महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-107
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युधिष्ठिरम्प्रति भीष्मेण गोदानफलविशेषविषयकेन्द्रप्रश्नानुवादः ।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-107-1x |
उक्तं ते गोप्रदानं वै नाचिकेतमृषिं प्रति। माहात्म्यमपि चैवोक्तमुद्देशेन गवां प्रभो।। | 13-107-1a 13-107-1b |
नृगेण च महद्दुःखमनुभूतं महात्मना। एकापराधादज्ञानात्पितामह महामते।। | 13-107-2a 13-107-2b |
द्वारवत्यां यथा चासौ निविशन्त्यां समुद्धृतः। मोक्षहेतुरभूत्कृष्णस्तदप्यवधृतं मया।। | 13-107-3a 13-107-3b |
किं त्वस्ति मम संदेहो गवां लोकं प्रति प्रभो। तत्त्वतः श्रोतुमिच्छामि गोदा यत्र वसन्त्युत।। | 13-107-4a 13-107-4b |
भीष्म उवाच। | 13-107-5x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। यथाऽपृच्छत्पद्मयोनिमेतदेव शतक्रतुः।। | 13-107-5a 13-107-5b |
शक्र उवाच। | 13-107-6x |
स्वर्लोकवासिनां लक्ष्मीमभिभूय स्वयाऽर्चिषा। गोलोकवासिनः पश्ये वदतां संशयोऽत्र मे।। | 13-107-6a 13-107-6b |
कीदृशा भगवँल्लोका गवां तद्बूहि मेऽनघ। यानावसन्ति दातार एतदिच्छामि वेदितुम्।। | 13-107-7a 13-107-7b |
कीदृशाः किंफलाः किंस्वित्परमस्तत्र को गुणः। कथं च पुरुषास्तत्र गच्छन्ति विगतज्वराः।। | 13-107-8a 13-107-8b |
कियत्कालं प्रदानस्य दाता च फलमश्नुते। कथं बहुविधं दानं स्यादल्पमपि वा कथम्।। | 13-107-9a 13-107-9b |
बह्वीनां कीदृशं दानमल्पानां वाऽपि दीदृशम्। अदत्त्वा गोप्रदाः सन्ति केन वा तच्च शंस मे | 13-107-10a 13-107-10b |
कथं वा बहुदाता स्यादल्पदात्रा समः प्रभो। अल्पप्रदाता बहुदः कथं स्वित्स्यादिहेश्वर।। | 13-107-11a 13-107-11b |
कीदृशी दक्षिणा चैव गोप्रदाने विशिष्यते। एतत्तथ्येन भगवन्मम शंसितुमर्हसि।। | 13-107-12a 13-107-12b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्ताधिकशततमोऽध्यायः।। 107 ।। |
13-107-2 एकापराधादज्ञानान्नृगस्तां दुर्गतिं गतः। इति ट. ध. पाठः।।
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