महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-004
← अनुशासनपर्व-003 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-004 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-005 → |
मतङ्गेन ब्राह्मण्यप्राप्तये वर्षशतं तपश्चरणम्।। 1 ।। तम्प्रतीन्द्रेण प्राणिनां कथंचिन्मानुषत्वलाभेपि नानानीचयोनिषु परिभ्रमणपूर्वकं क्रमेण त्रैवर्णिकत्वमात्रप्राप्तिकथनेन ब्राह्मण्यस्य दुर्लभत्वोक्तिः।। 2 ।।
भीष्म उवाच। | 13-4-1x |
एवमुक्तो मतङ्गस्तु संशितात्मा यतव्रतः। अतिष्ठदेकपादेन वर्षाणां शतमच्युतः।। | 13-4-1a 13-4-1b |
तमुवाच ततः शक्रः पुनरेव महायशाः। ब्राह्मण्यं दुर्लभं तात प्रार्थयानो न लप्स्यसे।। | 13-4-2a 13-4-2b |
मतङ्ग परमं स्थानं प्रार्थयन्विनशिष्यसि। मा कृथाः साहसं पुत्र नैष धर्मपथस्तव।। | 13-4-3a 13-4-3b |
`विमार्गतो मार्गमाणः सर्वथा नभविष्यसि'। न हि शक्यं त्वया प्राप्तुं ब्राह्मण्यमिह दुर्मते। अप्राप्यं प्रार्थयानो हि नचिराद्विनशिष्यसि।। | 13-4-4a 13-4-4b 13-4-4c |
मतङ्ग परमं स्थानं वार्यमाणोऽसकृन्मया। चिकीर्षस्येव तपसा सर्वथा नभविष्यसि।। | 13-4-5a 13-4-5b |
तिर्यग्योनिगतः सर्वो मानुष्यं यदि गच्छति। स जायते पुल्कसो वा चण्डालो वाऽप्यसंशयः।। | 13-4-6a 13-4-6b |
पुल्कसः पापयोनिर्वा यः कश्चिदिह लक्ष्यते। स तस्यामेव सुचिरं मतङ्ग परिवर्तते।। | 13-4-7a 13-4-7b |
ततो दशशते काले लभते शूद्रतामपि। शूद्रयोनावपि ततो बहुशः परिवर्तते।। | 13-4-8a 13-4-8b |
ततस्त्रिंशद्गणे काले लभते वैश्यतामपि। वैश्यतायां चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते। ततः षष्टिगुणे काले राजन्यो नाम जायते।। | 13-4-9a 13-4-9b 13-4-9c |
ततः षष्टिगुणे काले लभते ब्रह्मबन्धुताम्। ब्रह्मबन्धुश्चिरं कालं ततस्तु परिवर्तते।। | 13-4-10a 13-4-10b |
ततस्तु द्विशते काले लभते काण्डपृष्ठताम्। काण्डपृष्ठश्चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।। | 13-4-11a 13-4-11b |
ततस्तु त्रिशते काले लभते जपतामपि। तं च प्राप्य चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।। | 13-4-12a 13-4-12b |
ततश्चतुःशते काले श्रोत्रियो नाम जायते। श्रोत्रियत्वे चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते।। | 13-4-13a 13-4-13b |
तदेवं शोकहर्षौ तु कामद्वेषौ च पुत्रक। अतिमानातिवादौ च प्रविशेते द्विजाधमम्।। | 13-4-14a 13-4-14b |
तांश्चेज्जयति शत्रून्स तदा प्राप्नोति सद्गतिम्। अथ ते वै जयन्त्येनं तालं पक्वमिवापतेत्।। | 13-4-15a 13-4-15b |
मतङ्ग सम्प्रधार्यैवं यदहं त्वामचूचुदम्। वृणीष्व काममन्यं त्वं ब्राह्मण्यं हि सुदुर्लभम्।। | 13-4-16a 13-4-16b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः।। 4 ।।। |
13-4-11 काण्डपृष्ठतां शस्त्रजीवित्वम्।। 13-4-12 जपतां गायत्रीमात्रसेविनां कुले जन्मेति शेषः।। 13-4-13 श्रोत्रियः अधीतवेदः।। 13-4-14 तत् तदा श्रोत्रियत्वलाभेऽपि।। 13-4-15 ते शोकादयः। एनं श्रोत्रियम्।।
अनुशासनपर्व-003 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-005 |