महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-169
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अर्जुनेन स्वस्येन्द्रलोकगमनप्रकारस्य तत्रनिवासप्रकारकथनपूर्वकमिन्द्रादस्त्रप्राप्तिप्रकारस्यच कथनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुन उवाच। | 3-169-1x |
ततस्तामवसं प्रीतो रजनीं तत्र भारत। प्रसादाद्देवदेवस्यत्र्यम्बकस्य महात्मनः ।। | 3-169-1a 3-169-1b |
व्युषितो रजनीं चाहंकृत्वापौर्वाह्णिकीः क्रियाः। अपश्यं तं द्विजश्रेष्ठं दृष्टवानस्मि यं पुरा ।। | 3-169-2a 3-169-2b |
तस्मै चाहं यथावृत्तं सर्वमेव न्यवेदयम्। भगवन्तं महादेवं समेतोस्मीति भारत ।। | 3-169-3a 3-169-3b |
स मामुवाच राजेन्द्र प्रीयमाणो द्विजोत्तमः। दृष्टस्त्वया महादेवो यथा नान्येन केनचित् ।। | 3-169-4a 3-169-4b |
समेतं लोकपालैस्तु सर्वैर्वैवस्वतादिभिः। द्रष्टास्यनघ देवेन्द्रं स च तेऽस्त्राणि दास्यति ।। | 3-169-5a 3-169-5b |
एवमुक्त्वा स मां राजन्नाश्लिष्य च पुनः पुनः। अगच्छत्स यथाकामं ब्राह्मणः सूर्यसन्निभः ।। | 3-169-6a 3-169-6b |
अथापराह्णे तस्याह्नः प्रावात्पुण्यः समीरणः। पुनर्नवमिमं लोकं कुर्वन्निव सपत्नहन् ।। | 3-169-7a 3-169-7b |
दिव्यानि चैव माल्यानि सुगन्धीनि नवानि च। शैशिरस्य गिरे पादे प्रादुरासन्समीपतः ।। | 3-169-8a 3-169-8b |
वादित्राणिच दिव्यानि सुघोषाणि समन्ततः। स्तुतयश्चेन्द्रसंयुक्ता अश्रूयन्त मनोहराः ।। | 3-169-9a 3-169-9b |
गणाश्चाप्सरसां तत्रगन्धर्वाणां तथैव च। पुरस्ताद्देवदेवस्य जगुर्गीतानि सर्वशः ।। | 3-169-10a 3-169-10b |
मरुतां च गणास्तत्र देवयानैरुपागमन्। महेन्द्रानुचरा ये च देवसद्मनिवासिनः ।। | 3-169-11a 3-169-11b |
ततो मरुत्वानहरिभिर्युक्तैर्वाहैः स्वलंकृतैः। शचीसहायस्तत्रायात्सह सर्वैस्तदाऽमरैः ।। | 3-169-12a 3-169-12b |
एतस्मिन्नैव काले तु कुबेरो नरवाहनः। दर्शयामास मां राजँल्लक्ष्म्या परमया युतः ।। | 3-169-13a 3-169-13b |
दक्षिणस्यां दिशि यमं प्रत्यपश्यं व्यस्थितम्। वरुणं देवराजं च यथास्थानमवस्थितम् ।। | 3-169-14a 3-169-14b |
ते मामूचुर्महाराज सान्त्वयित्वा सुरर्षभाः। सव्यसाचिन्निरीक्षास्माँल्लोकपालानवस्थितान् ।। | 3-169-15a 3-169-15b |
सुरकार्यार्थसिद्ध्यर्थं दृष्टवानसि शंकरम्। अस्मत्तोऽपि गृहाण त्वमस्त्राणीति समन्ततः ।। | 3-169-16a 3-169-16b |
ततोऽहं प्रयतो भूत्वा प्रणिपत्य सुरर्षभान्। प्रत्यगृह्णां तदाऽस्त्राणि महान्ति विविधानि च ।। | 3-169-17a 3-169-17b |
गृहीतास्त्रस्ततो देवैरनुज्ञातोस्मि भारत। अथ देवा ययुः सर्वेयथागतमरिंदम ।। | 3-169-18a 3-169-18b |
मघवानपि मां देवो रथमारोप्य सुप्रभम्। उवाच भगवान्वाक्यं स्मयन्निव महायशाः ।। | 3-169-19a 3-169-19b |
पुरैवागमनादस्माद्वेदाहं त्वां धनंजय। अतः परं त्वहं वै त्वां दर्शये भरत्रषभ ।। | 3-169-20a 3-169-20b |
त्वया हि तीर्थेषु पुरा समाप्लावः कृतोऽसकृत्। तपश्चेदं महत्त्प्तं स्वर्गं गन्तासि पाण्डव ।। | 3-169-21a 3-169-21b |
भूयश्चैव च तप्तव्यं तपश्चरणमुत्तमम्। `दुश्चरं घोरमस्त्राणां तपोबलकरं तव' ।। | 3-169-22a 3-169-22b |
स्वर्गस्त्ववश्यं गन्तव्यस्त्वया शत्रुनिषूदन। मातलिर्मन्नियोगात्त्वां त्रिदिवं प्रापयिष्यति ।। | 3-169-23a 3-169-23b |
विदितस्त्वंहि देवानां मुनीनां च महात्मनाम्। `इहस्थः पाण्डवश्रेष्ठ तपः कुर्वन्सुदुष्करम्' ।। | 3-169-24a 3-169-24b |
ततोऽहमब्रुवं शक्रं प्रसीद भगवन्मम। आचार्यं वरयेऽहं त्वामस्त्रार्थं त्रिदशेश्वर ।। | 3-169-25a 3-169-25b |
इन्द्र उवाच। | 3-169-26x |
क्रूरकर्माऽस्त्रवित्तात भविष्यसि परंतप। यदर्थमस्त्राणीप्सुस्त्वं तं कामं पाण्डवाप्नुहि ।। | 3-169-26a 3-169-26b |
ततोऽहमब्रुवं नाहं दिव्यान्यस्त्राणि शत्रुहन्। मानुषेषु प्रयोक्ष्यामि विनाऽस्त्रप्रतिघातनात् ।। | 3-169-27a 3-169-27b |
तानि दिव्यानि मेऽस्त्राणि प्रयच्छ विबुधाधिप। लेकांश्चास्त्रजितान्पश्चाल्लभेयं सुरपुङ्गव ।। | 3-169-28a 3-169-28b |
इन्द्र उवाच। | 3-169-29x |
परीक्षार्थं मयैतत्ते वाक्यमुक्तं धनंजय। ममात्मजस्य वचनं सूपपन्नमिदं तव ।। | 3-169-29a 3-169-29b |
शिक्ष मे भवनं गत्वासर्वाण्यस्त्राणि भारत। वायोरग्नेर्वसुभ्योऽपि वरुणात्समरुद्गणात् ।। | 3-169-30a 3-169-30b |
साध्यं पैतामहं चैव गन्धर्वोरगरक्षसाम्। वैष्णवानि च सर्वाणि नैर्ऋतानि तथैव च ।। | 3-169-31a 3-169-31b |
मद्गतानि च जानीहि सर्वास्त्राणि कुरूद्वह। एवमुक्त्वा तु मां शक्रस्तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-169-32a 3-169-32b |
अथापश्यं हरियुजं रथमैन्द्रमुपस्थितम्। दिव्यं मायामयं पुण्यं यत्तं मातलिना नृप ।। | 3-169-33a 3-169-33b |
लोकपालेषु यातेषु मामुवाचाथ मातलिः। द्रष्टुमिच्छति शक्रस्त्वां देवराजो महाद्युते ।। | 3-169-34a 3-169-34b |
संसिद्धस्त्वं महाबाहो कुरु कार्यमनुत्तमम्। पश्य पुण्यकृतां लोकान्सशरीरो दिवं व्रज ।। | 3-169-35a 3-169-35b |
देवराजः सहस्राक्षस्त्वां दिदृक्षति भारत। इत्युक्तोऽहं मातलिना गिरिमामन्त्र्य शैशिरम् ।। | 3-169-36a 3-169-36b |
प्रदक्षिणमुपावृत्य समारोहं रथोत्तमम्। चोदयामास स हयान्मनोमारुतरंहसः ।। | 3-169-37a 3-169-37b |
[मातलिर्हयतत्त्वज्ञो यथावद्भूरिदक्षिणः। अवैक्षत च मे वक्रृंस्तितस्याथ ससारथिः। तथा भ्रान्ते रथे राजन्विस्मितश्चेदमब्रवीत् ।। | 3-169-38a 3-169-38b 3-169-38c |
अत्यद्भुतमिदं त्वद्यविचित्रं प्रतिभाति मे। यदास्थितो रथं दिव्यं पदान्न चलितः पदम् ।।] | 3-169-39a 3-169-39b |
देवराजोऽपिहि मया नित्यमत्रोपलक्षितः। विचलन्प्रथमोत्पाते हयानां भरतर्षभ ।। | 3-169-40a 3-169-40b |
त्वं पुनः स्थित एवात्ररथे भ्रान्ते कुरूद्वह। अतिशक्रमिदं सर्वं तवेति प्रतिभाति मे ।। | 3-169-41a 3-169-41b |
इत्युक्त्वाऽऽकाशमाविश्य मातलिर्विबुधालयान्। दर्शयामास मे राजन्विमानानि च भारत ।। | 3-169-42a 3-169-42b |
[स रथो हरिभिर्युक्तो ह्यूर्ध्वमाचक्रमे ततः। ऋषयो देवताश्चैव पूजयन्ति नरोत्तम ।। | 3-169-43a 3-169-43b |
ततः कामगमाँल्लोकानपश्यं वै सुरर्षिणाम्। गन्धर्वाप्सरसां चैव प्रभावममितौजसाम् ।।] | 3-169-44a 3-169-44b |
नन्दनादीनि देवानां वनान्युपवनानि च। दर्शयामास मे शीघ्रं मातलिः शक्रसारथिः ।। | 3-169-45a 3-169-45b |
ततः शक्रस्य भवनमपश्यभमरावतीम्। दिव्यैः कामफलैर्वृक्षै रत्नैश्च समलंकृताम् ।। | 3-169-46a 3-169-46b |
न तां भासयते सूर्यो न शीतोष्णे न च क्लमः। न बाधते तत्ररजस्तत्रास्ति न जरा नृप ।। | 3-169-47a 3-169-47b |
न तत्रशोको दैन्यं वा वैवर्ण्यं चोपलक्ष्यते। दिवौकसां महाराज न ग्लानिररिमर्दन। न क्रोधलोभौ तत्रास्तामशुबं वा विशांपते ।। | 3-169-48a 3-169-48b 3-169-48c |
नित्यं तुष्टाश् ते राजन्प्राणिनः सुरवेश्मनि। नित्यपुष्पफलास्तत्र पादपा हरितच्छदाः ।। | 3-169-49a 3-169-49b |
पुष्करिण्यश्च विविधाः पद्मसौगन्धिकायुताः। शीतस्तत्रववौ वायुः सुगन्धो वीजते शुभः ।। | 3-169-50a 3-169-50b |
सर्वरत्नविचित्रा च भूमिः पुष्पविभूषिता। मृगद्विजाश्च बहवो रुचिरा मधुरस्वराः। विमानगामिनश्चात्रदृश्यन्ते बहवोऽमराः ।। | 3-169-51a 3-169-51b 3-169-51c |
ततोऽपश्यं वसून्रुद्रान्साध्यांश्च समरुद्गणान्। आदित्यानश्विनौ चैव तान्सर्वान्प्रत्यपूजयम् ।। | 3-169-52a 3-169-52b |
ते मां वीर्येण यशसा तेजसा च बलेन च। अस्त्रैश्चाप्यन्वजानन्त संग्रामे विजयेन च ।। | 3-169-53a 3-169-53b |
प्रविश्य तां पुरीं दिव्यां देवगन्धर्वपूजिताम्। देवराजं सहस्राक्षमुपातिष्ठं कृताञ्जलिः ।। | 3-169-54a 3-169-54b |
ददावर्धासनं प्रीतः शक्रो मे ददतांवरः। बहुमानाच्च गात्राणि पस्पर्श मम वासवः ।। | 3-169-55a 3-169-55b |
तत्राहं देवगन्धर्वैः सहितो भूरिदक्षिणैः। अस्त्रार्तमवसं स्वर्गे शिक्षाणोऽस्त्राणि भारत ।। | 3-169-56a 3-169-56b |
विश्वावसोश्च वै पुत्रश्चित्रसेनोऽभवत्सखा। स च गान्धर्वमखिलं ग्राहयामास मां नृप ।। | 3-169-57a 3-169-57b |
तत्राहमवसं राजन्गृहीतास्त्रः सुपूजितः। सुखं शक्रस् भवने सर्वकामसमन्वितः ।। | 3-169-58a 3-169-58b |
शृण्वन्वै गीतशब्दं च तूर्यशब्दं च पुष्कलम्। पश्यंश्चाप्सरसः श्रेष्ठा नृत्यन्तीर्भरतर्षभ ।। | 3-169-59a 3-169-59b |
तत्सर्वमनवज्ञाय तथ्यं विज्ञाय भारत। अत्यर्थं प्रतिगृह्याहमस्त्रेष्वेव व्यवस्थितः ।। | 3-169-60a 3-169-60b |
ततोऽतुष्यत्सहस्राक्षस्तेन कामेन मे विभुः। एवं मे वसतो राजन्नेष कालोऽत्यगाद्दिवि ।। | 3-169-61a 3-169-61b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। |
3-169-11 देवयानैर्विमानैः। देवसद्मनिवासिनः स्त्रीबालादयः शचीजयन्तादय इत्यर्थः ।। 3-169-14 यथास्थानं प्राच्यामिन्द्रं प्रतीच्यां वरुणमित्यादि ।। 3-169-27 अस्त्रस्यैव प्रतिघातार्थमस्त्रं मोक्ष्ये नत्वन्यत्र मानुषे ।। 3-169-33 मायामयमिवात्यद्भुतम् ।। 3-169-39 पदात् रस्थानात् न चलितः। रथस्य भ्रमणेपि दृढासन इत्यर्थः ।। 3-169-44 सुरर्षिणमिति दैर्ध्याभाव आर्षः ।। 3-169-53 अन्वजानन्त वीर्यादिमान्भवेत्याशीर्वादान्ददुरित्यर्थः ।। 3-169-60 अनवज्ञाय आदृत्य। तथ्यं यथावत्। अत्यथै पुरुषार्थ इति विज्ञाय ।। 3-169-61 तेन कामेन अस्त्रेच्छया नतु भोगेच्छया ।।
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