महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-250
← आरण्यकपर्व-249 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-250 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-251 → |
दुर्योधनेन कर्णंप्रतिस्वबन्धनविषये चित्रसेनार्जुनसंवादप्रकारकथनपूर्वकं युधिष्ठिरात्स्वस्य यन्धमोचनकथनम् ।। 1 ।। तथा प्रायोपवेशने निजाध्वसायकथनपूर्वकं दुःशासनंप्रति राज्यपालनविधानम् ।। 2 ।। कर्णेन दुर्योधनंप्रति प्रायोपवेशनान्निवर्तनाय सान्त्वोक्तिः ।। 3 ।।
दुर्योधन उवाच। | 3-250-1x |
चित्रसेनं समागम्य प्रहसन्नर्जुनस्तदा। इदं वचनमक्लीवमब्रवीत्परवीरहा ।। | 3-250-1a 3-250-1b |
भ्रातृनर्हसि मे वीर मोक्तुं गन्धर्वसत्तम। अनर्हधर्षणा हीमे जीवमानेषु पाण्डुषु ।। | 3-250-2a 3-250-2b |
एवमुक्तस्तु गन्धर्वः पाण्डवेन महात्मना। उवाच यत्कर्ण वयं मन्त्रयन्तो विनिर्गताः ।। | 3-250-3a 3-250-3b |
`स्थितोराज्येच्युतान्स्थानाच्छ्रियाहीनांश्रियावृतः' द्रष्टास्मि निःसुखान्वीरान्सदारान्पाण्डवानिति ।। | 3-250-4a 3-250-4b |
तस्मिन्नुच्चार्यमाणे तु गन्धर्वेण वचस्तथा। भूमेर्विवरमन्वैच्छं प्रवेष्टुं व्रीडयाऽन्वितः ।। | 3-250-5a 3-250-5b |
युधिष्ठिरमथागम् गन्धर्वाः सह पाण्डवैः। अस्मद्दुर्मन्त्रितं तस्मै बद्धांश्चास्मान्न्यवेदयन् ।। | 3-250-6a 3-250-6b |
स्त्रीसमक्षमहं दीनो बद्धः शत्रुवशं गतः। युधिष्ठिरस्योपहृतः किंनु दुःखमतः परम् ।। | 3-250-7a 3-250-7b |
ये मे निराकृता नित्यं रिपुर्येषामहं सदा। तैर्मोक्षितोऽहं दुर्बुद्धिर्दत्तं तैरेव जीवितम् ।। | 3-250-8a 3-250-8b |
प्राप्तः स्यां यद्यहं वीर वधं तस्मिन्महारणे। श्रेयस्तद्भविता मह्यं नैवंभूतस्य जीवितम् ।। | 3-250-9a 3-250-9b |
भवेद्यशः पृथिव्यां मे ख्यातं गन्धर्वतो वधात्। प्राप्ताश्च पुण्यलोकाः स्युर्महेन्द्रसदनेऽक्षयाः ।। | 3-250-10a 3-250-10b |
यत्त्वद्य मे व्यवसितं तच्छृणुध्वं नरर्षभाः। इह प्रायमुपासिष्ये यूयं व्रजत वै गृहान्। भ्रातरश्चैव मे सर्वे यान्त्वद्य स्वपुरं प्रति ।। | 3-250-11a 3-250-11b 3-250-11c |
कर्णप्रभृतयश्चैव सुहृदो बान्धवाश्च ये। दुःशासनं पुरस्कृत्य प्रयान्त्वद्य पुरं प्रति ।। | 3-250-12a 3-250-12b |
न ह्यहं संप्रयास्यामि पुरं शत्रुनिराकृतः। शत्रुमानापहो भूत्वा सुहृदां मानकृत्तथा ।। | 3-250-13a 3-250-13b |
`कामं रणशिरस्यद्य शत्रुभिर्वै विमानितः'। स सुहृच्छोकदो जातः शत्रूणां हर्वर्धनः। वारणाह्वयमासाद्य किं वक्ष्यामि जनाधिपम् ।। | 3-250-14a 3-250-14b 3-250-14c |
भीष्मद्रोणौ कृपद्रौणी विदुरः संजयस्तथा। बाह्लीकः सौमदत्तिश्च ये चान्ये वृद्धसंमताः ।। | 3-250-15a 3-250-15b |
ब्राह्मणाः श्रेणिमुख्याश्च तथोदासीनवृत्तयः। किं मां वक्ष्यंति किं चापि प्रतिवक्ष्यामि तानहं ।। | 3-250-16a 3-250-16b |
रिपूणां शिरसि स्थित्वा तथा विक्रम्य चोरसि। आत्मदोषात्परिभ्रष्टः कथं वक्ष्यामि तानहम् ।। | 3-250-17a 3-250-17b |
दुर्विनीताः श्रियं प्राप्य विद्यामैश्वर्यमेव च। तिष्ठन्ति न चिरं भद्रे यथाऽहं मदगर्वितः ।। | 3-250-18a 3-250-18b |
अहो वत यथेदं मे कष्टं दुश्चरितं कृतम्। स्वयं दुर्बुद्धिना मोहाद्येन प्राप्तोस्मि संशयम् ।। | 3-250-19a 3-250-19b |
तस्मात्प्रायमुपासिष्ये न हिशक्ष्यामि जीवितुम्। चेतयानो हि को जीवेत्कृच्छ्राच्छत्रुभिरुद्धृतः ।। | 3-250-20a 3-250-20b |
शत्रुभिश्चावहसितो मानी पौरुषवर्जितः। पाण्डवैर्विक्रमाढ्यैशच् सावमानमवेक्षितः ।। | 3-250-21a 3-250-21b |
वैशंपायन उवाच। | 3-250-22x |
एवं चिन्तापरिगतो दुःशासनमथाब्रवीत्। दुःशासन निबोधेदं वचनं मम भारत ।। | 3-250-22a 3-250-22b |
प्रतीच्छ त्वं मया दत्तमभिषेकं नृपो भव। प्रशाधि पृथिवीं स्फीतांकर्णसौबलपालिताम् ।। | 3-250-23a 3-250-23b |
भ्रातॄन्पालय विस्रब्धं मरुतो वृत्रहा यथा। बान्धवाश्चोपजीवन्तु देवा इव शतक्रतुम् ।। | 3-250-24a 3-250-24b |
ब्राह्मणेषु सदा वृत्तिं कुर्वीथाश्चाप्रमादतः। बन्धूनां सुहृदां चैव भवेथास्त्वं गतिः सदा ।। | 3-250-25a 3-250-25b |
ज्ञातींश्चाप्यनुपश्येथा विष्णुर्देवगणान्यथा। गुरवः पालनीयास्ते गच्छ पालय मेदिनीम् ।। | 3-250-26a 3-250-26b |
नन्दयन्सुहृदः सर्वाञ्शात्रवांश्चावभर्त्सयन्। कण्ठे चैनं परिष्वज्यगम्यतामित्युवाच ह ।। | 3-250-27a 3-250-27b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दीनो दुशासनोऽब्रवीत्। अश्रुकण्ठः सुदुःखार्तः प्राञ्जलिः प्रणिपत्य च ।। | 3-250-28a 3-250-28b |
सगद्गदमिदं वाक्यं भ्रातरं ज्येष्ठमात्मनः। कप्रसीदेत्यपतद्भूमौ दूयमानेन चेतसा ।। | 3-250-29a 3-250-29b |
दुःखितः पादयोस्तस्य नेत्रजं जलमुत्सृजन्। उक्तवांश्च नरव्याघ्रो नैतदेवं भविष्यति ।। | 3-250-30a 3-250-30b |
विदीर्यत्सकला भूमिर्द्यौश्चापि शकलीभवेत्। रविरात्मप्रभां जह्यात्सोमः शीतांशुतां त्यजेत् ।। | 3-250-31a 3-250-31b |
वायुः शैघ्र्यमथो जह्याद्धिमवांश्च हिमं त्यजेत्। शुष्येत्तोयं समुद्रेषु वह्निरप्युष्णतां त्यजेत् ।। | 3-250-32a 3-250-32b |
न चाहं त्वदृते राजन्प्रशासेयं वसुंधराम्। पुनःपुनः प्रसीदेति वाक्यं चेदमुवाच ह ।। | 3-250-33a 3-250-33b |
`शत्रूणां शोककृद्राजन्सुहृदां शोकनाशनः' त्वमेव नःकुलेराजा भविष्यसि शतं समाः ।। | 3-250-34a 3-250-34b |
एवमुक्त्वा स राजानं सुश्वरं प्ररुरोद ह। पादौ संस्पृश्य मानार्हौ भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भारत ।। | 3-250-35a 3-250-35b |
तथा तौ दुःखितौ दृष्ट्वा दुःशासनसुयोधनौ। अभिगम्य व्यथाविष्टः कर्णस्तौ प्रत्यभाषत ।। | 3-250-36a 3-250-36b |
विषीदथः किं कौरव्यौ बालिश्यात्प्राकृताविव। न शोकः शोचमानस्य विनिवर्तेत कर्हिचित् ।। | 3-250-37a 3-250-37b |
यदा च शोचतः शोकोव्यसनं नापकर्षति। सामर्थ्यं किं ततः शोके शोचमानौ प्रपश्यथः ।। | 3-250-38a 3-250-38b |
धृतिं गृह्णीतं मा शत्रूञ्शोचन्तौ नन्दयिष्यथः। कर्तव्यं हि कृतं राजन्पाण्डवैस्तव मोक्षणम् ।। | 3-250-39a 3-250-39b |
नित्यमेव प्रियं कार्यं राज्ञो विपयवासिभिः। पाल्यमानास्त्वया ते हि निवसन्ति गतज्वराः ।। | 3-250-40a 3-250-40b |
नार्हस्येवंगते मन्युं कर्तुं प्राकृतवत्स्वयम्। विषण्णास्तव सोदर्यास्त्वयि प्रायं समास्थिते ।। | 3-250-41a 3-250-41b |
`तदलं दुःखितानेतान्कर्तुं सर्वान्नराधिप'। उत्तिष्ठ व्रज भद्रं ते समाश्वासय सोदरान् ।। | 3-250-42a 3-250-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 250 ।। |
3-250-9 एवंभूतस्य जीवितं न श्रेय इति संबन्धः ।। 3-250-16 श्रेणिमुख्याः शिल्पिसंघातमुख्याः प्रकृतय इत्यर्थः ।। 3-250-24 विस्रब्वं सविश्वासं यथा स्यात्तथा ।। 3-250-27 कर्णं चैनं परिष्वज्येति ध. पाठः ।। 3-250-32 हिमवांश्च परिप्लवेत् इति थ. पाठः। परिव्रजेत् इति झ. पाठः ।। 3-250-38 यदि शोकेन व्यसनं नश्येत्तर्हि स कर्तव्यः नतु तत्तथास्ति अतः शोको न कर्तव्य इत्यर्थः ।।
आरण्यकपर्व-249 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-251 |