महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-114
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पुनर्विभाण्डकासन्निधाने तदाश्रमं गतया गणिकातरुण्या नौकारोपणेन ऋश्यशृङ्गेऽङ्गदेशमानीते महावृष्टेराविर्भावः ।। 1 ।। ऋश्यशृङ्गेण लोमपादप्रार्थनया शान्ताभिधायास्तत्सुतायाः परिणयनम् ।। 2 ।। लोमपादेन क्रुद्धस् विभाण्डकस्य प्रसादनम् ।। 3 ।। ऋश्यशृङ्गेण पितृशासनादङ्गदेशे तनयोदयावधिनिवासपूर्वकं ततः सहभार्यया निजाश्रमाभिगमनम् ।। 4 ।।
विभाण्डक उवाच। | 3-114-1x |
रक्षांसि चैतानि चरन्ति पुत्र रूपेण तेनाद्भुतदर्शनेन। अतुल्यवीर्याण्यभिरूपवन्ति विघ्रं सदा तपसश्चिन्तयन्ति ।। | 3-114-1a 3-114-1b 3-114-1c 3-114-1d |
सुरूपरूपाणि च तानि तात प्रलोभयन्ते विविधैरुपायैः। सुखाच्च लोकाच्च निपातयन्ति तान्युग्ररूपाणि मुनीन्वनेषु ।। | 3-114-2a 3-114-2b 3-114-2c 3-114-2d |
न तानि सेवेत मुनिर्यतात्मा सतां लोकान्प्रार्थयानः कथंचित्। कृत्वा विघ्रनं तापसानां रमन्ते पापाचारास्तापसस्तान्न पश्येत् ।। | 3-114-3a 3-114-3b 3-114-3c 3-114-3d |
असज्जनेनाचरितानि पुत्र पानान्यपेयानि मधूनि तानि। माल्यानि चैतानि न वै मुनीनां स्मृतानि चित्रोज्ज्वलगन्धवन्ति ।। | 3-114-4a 3-114-4b 3-114-4c 3-114-4d |
रक्षांसि तानीति निवार्य पुत्रं विभाण्डकस्तां मृगयांबभूव। नासादयामास यदा त्र्यहेण तदा स पर्याववृते श्रमाय ।। | 3-114-5a 3-114-5b 3-114-5c 3-114-5d |
यदा पुन काश्यपो वै जगाम फलान्याहर्तुं विधिनाश्रमेऽसौ। तदा पुनर्लोभयितुं जगाम सा वेशायोषा मुनिमृश्यशृह्गम् ।। | 3-114-6a 3-114-6b 3-114-6c 3-114-6d |
दृष्ट्वैव तामृश्यशृङ्गः प्रहृष्टः संभ्रान्तरूपोऽभ्यपतत्तदानीम्। प्रोवाच चैनां भवतः श्रमाय गच्छाव यावन्न पिता ममैति ।। | 3-114-7a 3-114-7b 3-114-7c 3-114-7d |
लोमश उवाच। | 3-114-8x |
ततो राजन्काश्यपस्यैकपुत्रं प्रवेश्य वेगेन विमुच्य नावम्। प्रलोभयन्त्यो विविधैरुपायै- राजग्मुरङ्गाधिपतेः समीपम् ।। | 3-114-8a 3-114-8b 3-114-8c 3-114-8d |
संस्थाप्यतामाश्रमदर्शने तु संतारितां नावमथातिशुभ्राम्। तीरादुपादाय तथैव चक्रे राजाश्रमं नाम वनं विचित्रम् ।। | 3-114-9a 3-114-9b 3-114-9c 3-114-9d |
अन्तःपुरे तं तु निवेश्य राजा विभाण्डकस्यात्मजमेकपुत्रम्। ददर्श मेघैः सहसा प्रवृष्ट- मापूर्यणाणं च जगज्जलेन ।। | 3-114-10a 3-114-10b 3-114-10c 3-114-10d |
स रोमपाद परिपूर्णकामः सुतां ददावृश्यशृङ्गाय शान्ताम्। क्रोधप्रतीकारकरं च चक्रे गोभिश्च मार्गेष्वभिकर्षणं च ।। | 3-114-11a 3-114-11b 3-114-11c 3-114-11d |
विभाण्डकस्याव्रजतः स राजा पशून्प्रभूतान्पशुपांश्च वीरान्। समादिशत्पुत्रगृद्धी महर्षि- र्विभाण्डकः परिपृच्छेद्यदा वः ।। | 3-114-12a 3-114-12b 3-114-12c 3-114-12d |
स क्तव्यः प्राञ्जलिभिर्भवद्भिः पुत्रस्य ते पशवः कर्षणं च। किं ते प्रियं वै क्रियतां महर्षे दासाः स्म सर्वे तव वाचि बद्धाः ।। | 3-114-13a 3-114-13b 3-114-13c 3-114-13d |
अथोपायात्स मुनिश्चण्डकोपः स्वमाश्रमं मूलफलं गृहीत्वा। अन्वेषमाणश्च न तत्र पुत्रं ददर्श चुक्रोध ततो भृशं सः ।। | 3-114-14a 3-114-14b 3-114-14c 3-114-14d |
ततः स कोपेन विदीर्यमाण आशङ्कमानो नृपतेर्विधानम्। जगाम चम्पां प्रतिधक्ष्यमाण- स्तमङ्गराजं सपुरं सराष्ट्रम् ।। | 3-114-15a 3-114-15b 3-114-15c 3-114-15d |
स वै श्रान्तः क्षुधितः काश्यपस्ता- न्घोषान्समासादितवान्समृद्धान्। गोपैश्च तैर्विधिवत्पूज्यमानो राजेव तां रात्रिमुवास तत्र ।। | 3-114-16a 3-114-16b 3-114-16c 3-114-16d |
अवाप्य सत्कारमतीव हृष्टः प्रोवाच कस्य प्रथिताः स्थ गोपाः। ऊचुस्ततस्तेऽभ्युपगम्य सर्वे धनं तवेदं विहितं सुतस्य ।। | 3-114-17a 3-114-17b 3-114-17c 3-114-17d |
देशेषु देशेषु स पूज्यमान- स्तांश्चैव शृण्वन्मधुरान्प्रलापान्। प्रशान्तभूयिष्ठरजाः प्रहृष्टः समाससादाङ्गपतिं पुरस्थम् ।। | 3-114-18a 3-114-18b 3-114-18c 3-114-18d |
स पूजितस्तेन नरर्षभेण ददर्श पुत्रं दिवि देवं यथेन्द्रम्। शान्तां स्नुषां चैव ददर्श तत्र सौदामनीमुच्चरन्तीं यथैव ।। | 3-114-19a 3-114-19b 3-114-19c 3-114-19d |
ग्रामां श्च घोषांश्च सुतस्य दृष्ट्वा शान्तां च शान्तोऽस्य परः स कोपः। चकार तस्यैव परं प्रसादं विभाण्डको भूमिपतेर्नरेद्र ।। | 3-114-20a 3-114-20b 3-114-20c 3-114-20d |
स तत्रनिक्षिप्य सुतं महर्षि- रुवाच सूर्याग्निसमप्रभावः। जाते च पुत्रे वनमेवाव्रजेथा राज्ञः प्रियाण्यस्य सर्वाणि कृत्वा ।। | 3-114-21a 3-114-21b 3-114-21c 3-114-21d |
स तद्वचः कृतवानृश्यशृङ्गो ययौ च यत्रास्य पिता बभूव। शान्ता चैनं पर्यचरन्नरेन्द्र स्वे रोहिणी सोममिवानुकूला ।। | 3-114-22a 3-114-22b 3-114-22c 3-114-22d |
अरुन्धती वा सुभगा वसिष्ठं लोपामुद्रा वा यथा ह्यगस्त्यम्। नलस्य वै दमयन्ती यथा भू द्यथा शची वज्रधरस्य चैव ।। | 3-114-23a 3-114-23b 3-114-23c 3-114-23d |
प्रीत्या युक्ता पर्यचरन्नरेन्द्र ।। | 3-114-24f |
तस्याश्रमः पुण्य एषोऽवभाति महाह्रदं शोभयन्पुण्यकीर्तिः। अत्रस्नातः कृतकृत्यो विशुद्ध- स्तीर्थान्यन्यान्यनुसंयाहि राजन् ।। | 3-114-25a 3-114-25b 3-114-25c 3-114-25d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ।। 114 ।। |
3-114-5 श्रमाय आश्रमाय ।। 3-114-6 विधिना श्रावणेनेति झ. पाठः। वेशयोषा वेश्या ।। 3-114-9 आश्रमो यत्रस्थैर्दृश्यते तावतिदेशे आश्रमदर्शने। नाव्याश्रमं नामेति झ. पाठः ।। 3-114-11 गाश्चैव मार्गेषु च कर्षणानीति झ. पाठः ।।
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