महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-235
← अनुशासनपर्व-234 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-235 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-236 → |
परमेश्वरेण पार्वतींप्रति अन्नस्वर्णगोभूकन्याविद्यादानानां महिमप्रतिपादनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-235-1x |
भगवन्कानि देयानि धर्ममुद्दिश्य मानवैः। तान्यहं श्रोतुमिच्छामि तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-235-1a 13-235-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-235-2x |
अजस्रं धर्मकार्यं च तथा नैमित्तिकं प्रिये। अन्नं प्रतिश्रयो दीपः पानीयं तृणमिन्धनम्।। | 13-235-2a 13-235-2b |
स्नेहो गन्धश्च भैषज्यं तिलाश्च लवणं तथा। एवमादि तथाऽन्यश्च दानमाजस्रमुच्यते।। | 13-235-3a 13-235-3b |
अजस्रदानात्सततमाजस्रमिति निश्चितम्। सामान्यं सर्ववर्णानां दानं शृणु समाहिता।। | 13-235-4a 13-235-4b |
अन्नं प्राणो मनुष्याणामन्नदः प्राणदो भवेत्। तस्माकदन्नं विशेषेण दातुमिच्छति मानवः।। | 13-235-5a 13-235-5b |
ब्राह्मणायाभिरूपाय यो दद्यादन्नमीप्सितम्। निदधाति निधिं श्रेष्ठं सोऽनन्तं पारलौकिकम्।। | 13-235-6a 13-235-6b |
श्रान्तमध्वपरिश्रान्तमतिथिं गृहमागतम्। अर्चयीत प्रयत्नेन स हि यज्ञो वरप्रदः।। | 13-235-7a 13-235-7b |
कृत्वा तु पातकं कर्म यो दद्यादन्नमर्थिनाम्। ब्राह्मणानां विशेषेण सोपहन्ति स्वकं तमः।। | 13-235-8a 13-235-8b |
पितरस्तस्य नन्दन्ति सुवृष्ट्या कर्षका इव। पुत्रो यस्य तु पौत्रो वा श्रोत्रियं भोजयिष्यति।। | 13-235-9a 13-235-9b |
अपि चण्डालशूद्राणामन्नदानं न गर्हते। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन दद्यादन्नममत्सरः।। | 13-235-10a 13-235-10b |
कलत्रं पीडयित्वाऽपि पोषयेदतिथीन्सदा। जन्मापि मानुषे लोके तदर्थं हि विधीयते।। | 13-235-11a 13-235-11b |
अन्नदानाच्च लोकांस्तान्सम्प्रवक्ष्याम्यनिन्दिते। भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम्।। | 13-235-12a 13-235-12b |
अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च। वैडूर्यार्चिःप्रकाशपनि हेमरूप्यमयानि च।। | 13-235-13a 13-235-13b |
नानारूपाणि संस्थानां नानारत्नमयानि च। चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किङ्किणीजालवन्ति च।। | 13-235-14a 13-235-14b |
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च। यथेष्टभक्ष्यभोज्यानि शयनासनवन्ति च।। | 13-235-15a 13-235-15b |
सर्वकामफलाश्चात्र वृक्षा भवनसंस्थिताः। वाप्यो बह्व्यश्च कूपाश्च दीर्घिकाश्च सहस्रशः।। | 13-235-16a 13-235-16b |
अरुजानि विशोकानि नित्यानि विविधानि च। भवनानि विचित्राणि प्राणदानां त्रिविष्टपे।। | 13-235-17a 13-235-17b |
विवस्वतश्च सोमस्य ब्रह्मणश्च प्रजापतेः। विशन्ति लोकांस्ते नित्यं जगत्यन्नोदकप्रदाः।। | 13-235-18a 13-235-18b |
तत्र ते सुचिरं कालं विहृत्याप्सरसां गणैः। जायन्ते मानुषे लोके सर्वकल्याणसंयुताः।। | 13-235-19a 13-235-19b |
बलसंहननोपेता नीरोगाश्चिरजीविनः। कुलीना मतिमन्तश्च भवन्त्यन्नप्रदा नराः।। | 13-235-20a 13-235-20b |
तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं भूतिमिच्छता। सर्वकालं च सर्वस्य सर्वत्र च सदैव च।। | 13-235-21a 13-235-21b |
सुवर्णदानं परमं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्। तस्मात्ते वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः।। | 13-235-22a 13-235-22b |
अपि पापकृतं क्रूरं दत्तं रुक्मं प्रकाशयेत्।। | 13-235-23a |
सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रिभेभ्यः सुचेतसः। देवतास्ते तर्पयन्ति समस्ता इति वैदिकम्।। | 13-235-24a 13-235-24b |
अग्निर्हि देवताः सर्वाः सुवर्णं चाग्निरुच्यते। तस्मात्सुवर्णदानेन तृप्ताः स्युः सर्वदेवताः।। | 13-235-25a 13-235-25b |
अग्न्यभावे तु कुर्वन्ति वह्निस्थानेषु काञ्चनम्। तस्मात्सुवर्णदातारः सर्वान्कामानवाप्नुयुः।। | 13-235-26a 13-235-26b |
आदित्यस्य हुताशस्य लोकान्नानाविधाञ्शुभान्। काञ्चनं सम्प्रदायाशु प्रविशन्ति न संशयः।। | 13-235-27a 13-235-27b |
अलङ्कारं कृतं चापि केवलान्प्रविशिष्यते। सौवर्णैर्ब्राह्मणं काले तैरलङ्कृत्य भोजयेत्।। | 13-235-28a 13-235-28b |
य एतत्परमं दानं दत्त्वा सौवर्णमद्भुतम्। द्युतिं मेधां वपुः कीर्तिं पुनर्जाते लबेद्ध्रुवम्।। | 13-235-29a 13-235-29b |
तस्मात्स्वशक्त्या दातव्यं काञ्चनं भुवि मानवैः। न ह्येतस्मात्परं लोकेष्वन्यत्पापात्प्रमुच्यते।। | 13-235-30a 13-235-30b |
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि गवां दानमनिन्दिते। नहि गोभ्यः परं दानं विद्यते जगति प्रिये।। | 13-235-31a 13-235-31b |
लोकान्सिसृक्षुणा पूर्वं गावः सृष्टाः स्वयंभुवा। वृत्त्यर्थं सर्वभूतानां तस्मात्ता मातरः स्मृताः।। | 13-235-32a 13-235-32b |
लोकज्येष्ठा लोकवृत्त्या प्रवृत्ता मय्यायत्ताः सोमनिष्यन्दभूताः। सौम्याः पुण्याः प्राणदाः कामदाश्च तस्मात्पूज्याः पुण्यकामैर्मनुष्यैः।। | 13-235-33a 13-235-33b 13-235-33c 13-235-33d |
धेनुं दत्त्वा निभृतां सुशीलां कल्याणवत्सां च पयस्विनीं च। यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या- स्तावत्समाः स्वर्गफलानि भुङ्क्ते।। | 13-235-34a 13-235-34b 13-235-34c 13-235-34d |
प्रयच्छते यः कपिलां सचेलां सकांस्यदोहां कनकाग्र्यशृङ्गीम्। पुत्राश्च पौत्रांश्च कुलं च सर्व- मासप्तमं तारयते परत्र च।। | 13-235-35a 13-235-35b 13-235-35c 13-235-35d |
अन्तर्जाताः क्रीतका द्यूतलब्धाः। प्राणक्रीताः सोदकाश्चौजसा वा। कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणार्थागताश्च द्वारैरेतैस्ताः प्रलब्धाः प्रदद्यात्।। | 13-235-36a 13-235-36b 13-235-36c 13-235-36d |
कृसाय बहुपुत्राय श्रोत्रियायाहिताग्नये। प्रदाय नीरुजां धेनुं लोकान्प्राप्नोत्यनुत्तमान्।। | 13-235-37a 13-235-37b |
नृशंसस्य कृतघ्नस्य लुब्धस्यानृतवादिनः। हव्यकव्यव्यपेतस्य न दद्याद्गाः कथञ्चन।। | 13-235-38a 13-235-38b |
समानवत्सां यो दद्याद्धेर्नुं विप्रे पयस्विनीम्। सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नां सोमलोके महीयते।। | 13-235-39a 13-235-39b |
समानवत्सां यो दद्यात्कृष्णां धेनुं पयस्विनीम्। सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नां लोकान्प्राप्नोत्यपांपतेः।। | 13-235-40a 13-235-40b |
हिरण्यवर्णां पिङ्गाक्षीं सवत्सां कांस्यदोहनाम्। प्रदाय वस्त्रसम्पन्नां यान्ति कौकबेरसद्मनः।। | 13-235-41a 13-235-41b |
वायुरेणुसवर्मां च सवत्सां कांस्यदोहनाम्। प्रदाय वस्त्रसम्पन्नां वायुलोके महीयते।। | 13-235-42a 13-235-42b |
समानवत्सां यो धेनुं दत्त्वा गौरीं पयस्विनीम्। सुवृत्तां वस्त्रसंछन्नामग्निलोके महीयते।। | 13-235-43a 13-235-43b |
युवानं बलिनं श्यामं शतेन सह यूथपम्। गवेन्द्रं ब्राह्मणेन्द्राय भूरिशृङ्गमलंकृतम्।। | 13-235-44a 13-235-44b |
ऋषभं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियाणां महात्मनाम्। ऐश्वर्यमभिजायन्ते जायमानाः पुनःपुनः।। | 13-235-45a 13-235-45b |
गवां मूत्रपुरीषाणि नोद्विजेन कदाचन। न चासां मांसमश्नीयाद्गोषु भक्तः सदा भवेत्।। | 13-235-46a 13-235-46b |
ग्रासमुष्टिं परगवे दद्यात्संवत्सरं शुचि। अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत्सार्वकामिकम्।। | 13-235-47a 13-235-47b |
गवामुभयतः काले नित्यं स्वस्त्ययनं वदेत्। न चासां चिन्तयेत्पापमिति धर्मविदो विदुः।। | 13-235-48a 13-235-48b |
गावः पवित्रं परमं गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः। कथञ्चिन्नावमन्तव्या गावो लोकस्य मातरः।। | 13-235-49a 13-235-49b |
तस्मादेव गवां दानं विशिष्टमिति कथ्यते। गोषु पूजा च भक्तिश्च नरस्यायुष्यतां वहेत्।। | 13-235-50a 13-235-50b |
अतःपरं प्रवक्ष्यामि भूमिदानं महाफलम्। भूमिदानसमं दानं लोके नास्तीति निश्चयः।। | 13-235-51a 13-235-51b |
गृहयुक्क्षेत्रयुग्वाऽपि भूमिभागः प्रदीयते। सुखभोगं निराक्रोशं वास्तुपूर्वं प्रकल्प्य च।। | 13-235-52a 13-235-52b |
ग्रहीतारमलङ्कृत्य वस्त्रपुष्पानुलोपनैः। सभृत्यं सपरीवारं भोजयित्वा यथेष्टतः। यो दद्याद्दक्षिणां काले त्रिरद्भिर्गृह्यतामिति।। | 13-235-53a 13-235-53b 13-235-53c |
एवं भूम्यां प्रदत्तायां श्रद्धया वीतमत्सरैः। यावत्तिष्ठति सा भूमिस्तावद्दत्तफलं विदुः।। | 13-235-54a 13-235-54b |
भूमिदः स्वर्गमारुह्य रमते शाश्वतीः समाः। अचला ह्यक्षया भूमिः सर्वकामान्दुधुक्षति।। | 13-235-55a 13-235-55b |
यत्किञ्चित्कुरुते पापं पुरुषो वृत्तिकर्शितः। अपि गोकर्णमात्रेण भूमिदानन मुच्यते।। | 13-235-56a 13-235-56b |
सुवर्णं रजतं वस्त्रं मणिमुक्तावसूनि च। सर्वमेतन्महाभागे भूमिदाने प्रतिष्ठितम्।। | 13-235-57a 13-235-57b |
भर्तुर्निः श्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः। ब्रह्मलोकाय संसिद्धा नातिक्रामन्ति भूमिदम्।। | 13-235-58a 13-235-58b |
हलकृष्टां महीं दद्यात्सर्वबीजफलान्विताम्। सुकूपशरणां वाऽपि सा भवेत्सर्वकामदा।। | 13-235-59a 13-235-59b |
निष्पन्नसस्यां पृथिवीं यो ददाति द्विजन्मनाम्। विमुक्तः कलुषैः सर्वैः शकलोकं स गच्छति।। | 13-235-60a 13-235-60b |
यथा जनित्री क्षीरेणि स्वपुत्रमभिवर्धयेत्। एवं सर्वफलैर्भूमिर्दातारमभिवर्धयेत्।। | 13-235-61a 13-235-61b |
ब्राह्मणं वृत्तसम्पन्नमाहिताग्निं शुचिव्रतम्। ग्राहयित्वा निजां भूमिं न यान्ति यमसादनम्।। | 13-235-62a 13-235-62b |
यथा चन्द्रमसो वृद्धिरहन्यहनि दृश्यते। तथा भूमेः कृतं दानं सस्येसस्ये विवर्धते।। | 13-235-63a 13-235-63b |
यथा बीजानि रोहन्ति प्रकीर्णानि महीतले। तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदानगुणार्जिताः।। | 13-235-64a 13-235-64b |
पितरः पितृलोकस्था देवताश्च दिवि स्थिताः। सन्तर्पयन्ति भोगैस्तं यो ददाति वसुन्धराम्।। | 13-235-65a 13-235-65b |
दीर्घायुष्यं वराङ्गत्वं स्फीतां च श्रियमुत्तमाम्। परत्र लभते मर्त्यः सम्प्रदाय वसुन्धराम्।। | 13-235-66a 13-235-66b |
एतत्सर्वं मयोद्दिष्टं भूमिदानस्य यत्फलम्। श्रद्दधानैर्नरैर्नित्यं श्राव्यमेतत्सनातनम्।। | 13-235-67a 13-235-67b |
अतः परं प्रवक्ष्यामि कन्यादानं यथाविधि। कन्या देया महादेवि परेषामात्मनोपि वा।। | 13-235-68a 13-235-68b |
कन्यां शुद्धव्रताचारां कुलरूपसमन्विताम्। यस्मै दित्सति पात्राय तेनापि भृशकामिताम्।। | 13-235-69a 13-235-69b |
प्रथमं तत्समाकल्प्य बन्धुभिः कृतनिश्चयः। कारयित्वा गृहं पूर्वं दासीदासपरिच्छदैः।। | 13-235-70a 13-235-70b |
गृहोपकरणैश्चैव पशुधान्येन संयुताम्। तदर्थिने तदर्हाय कन्यां तां समलङ्कृताम्।। | 13-235-71a 13-235-71b |
सविवाहं यथान्यायं प्रचच्छेदग्निसाक्षिकम्। वृत्त्यातीं यथा कृत्वा सद्गृहे तौ निवेशयेत्।। | 13-235-72a 13-235-72b |
एवं कृत्वा वधूदानं तस्य दानस्य गौरवात्। प्रेत्यभावे महीयेत स्वर्गलोके यथासुखम्।। | 13-235-73a 13-235-73b |
पुनर्जातस्य सौभाग्यं कुलवृद्धिं तथाऽऽप्नुयात्।। | 13-235-74a |
विद्यादानं तथा देवि पात्रभूताय वै ददत्। प्रेत्यभावे लभेन्मर्त्यो मेधां वृद्धिं धृतिं स्मृतिम्।। | 13-235-75a 13-235-75b |
अनुरूपाय शिष्याय यश्च विद्यां प्रयच्छति। यथोक्तस्य प्रदानस्य फलमानन्त्यमश्नुते।। | 13-235-76a 13-235-76b |
दापनं त्वथ विद्यानां दरिद्रेभ्योऽर्थवेदनैः। स्वयं दत्तेन तुल्यं स्यादिति विद्धि शुभानने।। | 13-235-77a 13-235-77b |
एवं ते कथितान्येव महादानानि मानिनि। त्वत्प्रियार्थं मया देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-235-78a 13-235-78b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 235 ।। |
अनुशासनपर्व-234 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-236 |