महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-174
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अर्जुनेन निवातकवचवधानन्तरं पुनः स्वगैप्रति प्रस्तानम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुन उवाच। | 3-174-1x |
अदृश्यमानास्ते दैत्या योधयन्ति स्म मायया। अदृश्यनास्त्रवीर्येण तानप्यहमयोधयम् ।। | 3-174-1a 3-174-1b |
गाण्डीवमुक्ता विशिखाः सम्यगस्त्रप्रचोदिताः। अच्छिन्दन्नुत्तमाङ्गानि यत्रयत्र स्म तेऽभवन् ।। | 3-174-2a 3-174-2b |
ततो निवातकवचा वध्यमाना मया युधि। संहृत्य रमायां सहसा प्राविशन्पुरमात्मनः ।। | 3-174-3a 3-174-3b |
व्यपयातेषु दैत्येषु प्रादुर्भूते च दर्शने। अपश्यं दानवांस्तत्र हताञ्शतसहस्रशः ।। | 3-174-4a 3-174-4b |
विनिष्पिष्टानि तत्रैषां शस्त्राण्याभरणानि च। शतशः स्म प्रदृश्यन्ते गात्राणि कवचानि च ।। | 3-174-5a 3-174-5b |
हयानां नान्तरं ह्यासीत्पदाद्विचलितुं पदम्। उत्पत्य सहसा तस्थुरन्तरिक्षगमास्ततः ।। | 3-174-6a 3-174-6b |
ततो निवातकवचा व्योम संछाद्य केवलम्। अदृश्या ह्यभ्यवर्तन्त विसृजन्तः शिलोच्चयान् ।। | 3-174-7a 3-174-7b |
अन्तर्भूमिगताश्चान्ये हयानां चरणानथ। व्यगृह्णन्दानवा घोरा रथचक्रे च भारत ।। | 3-174-8a 3-174-8b |
विनिगृह्य हयांश्चान्ये रथं च मम युध्यतः। सर्वतो मामविध्यन्त सरथं धरणीधरैः ।। | 3-174-9a 3-174-9b |
पर्वतैरुपचीयद्भिः पतद्भिश्च तथाऽपरैः। स देशो यत्रवर्तामि गुहेव समपद्यत ।। | 3-174-10a 3-174-10b |
पर्वतैश्चाद्यमानोऽहं निगृहीतैश्च वाजिभिः। अगच्छं परमामार्तिं मातलिस्तदलक्षयत् ।। | 3-174-11a 3-174-11b |
लक्षयित्वा च मां भीतमिदं वचनमब्रवीत्। आर्जुनार्जुन मा भैस्त्वं वज्रमस्त्रमुदीरय ।। | 3-174-12a 3-174-12b |
ततोऽहं तस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा वज्रमुदीरयम्। देवराजस् दयितं वज्रमस्त्रं नराधिप ।। | 3-174-13a 3-174-13b |
अचलं स्थानमासाद्य गाण्डीवमनुमन्त्र्य च। अमुञ्चं वज्रसंस्पर्शानायतान्निशिताञ्सरान् ।। | 3-174-14a 3-174-14b |
ततो मायाश् ताः सर्वा निवातकवचांश्च तान्। ते वज्रचोदिता बाणा वज्रभूताः रसमाविशन् ।। | 3-174-15a 3-174-15b |
ते वज्रवेगविहता दानवाः पर्वतोपमाः। इतरेतरमाश्लिष्य न्यपतन्पृथिवीतले ।। | 3-174-16a 3-174-16b |
अन्तर्भूमौ च येऽगृह्णन्दानवा रथवाजिनः। अनुप्रविश्य तान्वाणाः प्राहिण्वन्यमसादनम् ।। | 3-174-17a 3-174-17b |
हतैर्निवातकवचैर्निरस्तैः पर्वतोपमैः। समाच्छाद्यत देशः स विकीर्णैरिव पर्वतैः ।। | 3-174-18a 3-174-18b |
न हयानां क्षतिः काचिन्न रथस् न मातलेः। मम चादृश्यत तदा तदद्भुतमिवाभवत् ।। | 3-174-19a 3-174-19b |
ततो मां प्रहसन्राजन्मातलिः प्रत्यभाषत। नैतदर्जुन देवेषु त्वयि वीर्यं यदीक्ष्यते ।। | 3-174-20a 3-174-20b |
हतेष्वसुरसङ्घेषु दारास्तेषां तु सर्वशः। प्राक्रोशन्नगरे तस्मिन्यथा शरदि लक्ष्मणाः ।। | 3-174-21a 3-174-21b |
ततो मातलिना सार्धमहं तत्पुरमभ्ययाम्। त्रासयन्रथघोषेण निवातकवचस्त्रियः ।। | 3-174-22a 3-174-22b |
तान्दृष्ट्वा दशसाहस्रान्मयूरसदृशान्हयान्। रथं च रविसंकाशं प्राद्रवन्गणशः स्त्रियः ।। | 3-174-23a 3-174-23b |
ताभिराभरणैः शब्दस्त्रासिताभिः समीरितः। शिलानामिव शैलेषु पतन्तीनामभूत्तदा ।। | 3-174-24a 3-174-24b |
वित्रस्ता दैत्यनार्यस्ताः स्वानि वेश्मान्यथाविशन्। बहुरत्नविचित्राणि शातकुम्भमयानि च ।। | 3-174-25a 3-174-25b |
तदद्भुताकारमहं दृष्ट्वा नगरमुत्तमम्। विशिष्टं देवनगरादपृच्छं मातलिं ततः ।। | 3-174-26a 3-174-26b |
इदमेवंविधं कस्माद्देवता न विशन्त्युत। पुरंदरपुराद्धीदं विशिष्टमिति लक्षये ।। | 3-174-27a 3-174-27b |
मातलिरुवाच। | 3-174-28x |
आसीदिदं पुरा पार्थ देवराजस्य नः पुरम्। ततो निवातकवचैरितः प्रच्याविताः सुराः ।। | 3-174-28a 3-174-28b |
तपस्तप्त्वा महत्तीव्रं प्रसाद्य च पितामहम्। इदं वृतं निवासाय देवेभ्यश्चाभयं युधि ।। | 3-174-29a 3-174-29b |
ततः शक्रेण भगवान्स्वयंभूरभिचोदितः। विधत्तां भगवानत्रेत्यात्मनो हितकाम्यया ।। | 3-174-30a 3-174-30b |
तत उक्तो भगवता दिष्टमत्रेति भारत। भवितान्तस्त्वमप्येषां देहेनान्येन वृत्रहन् ।। | 3-174-31a 3-174-31b |
तत एषां वधार्थाय शक्रोऽस्त्राणि ददौ तव। न हि शक्याः सुरैर्हन्तुं य एते निहतास्त्वया ।। | 3-174-32a 3-174-32b |
कालस्य परिणामेन ततस्त्वमिह भारत। एषामन्तकरः प्राप्तस्तत्त्वया च कृतं तथा ।। | 3-174-33a 3-174-33b |
दानवानां विनाशार्थं महास्त्राणां महद्बलम्। ग्राहितस्त्वं महेन्द्रेण पुरुषेन्द्र तदुत्तमम् ।। | 3-174-34a 3-174-34b |
उर्जुन उवाच। | 3-174-35x |
ततः प्रशाम्य नगरं दानवांश्च निहत्य तान्। पुनर्मातलिना सार्धमगमं देवसद्म तत् ।। | 3-174-35a 3-174-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 174 |
3-174-21 लक्ष्मणाः सारस्यः ।। 3-174-35 प्रशाम्य प्रकर्षेण आलोच्य ।।
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