महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-218
← आरण्यकपर्व-217 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-218 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-219 → |
धर्मव्याधेन कौशिकंप्रति मातापितृशुश्रूषणचोदनपूर्वकं स्वस्य शूद्रयोनौ जनननिदानकथनम् ।। 1 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-218-1x |
गुरू निवेद्य विप्राय तौ मातापितरावुभौ। पुनरेव स धर्मात्मा व्याधो ब्राह्मणमब्रवीत् ।। | 3-218-1a 3-218-1b |
प्रवृत्तचक्षुर्जातोस्मि संपश्य तपसो बलम्। यदर्थमुक्तोसि तया गच्छ त्वं मिथिलामिति ।। | 3-218-2a 3-218-2b |
पतिशुश्रूषपरया दान्तया सत्यशीलया। मिथिलायां वसन्व्याधः स ते धर्मान्प्रवक्ष्यति ।। | 3-218-3a 3-218-3b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-218-4x |
पतिव्रतायाः सत्यायाः शीलाढ्याया यतव्रत। संस्मृत्य वाक्यं धर्मज्ञ गुणवानसि मे मतः ।। | 3-218-4a 3-218-4b |
व्याध उवाच। | 3-218-5x |
यत्तया त्वं द्विजश्रेष्ठ नियुक्तो मां प्रति प्रभो। दृष्टमेव तया सम्यगेकपत्न्या न संशयः ।। | 3-218-5a 3-218-5b |
त्वदनुग्रहबुद्ध्या तु विप्रैतद्दर्शितं मया। वाक्यं च शृणु मे तात यत्ते वक्ष्ये हितं द्विज ।। | 3-218-6a 3-218-6b |
त्वया न पूजिता माता पिता च द्विजसत्तम। अनिसृष्टोसि निष्क्रान्तो गृहात्ताभ्यामनिनदित ।। | 3-218-7a 3-218-7b |
वेदोच्चारणकार्यार्थमयुक्तं तत्त्वया कृतम्। तव शोकेन वृद्धौ तावन्धीभूतौ तपस्विनौ ।। | 3-218-8a 3-218-8b |
तौ प्रसादयितुं गच्छ मा त्वां धर्मोऽत्यगादयम्। तपस्वी त्वं महात्मा च धर्मे च निरतः सदा ।। | 3-218-9a 3-218-9b |
सर्वमेतदपार्थं ते क्षिप्रं तौ संप्रसादय। `तौ प्रसाद्य द्विजश्रेष्ठ यच्छ्रेयस्तदवाप्स्यसि' ।। | 3-218-10a 3-218-10b |
श्रद्दधस्व मम ब्रह्मन्नान्यथा कर्तुमर्हसि। यम्यतामद्यविप्रर्षे श्रेयस्ते कथयाम्यहम् ।। | 3-218-11a 3-218-11b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-218-12x |
यदेतदुक्तं भवता सर्वं सत्यमसंशयम्। प्रीतोस्मि तव भद्रं ते धर्माचारगुणान्वित ।। | 3-218-12a 3-218-12b |
व्याध उवाच। | 3-218-13x |
दैवतप्रतिमो हि त्वं यस्त्वं धर्ममनुव्रतः। पुराणं शाश्वतं दिव्यं दुष्प्रापमकृतात्मभिः ।। | 3-218-13a 3-218-13b |
मातापित्रोः सकाशं हि गत्वात्वं द्विजसत्तम। अतन्द्रितः कुरु क्षिप्रंमातापित्रोर्हि पूजनम्। अतः परमहं धर्मं नान्यं पश्यामि कंचन ।। | 3-218-14a 3-218-14b 3-218-14c |
ब्राह्मण उवाच। | 3-218-15x |
इहाहमागतो दिष्ट्या दिष्ट्या मे संगतं त्वया। ईदृशा दुर्लभा लोके नरा धर्मप्रदर्शकाः ।। | 3-218-15a 3-218-15b |
एकोनरसहस्रेषु धर्मवानविद्यते न वा। प्रीतोस्मि तवसत्येन भद्रं ते पुरुषर्षभ ।। | 3-218-16a 3-218-16b |
पतमानोऽद्यनरके भवताऽस्मि समुद्धृतः। भवितव्यमथैवं च यद्दृष्टोसि मयाऽनघ ।। | 3-218-17a 3-218-17b |
राजा ययातिर्दौहित्रैः पतितस्तारितो यथा। सद्भिः पुरुषशार्दूल तथाऽहं भवता त्विह ।। | 3-218-18a 3-218-18b |
मातापितृभ्यां शुश्रूषां करिष्ये वचनात्तव। नाकृतात्मा वेदयति धर्माधर्मविनिश्चयम् ।। | 3-218-19a 3-218-19b |
दुर्ज्ञेयः शाश्वतो धर्मः शूद्रयोनौ हि वर्तता। न त्वां शूद्रमहं मन्ये भवितव्यं हि कारणम् ।। | 3-218-20a 3-218-20b |
येन कर्मविशेषेण प्राप्तेयं शूद्रता त्वया। एतामिच्छामि विज्ञातुं तत्त्वेन तव शूद्रताम्। कामयानस् मे शंस सर्वं त्वं प्रयतात्मवान् ।। | 3-218-21a 3-218-21b 3-218-21c |
व्याघ उवाच। | 3-218-22x |
अनतिक्रमणीया वै ब्राह्मणा मे द्विजोत्तम। शृणु सर्वमिदं वृत्तं पूर्वदेहे ममानघ ।। | 3-218-22a 3-218-22b |
अहं हि ब्राह्मणः पूर्वमासं द्विजवरात्मजः। वेदाध्यायी सुकुशलो वेदाङ्गानां च पारगः। आत्मदोषकृतैर्ब्रह्मन्नवस्थामाप्तवानिमाम् ।। | 3-218-23a 3-218-23b 3-218-23c |
कश्चिद्राजा मम सखा धनुर्वेदपरायणः। संसर्गाद्धनुषि श्रेष्ठस्ततोऽहमभवं द्विज ।। | 3-218-24a 3-218-24b |
एतस्मिन्नेव काले तु मृगयां निर्गतो नृपः। सहितो योधमुख्यैश् मन्त्रिभिश्च सुसंवृतः। ततोऽभ्यहन्मृगांस्तत्र सुबहूनाश्रमं प्रति ।। | 3-218-25a 3-218-25b 3-218-25c |
अथ क्षिप्तः शरो घोरो मयापि द्विजसत्तम। ताडितश्च ऋषिस्तन शरेणानतपर्वणा ।। | 3-218-26a 3-218-26b |
भूमौ निपतितो ब्रह्मन्नुवाच प्रतिनादयन्। नापराध्याम्यहं किंचित्केन पापमिदं कृतम् ।। | 3-218-27a 3-218-27b |
मन्वानस्तं मृगं चाहं संप्राप्तः सहसा मुनिम्। अपश्यं तमृषिं विद्धं शरेणानतपर्वणा। तमुग्रतपसं विप्रं निष्टनन्तं महीतले ।। | 3-218-28a 3-218-28b 3-218-28c |
अकार्यकरणाच्चापि भृशं मे व्यथितं मनः। अजानता कृतमिदं मयेत्यहमथाब्रुवम् ।। | 3-218-29a 3-218-29b |
क्षन्तुमर्हसि मे सर्वमिति चोक्तो मया मुनिः ।। | 3-218-30a |
ततः प्रत्यब्रवीद्वाक्यमृषिर्मां क्रोधमूर्च्छितः। व्याधस्त्वं भविता क्रूर शूद्रयोनाविति द्विज ।। | 3-218-31a 3-218-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 218 ।। |
3-218-2 प्रवृत्तचक्षुर्दिव्यदृष्टिः। तपसः पित्रोः शुश्रूषात्मकस्य ।। 3-218-28 निष्टनन्तं शब्दं कुर्वन्तम् ।।
आरण्यकपर्व-217 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-219 |