवारयदमेयात्मा समासाद्य पुरोत्तमे ।। | 3-205-10a 3-205-10b |
उदङ्क उवाच। | 3-205-11x |
भवता रक्षणं कार्यं तत्तावत्कर्तुमर्हसि। निरुद्विग्रा वयं राजंस्त्वत्प्रदाद्वसेमहि ।। | 3-205-11a 3-205-11b |
त्वया हि पृथिवी राजन्रक्ष्यमाणा महात्मना। भविष्यति निरुद्विग्ना नारण्यं गन्तुमर्हसि ।। | 3-205-12a 3-205-12b |
पालन हि महान्धर्मः प्रजानामिह दृश्यते। न तथा दृश्यतेऽरण्ये माभूत्ते बुद्धिरीदृशी ।। | 3-205-13a 3-205-13b |
ईदृशो न हि राजेन्द्र धर्मः क्वचन दृश्यते। प्रजानां पालने यत्नः पुरा राजर्षिभिः कृतः ।। | 3-205-14a 3-205-14b |
रक्षितव्याः प्रजा राज्ञा तास्त्वं रक्षितुमर्हसि। निरुद्विग्नस्तपस्तप्तुं न हि शक्नोमि पार्थिव ।। | 3-205-15a 3-205-15b |
ममाश्रमसमीपे वै समेषु मरुधन्वसु। समुद्रवालुकापूर्ण उज्जालक इति स्मृतः। बहुयोजनविस्तीर्णो बहुयोजनमायतः ।। | 3-205-16a 3-205-16b 3-205-16c |
तत्र रौद्रो दानवेन्द्रो महावीर्यपराक्रमः। मधुकैटभयोः पुत्रो धुन्धुर्नाम सुदारुणः। अन्तर्भूमिगतो राजन्वसत्यमितविक्रमः ।। | 3-205-17a 3-205-17b 3-205-17c |
तं निहत्य महाराज वनं त्वं गन्तुमर्हसि ।। | 3-205-18a |
शेते लोकविनाशाय तप आस्थाय दारुणम्। त्रिदशानां विनाशाय लोकानां चापि पार्थिव ।। | 3-205-19a 3-205-19b |
अवध्यो दैवतानां हि दैत्यानामथ रक्षसाम्। नागानामथ यक्षाणां गन्धर्वाणां च सर्वशः। अवाप्यस वरं राजन्सर्वलोकपितामहात् ।। | 3-205-20a 3-205-20b 3-205-20c |
तं विनाशय भद्रं ते मा ते बुद्धिरतोऽन्यथा। प्राप्स्यसे महतीं कीर्तिं शाश्वतीमव्ययां ध्रुवाम् ।। | 3-205-21a 3-205-21b |
क्रूरस्य तस्य स्वपतो वालुकान्तर्हितस्य च। संवत्सरस्य पर्यन्ते निःश्वासः संप्रवर्तते ।। | 3-205-22a 3-205-22b |
यदा तदा भूश्चलति सशैलवनकानना। तस्य निःश्वासवातेन रज उद्धूयते महत् ।। | 3-205-23a 3-205-23b |
आदित्यरथमाश्रित्य सप्ताहं भूमिकम्पनम्। सविस्फुलिङ्गं सज्वालं धूममिश्रं सुदारुणम् ।। | 3-205-24a 3-205-24b |
तेन राजन्न शक्नोमि तस्मिन्स्तातुं स्वआंश्रमे ।। | 3-205-25a |
तं विनाशय राजेन्द्र लोकानां हितकाम्यया। लकाः स्वस्था भविष्यन्ति तस्मिन्विनिहतेऽसुरे ।। | 3-205-26a 3-205-26b |
`धुन्धुनामानमत्युग्रं दानवं धोरविग्रहम्। समरे धोरतुमुले विनाशय महेषुणा' ।। | 3-205-27a 3-205-27b |
त्वं हि तस्य विनाशाय पर्याप्त इति मे मतिः। तेजसा तव तेजश्च विष्णुराप्यायविष्यति ।। | 3-205-28a 3-205-28b |
विष्णुना च वरो दत्तः पूर्वं मम महीपते ।। | 3-205-29a |
यस्तं महासुरं रौद्रं वधिष्यति महीपतिः। तेजस्तद्वैष्णवमिति प्रवेक्ष्यति दुरासदम् ।। | 3-205-30a 3-205-30b |
तत्तेजस्त्वंसमाधाय राजेन्द्र भुवि दुःसहम्। तं निषूदय संदिष्टो दैत्यं रौद्रपराक्रमम् ।। | 3-205-31a 3-205-31b |
न हि धुन्धुर्महातेजास्तेजसाऽल्पेन शक्यते। निर्दग्धुं पृथिवीपाल स हि वर्षशतैरपि ।। | 3-205-32a 3-205-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 205 |
3-205-3 बाडिशश्च पृथो पुत्र इति क. थ. पाठः ।।
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