महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-244
← अनुशासनपर्व-243 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-244 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-245 → |
महेश्वरेण पार्वतींप्रति जरामरणतारणस्य निर्वाणैकसाध्यत्वोक्त्या तस्य ज्ञानैकसाध्यत्वप्रतिपादनेनेन्द्रियनिग्रहादिना वैराग्यस्य तत्कारणत्वोक्तिः।। 1 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-244-1x |
अनुद्विग्नमतेर्जन्तोरस्मिन्संसारमण्डले। शोकव्याधिजरादुःखैर्निर्वाणं नोपपद्यते।। तस्मादुद्वेगजननं मनोऽवस्थानपं तथा। ज्ञानं ते सम्प्रवक्ष्यामि तन्मूलममृतं हि वै।। | 13-244-1a 13-244-1b 13-244-2b 13-244-2b |
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसेदिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।। | 13-244-3a 13-244-3b |
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते। अहो दुःखमिति ध्यायञ्शोकस्य पदमाव्रजेत्।। | 13-244-4a 13-244-4b |
द्रव्येषु समतीतेषु ये शुभास्तान्न चिन्तयेत्। ताननाद्रियमाणस्य शोकबन्धः प्रणश्यति।। | 13-244-5a 13-244-5b |
सम्प्रयोगादनिष्टस्य विप्रयोगात्प्रियस्य च। मानुषा मानसैर्दुःखैः संयुज्यन्तेऽल्पबुद्धयः।। | 13-244-6a 13-244-6b |
मृतं वा यदि वा नष्टं योऽतीतमनुशोचति। सन्तापेन च युज्येत तच्चास्य न निवर्तते।। | 13-244-7a 13-244-7b |
उत्पन्नमिह मानुष्ये गर्भप्रभृति मानवम्। विविधान्युपवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च।। | 13-244-8a 13-244-8b |
तयोरेकतरो मार्गो यद्येनमभिसंनमेत्। सुखं प्राप्य न संहृष्येन्न दुःखं प्राप्य संज्वरेत्।। | 13-244-9a 13-244-9b |
दोषदर्शी भवेत्तत्र यत्र स्नेहः प्रवर्तते। अनिष्टेनान्वितं पश्येद्यथा क्षिप्रं विरज्यते।। | 13-244-10a 13-244-10b |
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ। समेत्य च व्यपेयातां तद्वज्ज्ञातिसमागमः।। | 13-244-11a 13-244-11b |
अदर्शनादापतिताः पुनश्चादर्शनं गताः। स्नेहस्तत्र न कर्तव्यो विप्रयोगो हि तैर्ध्रुवम्।। | 13-244-12a 13-244-12b |
कुटुम्बपुत्रदारांश्च शरीरं धनसञ्चयम्। ऐश्वर्यं स्वस्तिता चेति न मुह्येत्तत्र पण्डितः।। | 13-244-13a 13-244-13b |
सुखमेकान्ततो नास्ति शक्रस्यापि त्रिविष्टपे। तत्रापि सुमहद्दुःखं न नित्यं लभते सुखम्।। | 13-244-14a 13-244-14b |
सुखस्यान्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्। क्षया निचयाः सर्वे पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।। | 13-244-15a 13-244-15b |
संयोगा *********** मरणान्तं च जीवितम्। उच्छ्रयांश्च निपाताश्च दृष्ट्या प्रत्यक्षतस्त्रयम्। अनित्यमसुखं चेति व्यवस्येत्सर्वमेव च।। | 13-244-16a 13-244-16b 13-244-16c |
अर्थानामार्जने दुःखमार्जितानां तु रक्षणे। नाशे दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थं दुःखभाजनम्।। | 13-244-17a 13-244-17b |
अर्थवन्तं नरं नित्यं पञ्चाभिघ्नन्ति शत्रवः। राजा चोरश्च दायादा भूतानि क्षय एव च।। | 13-244-18a 13-244-18b |
अर्थमेव ह्यनर्थस्य मूलमित्यवधारय। न ह्यनर्थाः प्रबाधन्ते नरमर्तविवर्जितम्।। | 13-244-19a 13-244-19b |
अर्थप्राप्तिर्महद्दुःखमाकिञ्चिन्यं परं सुखम्। उपद्रवेषु चार्थानां दुःखं हि नियतं भवेत्।। | 13-244-20a 13-244-20b |
धनलोभेन तृष्णाया न तृप्तिरुपलभ्यते। लब्धाश्रयो विवर्धेत समिद्ध इव पावकः।। | 13-244-21a 13-244-21b |
जित्वाऽपि पृथिवीं कृत्स्नां चतुःसागरमेखलाम्। सागराणां पुनः पारं जेतुमिच्छत्यसंशयम्।। | 13-244-22a 13-244-22b |
अलं परिग्रहेणेह दोषवान्हि परिग्रहः। कोशकारः क्रिमिर्देवि बध्यते हि परिग्रहात्।। | 13-244-23a 13-244-23b |
एकोऽपि पृथिवीं कृत्स्नामेकच्छत्रां प्रशास्ति च। एकस्मिन्नेव राष्ट्रे तु स चापि निवसेन्नृपः।। | 13-244-24a 13-244-24b |
तस्मिन्राष्ट्रेऽपि नगरमेकमेवाधितिष्ठति। नगरेऽपि गृहं चैकं भवेत्तस्य निवेशनम्।। | 13-244-25a 13-244-25b |
एक एव प्रतिष्ठः स्यादावासस्तद्गृहेऽपि च। आवासे शयनं चैकं निशि यत्र प्रलीयते।। | 13-244-26a 13-244-26b |
शयनस्यार्धमेवास्य स्त्रियाश्चार्धं विधीयते। तदनेन प्रसङ्गेन स्वल्पेनैव हि युज्यते।। | 13-244-27a 13-244-27b |
सर्वं ममेति सम्मूढो बलं पश्यति बालिशः। एवं सर्वोपयोगेषु स्वल्पमस्य प्रयोजनम्।। | 13-244-28a 13-244-28b |
तण्डुलप्रस्थमात्रेण यात्रा स्यात्सर्वदेहिनाम्। ततो भूयस्तरो योगो दुःखाय तपनाय च।। | 13-244-29a 13-244-29b |
नास्ति तृष्णासमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्। सर्वान्कामान्परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते।। | 13-244-30a 13-244-30b |
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः। योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।। | 13-244-31a 13-244-31b |
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कुष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।। | 13-244-32a 13-244-32b |
अलाभेनैव कामानां शोकं त्यजति पण्डितः। आयासविटपस्तीव्रः कामाग्निः कर्षणारणिः। इन्द्रियार्थैश्च सम्मोह्य दहत्यकुशलं जनम्।। | 13-244-33a 13-244-33b 13-244-33c |
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य पर्याप्तमिति पश्यन्न मुह्यति।। | 13-244-34a 13-244-34b |
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्।। | 13-244-35a 13-244-35b |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु नैव धीरो नियोजयेत्। मनःषष्ठानि संयम्य नित्यमात्मनि योजयेत।। | 13-244-36a 13-244-36b |
इन्द्रियाणां विसर्गेण दोषमृच्छत्यसंशयम्। संनियम्य नु तान्येव ततः सिद्धिमवाप्नुयात्।। | 13-244-37a 13-244-37b |
षण्णामात्मनि युक्तानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति। न च पापैर्न चानर्थैः संयुज्येत विचक्षणः।। | 13-244-38a 13-244-38b |
अप्रमत्तः सदा रक्षेदिन्द्रियाणि विचक्षणः। अरक्षितेषु तेष्वाशु नरो नरकमेति हि।। | 13-244-39a 13-244-39b |
हृदि काममयश्चित्रो मोहसञ्चयसम्भवः। अज्ञानरूढमूलस्तु विवित्सापरिषेचनः।। | 13-244-40a 13-244-40b |
रोषलोभमहास्कन्धः पुरा दुष्कृतसारवान्। आयासविटपस्तीव्रशोकपुष्पो भयाङ्कुरः।। | 13-244-41a 13-244-41b |
नानासङ्कल्पपत्राढ्यः प्रमादात्परिवर्धितः। महतीभिः पिपासाभिः समन्तात्परिवेष्टितः।। | 13-244-42a 13-244-42b |
संरोहत्यकृतप्रज्ञे पादपः कामसम्भवः। नैव रोहति तत्वज्ञे रूढो वा छिद्यते पुनः।। | 13-244-43a 13-244-43b |
कृच्छ्रोपायेष्वनित्येषु निःसारेषु फलेषु च। दुःखादिषु दुरन्तेषु कामयोगेषु का रतिः।। | 13-244-44a 13-244-44b |
इन्द्रियेषु च जीर्यत्सु च्छिद्यमाने तताऽऽयुषि। पुरस्ताच्च स्थिते मृत्यौ किं सुखं पश्यतासुखे।। | 13-244-45a 13-244-45b |
व्याधिभिः पीड्यमानस्य नित्यं शारीरमानसैः। नरस्याकृतकृत्यस्य किं सुखं मरणे सति।। | 13-244-46a 13-244-46b |
सञ्चिन्वानं तमेवार्थं कामानामवितृप्तकम्। व्याघ्रः पशुमिवारण्ये मृत्युरादाय गच्छति।। | 13-244-47a 13-244-47b |
जन्ममृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः। संसारे पच्यमानस्तु पापान्नोद्विजते जनः।। | 13-244-48a 13-244-48b |
उमोवाच। | 13-244-49x |
केनोपायेन मर्त्यानां निवर्त्येते जरान्तकौ। यद्यस्ति भगवन्मह्यमेतदाचक्ष्व माचिरम्।। | 13-244-49a 13-244-49b |
तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा। रसायनप्रयोगैर्वा केनात्येति जरान्तकौ।। | 13-244-50a 13-244-50b |
महेश्वर उवाच। | 13-244-51x |
नैतदस्ति महाभागे जरामृत्युनिवर्तनम्। सर्वलोकेषु जानीहि मोक्षादन्यत्र भामिनि।। | 13-244-51a 13-244-51b |
न धनेन न राज्येन नोग्रेण तपसाऽपि वा। मरणं नातितरते विना मुक्त्या शरीरिणः।। | 13-244-52a 13-244-52b |
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च। न तरन्ति जरामृत्यू निर्वाणाधिगमाद्विना।। | 13-244-53a 13-244-53b |
ऐस्वर्यं धनधान्यं च विद्यालाभस्तपस्तथा। रसायनप्रयोगाद्वै न तरन्ति जरान्तकौ।। | 13-244-54a 13-244-54b |
दानयज्ञतपःशीलरसायनविदोऽपि वा। स्वाध्यायनिरता वाऽपि न तरन्ति जरान्तकौ।। | 13-244-55a 13-244-55b |
देवदानवगन्धर्वकिन्नरोरगराक्षसान्। स्ववशे कुरुते कालो न कालस्यास्त्यगोचरः।। | 13-244-56a 13-244-56b |
न ह्यहानि निवर्तन्ते न मासा न पुनः क्षपाः। स्रेयं प्रपद्यते ध्यानमजस्रं ध्रुवमव्ययम्।। | 13-244-57a 13-244-57b |
स्रवन्ति न निवर्तन्ते स्रोतांसि सरितामिव। आयुरादाय मर्त्यानामहोरात्रेषु सन्ततम्।। | 13-244-58a 13-244-58b |
जीवितं सर्वभूतानामक्षयः क्षपयन्नसौ। आदित्यो ह्यस्तमभ्येति पुनः पुनरुदेति च।। | 13-244-59a 13-244-59b |
यस्यां रात्र्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं भवेत्। गाधोदके मत्स्य इव किन्नु तस्य कुमारता।। | 13-244-60a 13-244-60b |
मरणं हि शरीरस्य नियतं ध्रुवमेव च। तिष्ठन्नपि क्षणं सर्वः कालस्यैति वशं पुनः।। | 13-244-61a 13-244-61b |
न म्रियेरन्न जीर्येरन्यदि स्युः सर्वदेहिनः। न चानिष्टं प्रवर्तेत शोको वा प्राणिनं क्वचित्।। | 13-244-62a 13-244-62b |
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु कालो भूतेषु तिष्ठति। अप्रमत्तस्य कालस्य क्षयं प्राप्तो न मुच्यते।। | 13-244-63a 13-244-63b |
श्वःकार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्। कोपि तद्वेद यत्रासौ मृत्युना नाभिवीक्षितः।। | 13-244-64a 13-244-64b |
वर्षास्विदं करिष्यामि इदं ग्रीष्मवसन्तयोः। इति बालश्चिन्तयति अन्तरायं न बुध्यति।। | 13-244-65a 13-244-65b |
इदं मे स्यादिदं मे स्यादित्येवं मनसा नराः। अनवाप्तेषु कामेषु ह्रियन्ते मरणं प्रति।। | 13-244-66a 13-244-66b |
कालपाशेन बद्धानामहन्यहनि जीर्यताम्। का श्रद्धा प्राणिनां मार्गे विषमे भ्रमतां सदा।। | 13-244-67a 13-244-67b |
युवैव धर्मशीलः स्यादनिमित्तं हि जीवितम्। फलानामिव पक्वानां सदा हि पतनाद्भयम्।। | 13-244-68a 13-244-68b |
मर्त्यस्य किं धनैर्दारैः पुत्रैर्भोगैः प्रियैरपि। एकाह्ना सर्वमुत्सृज्य मृत्योस्तु वशमन्वियात्। | 13-244-69a 13-244-69b |
जायामानांश्च सम्प्रेक्ष्य म्रियमाणांस्तथैव च। न संवेगोस्ति चेत्पुंसः काष्ठलोसमो हि सः।। | 13-244-70a 13-244-70b |
विनाशिनो ह्यध्रुवजीवितस्य किं बन्धुभिर्मित्रपरिग्रहैश्च। विहाय यद्गच्छति सर्वमेवं क्षणेन गत्वा न निवर्तते च।। | 13-244-71a 13-244-71b 13-244-71c 13-244-71d |
एवं चिन्तयतो नित्यं सर्वार्थानामनित्यताम्। उद्वेगो जायते शीघ्रं निर्वाणस्य पुरस्सरः।। | 13-244-72a 13-244-72b |
तेनोद्वेगेन चाप्यस्य विमर्शो जायते पुनः। विमर्शो नाम वैराग्यं सर्वद्रव्येषु जायते।। | 13-244-73a 13-244-73b |
वैराग्येण परां शान्तिं लभन्ते मानवाः शुभे। मोक्षस्योपनिषद्दिव्यं वैराग्यमिति निश्चितम्।। | 13-244-74a 13-244-74b |
एतत्ते कथितं देवि वैराग्योत्पादनं वचः। एवं सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य मुच्यन्ते हि मुमुक्षवः।। | 13-244-75a 13-244-75b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 244 ।। |
13-244-18 दाराश्चोराश्चेति क.पाठः।।
अनुशासनपर्व-243 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-245 |