महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-181
← अनुशासनपर्व-180 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-181 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-182 → |
कीटेन व्यासचोदनया राज्यपालनपूर्वकं जन्मान्तरे ब्राह्मण्यलाभेन तपश्चर्यादिना ब्रह्मसालोक्याधिगमः।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-181-1x |
क्षत्रधर्ममनुप्राप्तः स्मरन्नेव च वीर्यवान्। त्यक्त्वा हि कीटतां राजंश्चचार विपुलं तपः।। | 13-181-1a 13-181-1b |
तस्य धर्मार्थविदुषो दृष्ट्वा तद्विपुलं तपः। आजगाम द्विजश्रेष्ठः कृष्णद्वैपायनस्तदा।। | 13-181-2a 13-181-2b |
व्यास उवाच। | 13-181-3x |
क्षात्रादेव व्रतात्कीट भूतानां परिपालय। क्षात्रं देवव्रतं ध्यासंस्ततो विप्रत्वमेष्यसि।। | 13-181-3a 13-181-3b |
पाहि सर्वाः प्रजाः सम्यक् शुभाशुभविदात्मवान्। शुभैः संविभजन्कामैरशुभानां च भावनैः।। | 13-181-4a 13-181-4b |
आत्मवान्भव सुप्रीतः स्वधर्माचरणे रतः। क्षात्रीं तनुं समुत्सृज्य ततो विप्रत्वमेष्यसि।। | 13-181-5a 13-181-5b |
भीष्म उवाच। | 13-181-6x |
सोऽप्यरण्यादभिप्रेत्य पुनरेव युधिष्ठिर। महर्षेर्वचनं श्रुत्वा प्रजा धर्मेण पालयन्।। | 13-181-6a 13-181-6b |
अचिरेणैव कालेन कीटः पार्थिवसत्तम। प्रजापालनधर्मेणि प्रेत्य विप्रत्वमागतः।। | 13-181-7a 13-181-7b |
ततस्तं ब्राह्मणं द्रष्टुं पुनरेव महायशाः। आजगाम महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनस्तदा।। | 13-181-8a 13-181-8b |
व्यास उवाच। | 13-181-9x |
भोभो ब्रह्मर्षभ श्रीमन्मा व्यथिष्ठाः कथञ्चन। शुभकृच्छुभयोनीषु पापकृत्पापयोनिषु।। | 13-181-9a 13-181-9b |
उपपद्यति धर्मज्ञ यथाधर्मं यथाव्रतम्। तस्मान्मृत्युभयात्कीट मा व्यथिष्ठाः कथञ्चन। धर्मलाभात्परं न स्यात्तस्माद्धर्मं चरोत्तमम्।। | 13-181-10a 13-181-10b 13-181-10c |
कीट उवाच। | 13-181-11x |
सुखात्सुखतरं प्राप्तो भगवंस्त्वत्कृते ह्यहम्। धर्ममूलं शुभं प्राप्य पाप्मा नष्ट इहाद्य मे।। | 13-181-11a 13-181-11b |
भीष्म उवाच। | 13-181-12x |
भगवद्वचनात्कीटो ब्राह्मण्यं प्राप्य दुर्लभम्। अकरोत्पृथिवीं राजन्यज्ञयूपशताङ्किताम्। ततः सालोक्यमगमद्ब्रह्मणो ब्रह्मवित्तमः।। | 13-181-12a 13-181-12b 13-181-12c |
अथ पापहरं कीटः पार्त ब्रह्म सनातनम्। स्वकर्मफलनिर्वृत्तं व्यासस्य वचनात्तदा।। | 13-181-13a 13-181-13b |
कुरुक्षेत्रे युद्धहताः पुण्ये क्षत्रियपुङ्गवाः। सम्प्राप्तास्ते गतिं पुण्यां तन्मा त्वं शोच पुत्रक।। | 13-181-14a 13-181-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 181 ।। |
अनुशासनपर्व-180 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-182 |