महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-265
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पञ्चस्वपि पाण्डवेषु मृगयार्थे गतेषु सपरिजनेन सैन्धवेन मार्गवशात्तदाश्रमाभिगमनम् ।। 1 ।। तत्रद्रौपदीदर्शनक्षुभितहृदा जयद्रथेन तत्तत्वजिज्ञासया तन्निकटं प्रतिकोटिकाश्यस् प्रेषणम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-265-1x |
तस्मिन्बहुमृगेऽरण्ये अटमाना महारथाः। काम्यके भरतश्रेष्ठा विजह्वुस्ते यथामराः ।। | 3-265-1a 3-265-1b |
प्रेक्षमाणा बहुविधान्वनोद्देशान्समन्ततः। यथर्तुकालरम्याश्चवनराजीः सुषुष्पिताः ।। | 3-265-2a 3-265-2b |
पाण्डवा मृगयाशीलाश्चरन्तस्तन्महद्वनम्। विजह्नरिन्द्रप्रिमाः कंचित्कालमरिंदमाः ।। | 3-265-3a 3-265-3b |
ततस्ते यौगपद्येन ययुः सर्वे चतुर्दिशम्। मृगयां पुरुषव्याघ्रा ब्राह्मणार्थे परतपाः ।। | 3-265-4a 3-265-4b |
द्रौपदीमाश्रमे न्यस् तृणबिन्दोरनुज्ञया। महर्षेर्दीप्ततपसो घौम्यस्य च पुरोधसः ।। | 3-265-5a 3-265-5b |
तस्तु राजा सिंधूनां वार्धक्षत्रिर्महायशाः। विवाहकामः साल्वेयान्प्रयातः सोऽभवत्तदा ।। | 3-265-6a 3-265-6b |
महता परिबर्हेण राजयोग्येन संवृतः। राजभिर्बहुभिः सार्धमुपायात्काम्यकं च सः ।। | 3-265-7a 3-265-7b |
तत्रापश्यत्प्रियां भार्यां पाण्डवानां यशस्विनीम्। तिष्ठन्तीमाश्रमद्वारि द्रौपदीं निर्जने वने ।। | 3-265-8a 3-265-8b |
विभ्राजमानां वपुषा बिभ्रतीं रूपमुत्तमम्। भ्राजयन्तीं वनोद्देशं नीलाभ्रमिव विद्युतम् ।। | 3-265-9a 3-265-9b |
अप्सरा देवकन्या वा माया वा देवनिर्मिता। इतिकृत्वाञ्जलिं सर्वे ददृशृस्तामनिन्दिताम् ।। | 3-265-10a 3-265-10b |
तः स राजा सिन्धूनां वार्धक्षत्रिर्जयद्रथः। विस्मितस्त्वनवद्याङ्गीं दृष्ट्वा तां दुष्टमानसः ।। | 3-265-11a 3-265-11b |
स कोटिकाश्यं राजानमब्रवीत्काममोहितः। कस्य त्वेषाऽनवद्याङ्गी यदिवाऽपिन मानुषी ।। | 3-265-12a 3-265-12b |
विवाहार्थो न मे कश्चिदिमां दृष्ट्वाऽतिमुन्दरीम्। एतामेवाहमादाय गमिष्यामि स्वमालयम् ।। | 3-265-13a 3-265-13b |
गच्छ जानीहि सौम्येमां कस्य वाऽत्र कुतोपि वा। किमर्थमागता सुभ्रूरिदं कष्टकितं वनम् ।। | 3-265-14a 3-265-14b |
अपि नाम वरारोहा मामेषा लोकसुन्दरी। भजेदद्यायतापाङ्गी सुदती तनुमध्यमा ।। | 3-265-15a 3-265-15b |
अप्यहं कृतकामः स्यामिमां प्राप्य वरस्रियम्। गच्छजानीहि कोन्वस्या नाथ इत्येव कोटिक ।। | 3-265-16a 3-265-16b |
स कोटिकाश्यस्तच्छ्रुत्वा रथात्प्रस्कन्द्य कुण्डली। उपेत्यपप्रच्छ तदा क्रोष्टा व्याघ्रवधूमिव ।। | 3-265-17a 3-265-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि पञ्चषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 265 ।। |
3-265-7 परिबर्हेण परिच्छदेन ।। 3-265-9 नीलाभ्रं नीलमेघम् ।।
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