महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-170
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अस्त्रविद्यासमाप्तौ सहस्राक्षेण गुरुदक्षिणात्वेन निवातकवचानां क्षपणं भिक्षितेनार्जुनेन तदर्थं प्रस्थानम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुन उवाच। | 3-170-1x |
कृतास्त्रमतिविश्वस्तमथ मां हरिवाहनः। रसंस्पृश्य मूर्ध्नि पाणिब्यामिदं वचनमब्रवीत् ।। | 3-170-1a 3-170-1b |
न त्वमद्य युधा जेतुं शक्यः सुरगणैरपि। किं पुनर्मानुषे लोके मानुषैरकृतात्मभिः ।। | 3-170-2a 3-170-2b |
अप्रमेयोऽप्रधृष्यश्च युद्धेष्वप्रतिमस्तथा। `अजेयस्त्वं हि सङ्ग्रामे सर्वैरपिसुरासुरैः' ।। | 3-170-3a 3-170-3b |
अथाब्रवीत्पुनर्देवः संप्रहृष्टतनूरुहः। अस्त्रयुद्धे समो वीर न ते कश्चिद्भविष्यति ।। | 3-170-4a 3-170-4b |
अप्रमत्तः सदा दक्षः सत्यवादी जितेन्द्रियः। ब्रह्मण्यश्चास्त्रविच्चासि शूरश्चासि कुरूद्वह ।। | 3-170-5a 3-170-5b |
अस्त्राणि समवाप्तानि त्वया दश च पञ्च च। पञ्चभिर्विधिभिः पार्थ विद्यते न त्वया समः ।। | 3-170-6a 3-170-6b |
प्रयोगमुपसंहारमावृत्तिं च धनञ्जय। प्रायश्चित्तं च वेत्थ त्वं प्रतीघातं च सर्वशः ।। | 3-170-7a 3-170-7b |
तव गुर्वर्थकालोऽयं समुत्पन्नः परंतप। प्रतिजानीष्व तं कर्तुं ततो वेत्स्याम्यहं परम् ।। | 3-170-8a 3-170-8b |
ततोऽहमब्रवं राजन्देवराजमिदं वचः। विषह्यं यन्मया कर्तुं कृतमेव निबोध तत् ।। | 3-170-9a 3-170-9b |
ततो मामब्रवीद्राजन्प्रहसन्बलवृत्रहा। नाविपह्यं तवाद्यास्ति त्रिषु लोकेषु किंचन ।। | 3-170-10a 3-170-10b |
निवातकवचा नाम दानवा मम शत्रवः। समुद्रकुक्षिमाश्रित्य दुर्गे प्रतिवसन्त्युत ।। | 3-170-11a 3-170-11b |
तिस्रः कोट्यः समाख्यातास्तुल्यरूपबलप्रभाः। तांस्तत्रजहि कौन्तेय गुर्वर्थस्ते भविष्यति ।। | 3-170-12a 3-170-12b |
ततो मातलिसंयुक्तं मयूरसमरोमभिः। हयैरुपेतं प्रादान्मे रथं दिव्यं महाप्रभम् ।। | 3-170-13a 3-170-13b |
बबन्ध चैव मे मूर्ध्नि किरीटमिदमुत्तमम्। स्वरूपसदृशं चैव प्रादादङ्गविभूषणम् ।। | 3-170-14a 3-170-14b |
अभेद्यं कवचं चेदं स्पर्सरूपवदुत्तमम्। अजरां ज्यामिमां चापि गाण्डीवे समयोजयत् ।। | 3-170-15a 3-170-15b |
ततः प्रायामहं तेन स्यन्दनेन विराजता। येनाजयद्देवपतिर्बलिं वैरोचनिं पुरा ।। | 3-170-16a 3-170-16b |
ततो देवाः सर्व एव तेन घोषेण बोधिताः। मन्वाना देवराजं मां समाजग्मुर्विशांपते ।। | 3-170-17a 3-170-17b |
दृष्ट्वा च मामपृच्छन्त किं करिष्यसि फल्गुन। तानब्रुवं यथाभूतमिदं कर्ताऽस्मि संयुगे ।। | 3-170-18a 3-170-18b |
निवातकवचानां तु प्रस्थितं मां तधैपिणम्। निबोधत महाभागा शिवं चाशास्त मेऽनघाः ।। | 3-170-19a 3-170-19b |
`ततो वाग्भिः प्रशस्ताभिस्त्रिदशाः पृथिवीपते'। तुष्टुवुर्मां प्रसन्नास्ते यथा देवं पुरंदरम् ।। | 3-170-20a 3-170-20b |
रथेनानेन मघवा जितवाञ्शम्बरं युधि। नमुचिं बलवृत्रौ च प्रह्लादनरकावपि ।। | 3-170-21a 3-170-21b |
बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदान्यपि। रथेनानेन दैत्यानां जितवान्मघवा युधि ।। | 3-170-22a 3-170-22b |
न्वमप्यनेन कौन्तेय निबातकवचान्रणे। विजेता युधि विक्रम्य पुरेव मघवा वशी ।। | 3-170-23a 3-170-23b |
अयंच शङ्खप्रवरो येन जेतासि दानवान्। अनेन विजिता लोका शक्रेणापि महात्मना ।। | 3-170-24a 3-170-24b |
प्रदीयमानं देवैस्तं देवदत्तं जलोद्भवम्। प्रत्यगृह्णां जयायैनं स्तूयमानस्तदाऽमरैः ।। | 3-170-25a 3-170-25b |
स शङ्खी कवची वाणी प्रगृहीतशरासनः। दानवालयमत्युग्रं प्रयातोस्मि युयुत्सया ।। | 3-170-26a 3-170-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 170 ।। |
3-170-6 पञ्चभिः प्रयोगादिभिः ।। 3-170-7 आवृत्तिः पुनःपुनः प्रयोगोपसंहारौ। प्रायश्चित्तं अस्त्राग्निना दग्धानामनागसां पुनरुज्जीवनम्। प्रतीघातं परास्त्रेणाभिभूतस्य स्वास्त्रस्योद्दीपनम् ।। 3-170-8 गुर्वर्यो दक्षिणा। वेत्स्यामि वेदयिष्यामि। परं कार्यमिति शेषः ।। 3-170-9 विषह्यं शक्यम् ।। 3-170-16 प्रायां प्रयाणं कृतवान् ।। 3-170-19 आशास्त आशाध्वम् ।।
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