महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-092
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लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति धर्माधर्मयोः समृद्धसमृद्धिलक्षणोदर्ककारणत्वाभिधानम् ।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 3-92-1x |
न वै निर्गुणमात्मानं मन्ये देवर्षिसत्तम। तथाऽस्मि दुःखसंतप्तो यथा नान्यो महीपतिः ।। | 3-92-1a 3-92-1b |
परांश्च निर्गुणान्मन्ये न च ध्रमगतानपि। ते च लोमश लोकेऽस्मिन्नृध्यन्ते के न हेतुना ।। | 3-92-2a 3-92-2b |
लोमश उवाच। | 3-92-3x |
नात्र दुःखं त्वया राजन्कार्यं पार्थ कथंचन। यदधर्मेण वर्धेयुरधर्मरुचयो जनाः ।। | 3-92-3a 3-92-3b |
वर्धत्यधर्मेण नरस्ततो भद्राणि पश्यति। ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ।। | 3-92-4a 3-92-4b |
`यत्र धर्मेण वर्धन्ते राजानो राजसत्तम। सर्वान्सपत्नान्वाधन्ते राज्यं चैषां विवर्धते' ।। | 3-92-5a 3-92-5b |
मया हि दृष्टा दैतेया दानवाश्च महीपते। वर्धमाना ह्यधर्मेण क्षयं चोपगताः पुनः ।। | 3-92-6a 3-92-6b |
पुरा देवयुगे चैव दृष्टं सर्वं मया विभो। अरोचयन्सुरा धर्मं धर्मं तत्यजिरेऽसुराः ।। | 3-92-7a 3-92-7b |
तीर्तानि देवा विविशुर्नाविशन्भारतासुराः। तानधर्मकृतो दर्पः पूर्वमेव समाविशत् ।। | 3-92-8a 3-92-8b |
दर्पान्मानः समभवन्मानात्क्रोधो व्यजायत। क्रोधादहीस्ततोऽलञ्जा वृत्तं तेषां ततोऽनशत् ।। | 3-92-9a 3-92-9b |
तानलज्जान्गतश्रीकान्हीनवृत्तान्वृथाव्रतान्। क्षमा लक्ष्मीः स्वधर्मश्च नचिरात्प्रजहुस्ततः ।। | 3-92-10a 3-92-10b |
लक्ष्मीस्तु देवानगमदलक्ष्मीरसुरान्नृप ।। | 3-92-11a |
तानलक्ष्मीसमाविष्टान्दर्पोपहतचेतसः। दैतेयान्दानवांश्चैव कलिरप्याविशत्ततः ।। | 3-92-12a 3-92-12b |
तानलक्ष्मीसमाविष्टान्दानवान्कलिनाहतान्। दर्पाभिभूतान्कौन्तेय क्रियाहीनानचेतसः ।। मानाभिभूतानचिराद्विनाशः समपद्यत ।। | 3-92-13a 3-92-13b 3-92-13c |
निर्यशस्कास्तथा दैत्याः कृत्स्नशो विलयं गताः। `अधर्मरुचयोराजन्नलक्ष्म्या समधिष्ठिताः' ।। | 3-92-14a 3-92-14b |
देवास्तु सागरांश्चैव सरितश्च सरांसि च। अभ्यगच्छन्धर्मशीलाः पुण्यान्यावतनानि च ।। | 3-92-15a 3-92-15b |
तपोभिः क्रतुभिर्दानैराशीर्वादैश्च पाण्डव। प्रजहुः सर्वपापानि श्रेयश्च प्रतिपेदिरे ।। | 3-92-16a 3-92-16b |
एवमादानवन्तश् निरादानाश्च सर्वशः। तीर्थान्यगच्छन्विबुधास्तेनापुर्भूतिमुत्तमाम् ।। | 3-92-17a 3-92-17b |
तथा त्वमपि राजेन्द्र स्नात्वा तीर्थेषु सानुजः। पुनर्वेत्स्वसि तां लक्ष्मीमेष पन्थाः सनातनः ।। | 3-92-18a 3-92-18b |
यथैव हि नृगो राजा शिविरौशीनरो यथा। भगीरयो वसुमना गयः पूरुः पुरूरवाः ।। | 3-92-19a 3-92-19b |
चरमाणास्तपो नित्यंस्पर्शनादम्भसश्च ते। तीर्थामिगमनात्पूता दर्शनाच्च महात्मनाम् ।। | 3-92-20a 3-92-20b |
अलभन्त यशः पुण्यं धनानि च विशांपते। तथा त्वमपि राजेन्द्र लब्ध्वा सुविपुलां श्रियम् ।। | 3-92-21a 3-92-21b |
यथा चेक्ष्वाकुरभवत्सपुत्रजनबान्धवः। मुचुकुन्दोऽथ मांधाता मरुत्तश्च महीपतिः ।। | 3-92-22a 3-92-22b |
कीर्तिं पुण्यामविन्दन्त यथा देवास्तपोबलात्। देवर्षयश्च कार्त्स्न्येन तथा त्वमपि वेत्स्यसि ।। | 3-92-23a 3-92-23b |
धार्तराष्ट्रास्त्वधर्मेण मोहिन च वशीकृताः। नचिराद्वै विनङ्क्ष्यन्ति दैत्या इव न संशयः ।। | 3-92-24a 3-92-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि द्विनवतितमोऽध्यायः ।। 92 ।। |
3-92-2 परान् शत्रून् ।। 3-92-8 विविशुः स्नानार्थमिति शेषः ।। 3-92-9 अह्नीः अकार्ये प्रवृत्तिः। ततः अलज्जा लज्जा निन्द्यतादोषाद्भयं तस्य नाशः । 3-92-10 नचिरात् शीघ्रमेव ।। 3-92-17 आदानवन्तः आर्जवादिनियमग्रहणवन्तः। निरादानाः अप्रतिबद्धाः। सर्वशः देवादिभिरपि। एवं हि दानवन्तश्च क्रियावन्तश्च सर्वशः इति ध. पाठः ।। 3-92-18 वेत्स्यसिलप्स्यसे ।। 3-92-24 धार्तराष्ट्रस्तु दर्पेण इति क. ध. पाठः ।।
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