महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-045
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शक्रेण स्वर्गमागतं लोमशंप्रति पार्थमहिमानुवर्णनपूर्वकं युधिष्ठिराय तद्वृत्तान्तकथनप्रार्थना ।। 1 ।।
`वैशंपायन उवाच। | 3-45-1x |
ततो देवाः सगन्धर्वाः समादायार्घ्यमुत्तमम्। शक्रस्य मतमाज्ञाय पार्थमानर्चुर्जसा ।। | 3-45-1a 3-45-1b |
पाद्यमाचमनीयं च प्रतिग्राह्य नृपात्मजम्। प्रवेशयामासुरथो पुरन्दरनिवेशनम् ।। | 3-45-2a 3-45-2b |
एवं संपूजितो जिष्णुरुवास भवने पितुः। उपशिक्षन्महास्त्राणि ससंहाराणि पाण्डवः ।। | 3-45-3a 3-45-3b |
स शक्रहस्ताद्दयितं वज्रमस्त्रं दुरुत्सहम्। अशनिं च महानादां मेघबृंहितलक्षणाम् ।। | 3-45-4a 3-45-4b |
गृहीतास्त्रस्तु कौन्तेयो भ्रातॄन्सस्मार पाण्डवः। पुरन्दरनियोगाच्च पञ्चाब्दमवसत्सुखम् ।। | 3-45-5a 3-45-5b |
ततः शक्रोऽब्रवीत्पार्थं कृतास्त्रं काल आगते। नृत्तं गीतं च कौन्तेय चित्रसेनादवाप्नुहि ।। | 3-45-6a 3-45-6b |
वादित्रं दैवविहितं नृलके यन्न विद्ते। मदाज्ञया च कौन्तेय श्रेयो वै ते भविष्ति ।। | 3-45-7a 3-45-7b |
सखायं प्रददौ चास्य चित्रसेनं पुरन्दरः। स तेन सह संगम्य रेमे पार्थो निरामयः ।।' | 3-45-8a 3-45-8b |
कदाचिदटमानस्तु महर्षिरथ लोमशः। जगाम शक्रभवनं पुरंदरदिदृक्षया ।। | 3-45-9a 3-45-9b |
स समेत्य नमस्कृत्य देवराजं महामुनिः। ददर्शार्धासनगतं पाण्डवं वासवस्य हि ।। | 3-45-10a 3-45-10b |
ततः शक्राभ्यनुज्ञात आसने विष्टरोत्तरे। निषसाद द्विजश्रेष्ठः पूज्यमानो महर्षिभिः ।। | 3-45-11a 3-45-11b |
तस्य दृष्ट्वाऽभवद्बुद्धिः पार्थमिन्द्रासने स्थितम्। कथं नु क्षत्रियः पार्थः शक्रासनमवाप्तवान् ।। | 3-45-12a 3-45-12b |
किं त्वस्य सुकृतं कर्म के लोका वै विनिर्जिताः। स एवमनुसंप्राप्तः स्थानं देवनमस्कृतम् ।। | 3-45-13a 3-45-13b |
तस्य विज्ञाय संकल्पं शक्रो वृत्रविमर्दनः। लोमशं प्रहसन्वाक्यमिदमाह शचीपतिः ।। | 3-45-14a 3-45-14b |
देवर्षे श्रूयतां यत्ते मनसैतद्विवक्षितम्। नायं केवलमर्त्योऽभूत्क्षत्रियत्वमुपागतः ।। | 3-45-15a 3-45-15b |
महर्षे मम पुत्रोऽयं कुन्त्यां जातो महाभुजः। अस्त्रहेतोरिह प्राप्तः कस्माच्चित्कारणान्तरात् ।। | 3-45-16a 3-45-16b |
अहो नैनं भवान्वेत्ति पुराणमृषिसत्तमम्। शृणु मे वदतो ब्रह्मन्योऽयं यच्चास्य कारणम् ।। | 3-45-17a 3-45-17b |
नरनारायणौ यौ तौ पुराणावृषिसत्तमौ। ताविमावभिजानीहि हृषीकेशधनंजयौ ।। | 3-45-18a 3-45-18b |
विख्यातौ त्रिषु लोकेषु नरनारायणावृषी। कार्यार्थमवतीर्णौ तौ पृथ्वीं पुण्यप्रतिश्रयाम् ।। | 3-45-19a 3-45-19b |
यन्न शक्यं शुरैर्द्रष्टुमृषिभिर्वा महात्मभिः। तदाश्रमपदं पुण्यं बदरीनाम विश्रुतम् ।। | 3-45-20a 3-45-20b |
स निवासोऽभवद्विप्र विष्णोर्जिष्णोस्तथैव च। यतः प्रववृते गङ्गा सिद्धचारणसेविता ।। | 3-45-21a 3-45-21b |
तौ मन्नियोगाद्ब्रह्मर्षे क्षितौ जातौ महाद्युती। भूमेर्भारावतरणं महावीर्यौ करिष्यतः ।। | 3-45-22a 3-45-22b |
उद्वृत्ता ह्यसुराः केचिन्निवातकवचा इति। विप्रियेषु स्थिताऽस्माकं वरदानेन मोहिताः ।। | 3-45-23a 3-45-23b |
तर्कयन्ते सुरान्हन्तुं बलदर्पसमन्विताः। देवान्न गणयन्त्येते तथा दत्तवरा हि ते ।। | 3-45-24a 3-45-24b |
पातालवासिनो रौद्रा दनोः पुत्रा महाबलाः। सर्वे देवनिकाया हि नालं योधयितुं हि तान् ।। | 3-45-25a 3-45-25b |
योसौ भूमिगतः श्रीमान्विष्णुर्मुधुनिषूदनः। कपिलो नाम देवोसौ भगवानजितो हरिः ।। | 3-45-26a 3-45-26b |
येन पूर्वंमहात्मानः खनमाना रसातलम्। दर्शनादेव निहताः सगरस्यात्मजा विभो ।। | 3-45-27a 3-45-27b |
तेन कार्यं महत्कार्यमस्माकं द्विजसत्तम। पाथेन च महायुद्धे समेताभ्यामसंशयम् ।। | 3-45-28a 3-45-28b |
सोऽसुरान्दर्शनादेव शक्तो हन्तुं सहानुगान्। निवातकवचान्सर्वान्नागानिव महाह्रदे ।। | 3-45-29a 3-45-29b |
किंतु नाल्पेन कार्येण प्रबोध्यो मधुसूदनः। तेजसः सुमहाराशिः प्रबुद्धः प्रदहेज्जगत् ।। | 3-45-30a 3-45-30b |
अयं तेषां समस्तानां शक्तः प्रतिसमासने। तान्निहत्यरणे शूरः पुनर्यास्यति मानुषान् ।। | 3-45-31a 3-45-31b |
भवानस्मन्नियोगेन यातु तावन्महीतलम्। काम्यके द्रक्ष्यसे वीरं निवसन्तं युधिष्ठिरम् ।। | 3-45-32a 3-45-32b |
सवाच्यो मम संदेशाद्धर्मात्मा सत्यसंगरः। नोत्कणअठा फल्गुने कार्या कृतास्त्रः शीघ्रमेष्यति ।। | 3-45-33a 3-45-33b |
नाशुद्बाहुवीर्येण नाकृतास्त्रेण वा रणे। भीष्मद्रोणादयो युद्धे शक्याः प्रतिसमासितुम् ।। | 3-45-34a 3-45-34b |
गृहीतास्त्रो गुडाकेशो महाबाहुर्महामनाः। नृत्तवादित्रगीतानां दिव्यानां पारमीयिवान् ।। | 3-45-35a 3-45-35b |
भवानपि विविक्तानि तीर्थानि मनुजेश्वर। भ्रातृभिः सहितः सर्वैर्द्रष्टुमर्हत्यरिंदम ।। | 3-45-36a 3-45-36b |
तीर्थेष्वाप्लुत्य पुण्येषु विपाप्मा विगतज्वरः। राज्यं भोक्ष्यसि धर्मेण सुखी विगतकल्मपः ।। | 3-45-37a 3-45-37b |
भवांश्चैनं द्विजश्रेष्ठ पर्यटन्तं महीतलम्। त्रातुमर्हति विप्राग्र्य तपोबलसमन्वितः ।। | 3-45-38a 3-45-38b |
गिरिदुर्गेषु च सदा देशेषु विषमेषु च। वसन्ति रासा रौद्रास्तेभ्योरक्षां विधास्यति ।। | 3-45-39a 3-45-39b |
एवमुक्ते महेन्द्रेण बीभत्सुरपि लोमशम्। उवाच प्रयतो वाक्यं रक्षेथाः पाण्डुनन्दनम् ।। | 3-45-40a 3-45-40b |
[यथा गुप्तस्त्वया राजा चरेत्तीर्थानि सत्तम। दानं दद्याद्यथा चैव तथा कुरु महामुने ।।] | 3-45-41a 3-45-41b |
वैशंपायन उवाच। | 3-44-42x |
तथेति संप्रतिज्ञाय लोमशः सुमहातपाः। कामय्कं वनमुद्दिश्य समुपायान्महीतलम् ।। | 3-45-42a 3-45-42b |
ददर्श तत्र कौन्तेयं धर्मराजमरिंदमम्। तापसैर्भ्रातृभिश्चैव सर्वतः परिवारितम् ।। | 3-45-43a 3-45-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ।। 45 ।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्3-45-25 देवनिकायाः देवसमूहाः। नालं न समर्थाः ।। 3-45-30 प्रबोध्यो विज्ञाप्यः ।। 3-45-31 तेषां निवातकवचानाम्। प्रतिसमासने संक्षेपणे ।। 3-45-35 गुडाकेशोऽर्जुनः ।। 3-45-42 संप्रतिज्ञायाङ्गीकृत्य ।।
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