महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-099
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वृत्रासुरनिपीडितशकादिभिर्ब्रह्मवचनाद्वज्रनिर्माणाय दधीचंप्रति तच्छरीरास्थिप्रार्थनम् ।। 1 ।। त्वष्ट्रा दधीचास्थिभिर्वज्रायुधनिर्माणम् ।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 3-99-1x |
भूय एवाहमिच्छामि महर्षेस्तस्य धीमतः। कर्मणां विस्तरं श्रोतुमगस्त्यस्य द्विजात्तम ।। | 3-99-1a 3-99-1b |
लोमश उवाच। | 3-99-2x |
शृणु राजन्कथां दिव्यामद्भुतामतिमानुषीम्। अगस्त्यस्य महाराज प्रभावममितौजसः ।। | 3-99-2a 3-99-2b |
आसन्कृतयुगे घोरा दानवा युद्धदुर्मदाः। कालकेया इतिख्याता गणाः परमदारुणाः ।। | 3-99-3a 3-99-3b |
ते तु वृत्रं समाश्रित्य नानाप्रहरणोद्यताः। समन्तात्पर्यधावन्त महेन्द्रप्रमुखान्सुरान् ।। | 3-99-4a 3-99-4b |
ततो वृत्रवधे यत्नमकुर्वंस्त्रिदशाः पुरा। पुरंदरं पुरस्कृत्य ब्रह्माणमुपतस्थिरे ।। | 3-99-5a 3-99-5b |
कृताञ्जलींस्तु तान्सर्वान्परमेष्ठीत्युवाच ह। विदितं मे सुराः सर्वं यद्वः कार्यं चिकीर्षितम् ।। | 3-99-6a 3-99-6b |
तमुपायं प्रवक्ष्यामि यथा वृत्रं वधिष्यथ। दधीच इतिविख्यातो महानृषिरुदारधीः ।। | 3-99-7a 3-99-7b |
तं गत्वा सहिताः सर्वेवरं वै संप्रयाचत। स वो दास्यति धर्मात्मा सुप्रीतेनान्तरात्मना ।। | 3-99-8a 3-99-8b |
स वाच्यः सहितैः सर्वैर्भवद्भिर्जयकाङ्क्षिभिः। स्वान्यस्थीनि प्रयच्छेति त्रैलोक्यस् हिताय वै ।। | 3-99-9a 3-99-9b |
स शरीरं समुत्सृज्य स्वान्यस्थीनि प्रदास्यति। तस्यास्थिभिर्महाघोरं वज्रं संस्क्रियतां दृढम् ।। | 3-99-10a 3-99-10b |
महच्छत्रुहणं घोरं ष़डश्चं भीमनिःस्वनम्। तेन वज्रेण वै वृत्रं वधिष्यति शतक्रतुः ।। | 3-99-11a 3-99-11b |
एतद्वः सर्वमाख्यातं तस्माच्छीघ्रं विधीयताम्। एवमुक्तास्ततो देवा अनुज्ञाप्य पितामहम् ।। | 3-99-12a 3-99-12b |
नारायणं पुरस्कृत्य दधीचस्याश्रमं ययुः। सरस्वत्याः परे पारे नानाद्रुमलतावृतम् ।। | 3-99-13a 3-99-13b |
षट्पदोद्गीतनिनदैर्विघुष्टं सामगैरिव। पुंस्कोकिलरवोन्मिश्रं जीवंजीवकनादितम् ।। | 3-99-14a 3-99-14b |
महिषैश्च वराहैश्च सृमरैश्चमरैरपि। तत्र तत्रानुचरितं शार्दूलभयवर्जितैः ।। | 3-99-15a 3-99-15b |
करेणुभिर्वारणैश्च प्रभिन्नकरटामुखैः। सरोवगाढैः क्रीडद्भिः समन्तादनुनादितम् ।। | 3-99-16a 3-99-16b |
सिंहव्याघ्रैर्महानादान्नदद्भिरनुनादितम्। अपरैश्चापि संलीनैर्गुहाकन्दरशायिभिः ।। | 3-99-17a 3-99-17b |
तेषु तेष्ववकाशेषु शोभितं सुमनोरमम्। त्रिविष्टपसमप्रख्यं दधीचाश्रममागमन् ।। | 3-99-18a 3-99-18b |
तत्रापश्यन्दधीचं ते दिवाकरसमद्युतिम्। जाज्वल्यमानं वपुषा यथा साक्षात्पितामहम् ।। | 3-99-19a 3-99-19b |
तस्य पादौ सुरा राजन्नभिवाद्य प्रणम्य च। अयाचन्त वरं सर्वे यथोक्तं परमेष्ठिना ।। | 3-99-20a 3-99-20b |
ततो दधीचः परमप्रतीतः सुरोत्तमांस्तानिदमभ्युवाच। करोमि यद्वो हितमद्य देवाः स्वं चापि देहंस्वयमुत्सृजामि ।। | 3-99-21a 3-99-21b 3-99-21c 3-99-21d |
स एवमुक्त्वा द्विपदांवरिष्ठः प्राणान्वशी स्वान्सहसोत्ससर्ज। ततः सुरास्ते जगृहुः परासो- रस्थीनि तस्याथ यथोपदेशम् ।। | 3-99-22a 3-99-22b 3-99-22c 3-99-22d |
प्रहृष्टरूपाश्च जयाय देवा- स्त्वष्टारमागम् तमर्थमूचुः। त्वष्टा तु तेषां वचनं निशम्य प्रहृष्टरूपः प्रयतः प्रयत्नात् ।। | 3-99-23a 3-99-23b 3-99-23c 3-99-23d |
चकार वज्रं भृशमुग्ररूपं कृत्वा च शक्रं स उवाच हृष्टः। अनेन वज्रप्रवरेण देव भस्मीकुरुष्वाद्य सुरारिमुग्रम् ।। | 3-99-24a 3-99-24b 3-99-24c 3-99-24d |
ततो हतारिः सगणः सुखं वै प्रशाधिकृत्स्नं त्रिदिवं दिविष्ठः। त्वष्ट्रा तथोक्तस्तु पुरंदरस्त- द्वज्रं प्रहृष्टः प्रयतो ह्यगृह्नात् ।। | 3-99-25a 3-99-25b 3-99-25c 3-99-25d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकोनशततमोऽध्यायः ।। 99 ।। |
3-99-3 कालेया इति विख्याता इति क. पाटः ।। 3-99-8 सवो दास्यति ईप्सितमिति शेषः .। 3-99-11 षडश्रं षट्रकोणम् ।। 3-99-16 करेणुभिर्हस्तिनीभिः प्रभिन्नं मदस्राविकरटामदोद्भेदस्थानं गण्डस्थलैकदेशस्तस्य मुखमुपरिभागो तेषा तैः ।। 3-99-18 त्रिविष्टपसमप्रख्य स्वर्गतुल्यप्रकाशम् ।। 3-99-22 परासोः गतप्राणस्य ।।
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