महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-164

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त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-164
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-165 →

युधिष्ठिरेणि भीष्मंप्रति दरिद्राणां यज्ञस्य बहुद्रव्यसाध्यत्वेन दुष्करतया तत्फलप्राप्त्यै तत्प्रतिनिधिकथनप्रार्थना।। 1 ।। भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति एकैकदिनवृद्ध्या मासावध्युपवासस्य यज्ञप्रतिनिधित्वकथनम्।। 2 ।।

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युधिष्ठिर उवाच। 13-164-1x
पितामहेन विधिवद्यज्ञाः प्रोक्ता महात्मना।
गुणाश्चैषां यथातथ्यं प्रेत्य चेह च सर्वशः।।
13-164-1a
13-164-1b
न तै शक्या दरिद्रेण यज्ञाः प्राप्तुं पितामह।
बहूपकरणा यज्ञा नानासम्भारविस्तराः।।
13-164-2a
13-164-2b
पार्थिवै राजपुत्रैर्वा शक्याः प्राप्तुं पितामह।
नार्थन्यूनैरवगुणैरेकात्मभिरसंहतैः।।
13-164-3a
13-164-3b
यो दरिद्रैरपि विधिः शक्यः प्राप्तुं सदा भवेत्।
अर्थन्यूनैरवगुणैरेकात्मभिरसंहतैः।
तुल्यो यज्ञफलैरेतैस्तन्मे ब्रूहि पितामह।।
13-164-4a
13-164-4b
13-164-4c
भीष्म उवाच। 13-164-5x
इदमङ्गिरसा प्रोक्तमुपवासफलात्मकम्।
विधिं यज्ञफलैस्तुल्यं तन्निबोध युधिष्ठिर।।
13-164-5a
13-164-5b
यस्तु कल्यं तथा सायं भुञ्जानो नान्तरा पिबेत्।
अहिंसानिरतो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम्।
षड्भिरेव स वर्षैस्तु सिध्यते नात्र संशयः।।
13-164-6a
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13-164-6c
तप्तकाञ्चनवर्णं च विमानं लभते नरः।
देवस्त्रीणामधीवासे नृत्तगीतनिनादिते।
प्राजापत्ये वसेत्पद्मं वर्षाणामग्निसन्निभे।।
13-164-7a
13-164-7b
13-164-7c
त्रीणि वर्षाणि यः प्राशेत्सततं त्वेकभोजनम्।
धर्मत्नीरतो नित्यमग्निष्टोमफलं लभेत्।
यज्ञं बहुसुवर्णं वा वासवप्रियमाचरेत्।।
13-164-8a
13-164-8b
13-164-8c
सत्यवान्दानशीलश्च ब्रह्मण्यश्चानसूयकः।
क्षान्तो दान्तो जितक्रोधः स गच्छति परां गतिम्।।
13-164-9a
13-164-9b
पाण्डुराभ्रपतीकाशे विमाने हंसलक्षणे।
द्वे समाप्ते ततः पद्मे सोप्सरोभिर्वसेत्सह।।
13-164-10a
13-164-10b
द्वितीये दिवसे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-11a
13-164-11b
अग्निकार्यपरो नित्यं नित्यं कल्यप्रबोधनः।
अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।।
13-164-12a
13-164-12b
हंससारसयुक्तं च विमानं लभते नरः।
इन्द्रलोके च वसते वरस्त्रीभिः समावृतः।।
13-164-13a
13-164-13b
तृतीये दिवसे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-14a
13-164-14b
अग्निकार्यपरो नित्यं नित्यं कल्यप्रबोधनः।
अतिरात्रस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।।
13-164-15a
13-164-15b
मयूरहंसयुक्तं च विमानं लभते नरः।
सप्तर्षीणां सदा लोके सोप्सरोभिर्वसेत्सह।
निवर्तनं च तत्रास्य त्रीणि पद्मानि वै विदुः।।
13-164-16a
13-164-16b
13-164-16c
दिवसे यश्चतुर्थे तु प्राश्नीयादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।
वाजपेयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नीत्यनुत्तमम्।
13-164-17a
13-164-17b
13-164-17c
इन्द्रिकन्याभिरूढं च विमान लभते नरः।
सागरस्य च पर्यन्ते वासवं लोकमावसेत्।
देवराजस्य च क्रीडां नित्यकालमवेक्षते।।
13-164-18a
13-164-18b
13-164-18c
दिवसे पञ्चमे यस्तु प्राश्नीयादैकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-19a
13-164-19b
अलुब्धः। सत्यवादी च ब्रह्मण्यश्चाविहिंसकः।
अनसूयुरपापस्थो द्वादशाहफलं लभेत्।।
13-164-20a
13-164-20b
जाम्बूनदमयं दिव्यं विमानं हंसलक्षणम्।
सूर्यमालासमाभासमारोहेत्पाण्डुरं गुहम्।।
13-164-21a
13-164-21b
आवर्तनानि चत्वारि तथा पद्मानि द्वादश।
शराग्निपरिमाणं च तत्रासौ वसते सुखम्।।
13-164-22a
13-164-22b
दिवसे यस्तु षष्ठे वै मुनिः प्राशेत भोजनम्।
सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-23a
13-164-23b
सदा त्रिषवणस्नायी ब्रह्मचार्यनसूयकः।
गवामयनयज्ञस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।।
13-164-24a
13-164-24b
अग्निज्वालासमाभासं हंसबर्हिणसेवितम्।
शातकुम्भसमायुक्तं साधयेद्यानमुत्तमम्।।
13-164-25a
13-164-25b
तथैवाप्सरसामङ्के प्रतिसुप्तः प्रबोध्यते।
नूपुराणां निनादेन मेखलानां च निःस्वनैः।।
13-164-26a
13-164-26b
कोटीसहस्रं वर्षाणां त्रीणि कोटिशतानि च।
पद्मान्यष्टादश तथा पताके द्वे तथैव च।।
13-164-27a
13-164-27b
अयुतानि च पञ्चशदृक्षचर्मशतस्य च।
लोम्नां प्रमाणेन समं ब्रह्मलोके महीयते।।
13-164-28a
13-164-28b
दिवसे सप्तमे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-29a
13-164-29b
सरस्वतीं गोपयानो ब्रह्मचर्यं समाचरन्।
सुमनोवर्णकं चैव मधु मांसं च वर्जयन्।।
13-164-30a
13-164-30b
पुरुषो मरुतां लोकमिन्द्रलोकं च गच्छति।
तत्रतत्र हि सिद्धार्थो देवकन्याभिरुह्यते।।
13-164-31a
13-164-31b
फलं बहुसुवर्णस्य यज्ञस्य लभते नरः।
सङ्ख्यामतिगुणां चापि तेषु लोकेषु मोदते।।
13-164-32a
13-164-32b
यस्तु संवत्सरं क्षान्तो भुङ्क्तेऽहन्यष्टमे नरः।
देवकार्यपरो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-33a
13-164-33b
पौण्डरीकस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।
पद्मवर्णनिभं चैव विमानमधिरोहति।।
13-164-34a
13-164-34b
मृष्टाः कनकगौर्यश्च नार्यः श्यामास्तथा पराः।
वयोरूपविलासिन्यो लभते नात्र संशयः।।
13-164-35a
13-164-35b
यस्तु संवत्सरं भुङ्क्ते नवमेनवमेऽहनि।
सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-36a
13-164-36b
अश्वमेधसहस्रस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।
पुण्डरीकप्रकाशं च विमानं लभते नरः।।
13-164-37a
13-164-37b
दीप्तसूर्याग्नितेजोभिर्दिव्यमालाभिरेव च।
नीयते रुद्रकन्याभिः सोन्तरिक्षं सनातनम्।।
13-164-38a
13-164-38b
अष्टादशसहस्राणि वर्षाणां कल्पमेव च।
कोटीशतसहस्रं च तेषु लोकेषु मोदते।।
13-164-39a
13-164-39b
यस्तु संवत्सरं भुङ्क्ते दशाहे वै गतेगते।
सदा द्वादश मासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-40a
13-164-40b
ब्रह्मकन्यानिवासे स सर्वभूतमनोहरे।
अश्वमेधसहस्रस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।।
13-164-41a
13-164-41b
रूपवत्यश्च तं कन्या रमयन्ति सदा नरम्।
नीलोत्पलनिभैर्वर्णै रक्तोत्पलनिभैस्तथा।।
13-164-42a
13-164-42b
विमानं मण्डलावर्तमावर्तगहनाकुलम्।
सागरोर्मिप्रतीकाशं स लभेद्यानमुत्तमम्।।
13-164-43a
13-164-43b
विचित्रमणिमालाभिर्नादितं शङ्खनिःस्वनैः।
स्फाटिकैर्वज्रसारैश्च स्तम्भैः सुकृतवेदिकम्।
आरोहति महद्यानं हंससारसवाहनम्।।
13-164-44a
13-164-44b
13-164-44c
एकादशे तु दिवसे यः प्राप्ते प्राशते हविः।
सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-45a
13-164-45b
परिस्त्रियं नाभिलषेद्वाचाथ मनसाऽपि वा।
अनृतं च न भाषेत मातापित्रोःक कृतेऽपि वा।
अभिगच्छेन्महादेवं विमानस्थं महाबलम्।।
13-164-46a
13-164-46b
13-164-46c
अश्वमेधसहस्रस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।
स्वायंभुवं च पश्येत विमानं समुपस्थितम्।।
13-164-47a
13-164-47b
कुमार्यः काञ्चनाभासा रूपवत्यो नयन्ति तम्।
रुद्राणां तमधीवासं दिवि दिव्यं मनोहरम्।।
13-164-48a
13-164-48b
वर्षाण्यपरिमेयानि युगान्तमपि चावसेत्।
कोटीशतसहस्रं च दशकोटिशतानि च।।
13-164-49a
13-164-49b
रुद्रं नित्यं प्रणमते देवदानवसम्मतम्।
स तस्मै दर्शनं प्राप्तो दिवसेदिवसे भवेत्।।
13-164-50a
13-164-50b
दिवसे द्वादशे यस्तु प्राप्तो वै प्राशते हविः।
सदा द्वादश मासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-51a
13-164-51b
नियमेन समायुक्तः सर्वमेधफलं लभेत।
आदित्यैर्द्वादशैस्तस्य विमानं संविधीयते।।
13-164-52a
13-164-52b
मणिमुक्ताप्रवालैश्च महार्हैरुपशोभितम्।
हंसभासा परिक्षिप्तं नागवीथीसमाकुलम्।।
13-164-53a
13-164-53b
मयूरैश्चक्रवाकैश्च कूजद्भिरुपशोभितम्।
अट्टैर्महद्भिः संयुक्तं ब्रह्मलोके प्रतिष्ठितम्।।
13-164-54a
13-164-54b
नित्यमावसथं राजन्नरनारीसमावृतम्।
ऋषिरेवं महाभागस्त्वङ्गिराः प्राह धर्मिवित्।।
13-164-55a
13-164-55b
त्रयोदशे तु दिवसे प्राप्ते यः प्राशते हविः।
सदा द्वादश मासान्वै देवसत्रफलं लभेत्।।
13-164-56a
13-164-56b
रक्तपद्मोदयं नाम विमानं साधयेन्नरः।
जातरूपप्रयुक्तं च रत्नसञ्चयभूषितम्।।
13-164-57a
13-164-57b
देवकन्याभिराकीर्णं दिव्याभरणभूषितम्।
पुण्यगन्धोदयं दिव्यं वादित्रैरुपशोभितम्।।
13-164-58a
13-164-58b
तत्र शङ्कुपताके द्वे युगान्तं कल्पमेव च।
अयुतायुतं तथा पद्मं समुद्रं च तथा वसेत्।।
13-164-59a
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गीतगन्धर्वघोषैश्च भेरीपणवनिःस्वनैः।
सदा प्रह्लादितस्ताभिर्देवकन्याभिरीड्यते।।
13-164-60a
13-164-60b
चतुर्दशे तु दिवसे यः पूर्णे प्राशते हविः।
सदा द्वादशमासांस्तु महामेधफलं लभेत्।।
13-164-61a
13-164-61b
अनिर्देश्यवयोरूपा देवकन्याः स्वलङ्कृताः।
मृष्टतप्ताङ्गदधरा विमानैरुपयान्ति तम्।।
13-164-62a
13-164-62b
कलहंसविनिर्घोषैर्नूपुराणां च निःखनैः।
काञ्चीनां च समुत्कर्षैस्तत्रतत्र निबोध्यते।।
13-164-63a
13-164-63b
देवकन्यानिवासे च तस्मिन्वसति मानवः।
जाह्नवीवालुकाकीर्णं पूर्णं संवत्सरं नरः।।
13-164-64a
13-164-64b
यस्तु पक्षे गते भुङ्क्ते एकभक्तं जितेन्द्रियः।
सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-65a
13-164-65b
राजसूयसहस्रस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।
यानमारोहते दिव्यं हंसबर्हिणलक्षणम्।।
13-164-66a
13-164-66b
मणिमण्डलकैश्चित्रं जातरूपसमावृतम्।
दिव्याभरणशोभाभिर्वरस्त्रीभिरलङ्कृतम्।।
13-164-67a
13-164-67b
एकस्तम्भं चतुर्द्वारं सप्तभौमं सुमङ्गलम्।
वैजयन्तीसहस्रैश्च शोभितं गीतनिःस्वनै।
दिव्यं दिव्यगुणोपेतं विमानमधिरोहति।।
13-164-68a
13-164-68b
13-164-68c
मणिमुक्ताप्रवालैश्च भूषितं वैद्युतप्रभम्।
वसेद्युगसहस्रं च खड्गकुञ्जरवाहनः।।
13-164-69a
13-164-69b
षोडशे दिवसे यस्तु सम्प्राप्ते प्राशते हविः।
सदा द्वादशमासान्वै सोमयज्ञफलं लभेत्।।
13-164-70a
13-164-70b
सोमकन्यानिवासेषु सोऽध्यावसति नित्यशः।
सौम्यगन्धानुलिप्तश्च कामचारगतिर्भवेत्।।
13-164-71a
13-164-71b
सुदर्शनाभिर्नारीभिर्मधुराभिस्तथैव च।
अर्च्यते वै विमानस्थः कामभोगैश्च सेव्यते।।
13-164-72a
13-164-72b
फलं पद्मशतप्रख्यं महाकल्पं दशाधिकम्।
आवर्तनानि चत्वारि साधयेच्चाप्यसौ नरः।।
13-164-73a
13-164-73b
दिवसे सप्तदशमे यः प्राप्ते प्राशते हविः।
सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-74a
13-164-74b
स्थानं वारुणमैन्द्रं च रौद्रं वाऽप्यधिगच्छति।। 13-164-75a
मारुतं शयनं चैव ब्रह्मलोकं स गच्छति।
तत्र दैवतकन्याभिरासनेनोपचर्यते।।
13-164-76a
13-164-76b
भूर्भुवःस्वश्च देवर्षिर्विश्वरूपमवेक्षते।
तत्र देवाधिदेवस्य कुमार्यो रमयन्ति तम्।
द्वात्रिंशद्रूपदारिण्यो मधुराः समलङ्कृताः।।
13-164-77a
13-164-77b
13-164-77c
चन्द्रादित्यावुभौ यावद्गगते चरतः प्रभो।
तावच्चरत्यसौ धीरः सुधातुल्यरसाशनः।।
13-164-78a
13-164-78b
अष्टादशे यो दिवसे प्राश्नीयादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासान्वै सप्तलोकान्स पश्यति।।
13-164-79a
13-164-79b
रथैः स नन्दिघोषैश्च पृष्ठतः सोऽनुगम्यते।
देवकन्याधिरूढैस्तु भ्राजमानैः स्वलंकृतैः।।
13-164-80a
13-164-80b
व्याघ्रसिंहप्रयुक्तं च मेघस्वननिनादितम्।
विमानमुत्तमं दिव्यं सुसुखि ह्यधिरोहति।।
13-164-81a
13-164-81b
तत्र कल्पसहस्रं स कन्याभिः सह मोदते।
सुधारसं च भुञ्जीत अमृतोपममुत्तमम्।।
13-164-82a
13-164-82b
एकोनविंशदिवसे यो भुङ्क्ते एकभोजनम्।
सदा द्वादशमासान्वै सप्त लोकान्स पश्यति।।
13-164-83a
13-164-83b
उत्तमं लभते स्थानमप्सरोगणसेवितम्।
गन्धर्वैरुपगीतं च विमानं सूर्यवर्चसम्।।
13-164-84a
13-164-84b
तत्रामरवरस्त्रीभिर्मोदते विगतज्वरः।
दिव्याम्बरधरः श्रीमानयुतानां शतंशतम्।।
13-164-85a
13-164-85b
पूर्णेऽथ विंशे दिवसे यो भुङ्क्ते ह्येकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु सत्यवादी धृतव्रतः।।
13-164-86a
13-164-86b
अमांसाशी ब्रह्मचारी सर्वभूतहिते रतः।
स लोकान्विपुलान्रम्यानादित्यानामुपाश्नुते।।
13-164-87a
13-164-87b
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च दिव्यमाल्यानुलेपनैः।
विमानैः काञ्चनैर्हृद्यैः पृष्ठतश्चानुगम्यते।।
13-164-88a
13-164-88b
एकविंशो तु दिवसे यो भुङ्क्ते ह्येकभोजनम्।
सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।
लोकमौशनसं दिव्यं शक्रलोकं च गच्छति।।
13-164-89a
13-164-89b
13-164-89c
अश्विनोर्मरुतां चैव सुखेष्वभिरतः सदा।
अनभिज्ञश्च दुःखानां विमानवरमास्थितः।
सेव्यमानो वरस्त्रीभिः क्रीडत्यमरवत्प्रभुः।।
13-164-90a
13-164-90b
13-164-90c
द्वाविंशे दिवसे प्राप्ते यो भुङ्क्ते ह्येकभोजनम्।
सदा द्वादश मासान्वै जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-91a
13-164-91b
अहिंसानिरतो धीमान्सत्यवागनसूयकः।
लोकान्वसूनामाप्नोति दिवाकरसमप्रभः।।
13-164-92a
13-164-92b
कामचारी सुधाहारो विमानवरमास्थितः।
रमते देवकन्याभिर्दिव्याभरणभूषितः।।
13-164-93a
13-164-93b
त्रयोविंशे तु दिवसे प्राशेद्यस्त्वेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु मिताहारो जितेन्द्रियः।
वायोरुशनसस्चैव रुद्रलोकं च गच्छति।।
13-164-94a
13-164-94b
13-164-94c
कामचारी कामगमः पूज्यमानोऽप्सरोगणैः।
अनेकयुगपर्यन्तं विमानवरमास्थितः।
रमते देवकन्याभिर्दिव्याभरणभूषितः।।
13-164-95a
13-164-95b
13-164-95c
चतुर्विंशे तु दिवसे यः प्राप्ते प्राशते हविः।
सदा द्वादशमासांश्च जुह्वानो जातवेदसम्।
आदित्यानामधीवासे मोदमानो वसेच्चिरम्।।
13-164-96a
13-164-96b
13-164-96c
दिव्यमाल्याम्बरधरो दिव्यगन्धानुलेपनः।
विमाने काञ्चने दिव्ये हंसयुक्ते मनोरमे।
रमते देवकन्यानां सहस्रैरयुतैस्तथा।।
13-164-97a
13-164-97b
13-164-97c
पञ्चविंशे तु दिवसे यः प्राशेदेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु पुष्कलं यानमारुहेत्।।
13-164-98a
13-164-98b
सिंहव्याग्रप्रयुक्तैस्तु मेघनिःस्वननादितैः।
स रथैर्नन्दिघोषैश्च पृष्ठतो ह्यनुगम्यते।
देवकन्यासमारूढैः काञ्चनैर्विमलैः शुभैः।।
13-164-99a
13-164-99b
13-164-99c
विमानमुत्तमं दिव्यमास्थाय सुमनोहरम्।
तत्र कल्पसहस्रं वै वसते स्त्रीशतावृते।
सुधारसं चोपजीवन्नमृतोपममुत्तमम्।।
13-164-100a
13-164-100b
13-164-100c
षड्विंशे दिवसे यस्तु प्रकुर्यादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु नियतो नियताशनः।
जितेन्द्रियो वीतरागो जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-101a
13-164-101b
13-164-101c
स प्राप्नोति महाभागः पूज्यमानोऽप्सरोगणैः।
सप्तानां मरुतां लोकान्वसूनां चापि सोश्नुते।।
13-164-102a
13-164-102b
विमानैः स्फाटिकैर्दिव्यैःइ सर्वरत्नैरलङ्कृतैः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्चि पूज्यमानः प्रमोदते।
द्वेऽर्बुदानां सहस्रे तु दिव्ये दिव्येन तेजसा।।
13-164-103a
13-164-103b
13-164-103c
सप्तविंशेऽथ दिवसे यः कुर्यादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम्।।
13-164-104a
13-164-104b
फलं प्राप्नोति विपुलं देवलोके च पूज्यते।
अमृताशी वसंस्तत्र स वितृपः प्रमोदते।।
13-164-105a
13-164-105b
देवर्षिचरिताँल्लोकान्राजर्षिभिरनुष्ठितान्।
अध्यावसति दिव्यात्मा विमानवरमास्थितः।।
13-164-106a
13-164-106b
स्त्रीभिर्मिनोभिरामाभी रममाणो मदोत्कटः।
युगकल्पसहस्राणि त्रीण्यावसति वै सुखम्।।
13-164-107a
13-164-107b
योऽष्टाविंशे तु दिवसे प्राश्नीयादेकभोजनम्।
सदा द्वादशमासांस्तु जितात्मा विजितेन्द्रियः।।
13-164-108a
13-164-108b
फलं देवर्षिचरितं विपुलं समुपाश्नुते।
भोगवांस्तेजसा भाति सहस्रांशुरिवामलः।।
13-164-109a
13-164-109b
सुकुमार्यश्च नार्यस्तं रममाणाः सुवर्चसः।
पीनस्तनोरुजघना दिव्याभरणभूषिताः।।
13-164-110a
13-164-110b
रमयन्ति मनःकान्ता विमाने सूर्यसन्निबे।
सर्वकामगमे दिव्ये कल्पायुतशतं समाः।।
13-164-111a
13-164-111b
एकोनत्रिंशदिवसे यः प्राशेदेकभोजनम्।
तस्य लोकाः शुभा दिव्या देवराजर्षिपूजिताः।।
तस्य लोकाः शुभा दिव्या देवराजर्षिपूजिताः।।
13-164-112a
13-164-112b
13-164-112c
विमानं सूर्यचन्द्राभं दिव्यं समधिगच्छति।
जातरूपमयं युक्तं सर्वरत्नसमन्वितम्।
अप्सरोगणसङ्कीर्णं गन्धर्वैरभिनादितम्।।
13-164-113a
13-164-113b
13-164-113c
तत्र चैनं शुभा नार्यो दिव्याभरणभूषिताः।
मनोभिरामा मधुरा रमयन्ति मदोत्कटाः।।
13-164-114a
13-164-114b
भोगवांस्तेजसा युक्तो वैश्वानरसमप्रभः।
दिव्यो दिव्येन वपुषा भ्राजमान इवामरः।।
13-164-115a
13-164-115b
वसूनां मरुतां चैव साध्यानामश्विनोस्तथा।
रुद्राणां च तथा लोकं ब्रह्मलोकं च गच्छति।।
13-164-116a
13-164-116b
यस्तु मासे गते भुङ्क्ते एकभक्तं समाहितः।
सदा द्वादश मासान्वै ब्रह्म्लोकमवाप्नुयात्।।
13-164-117a
13-164-117b
सुधारसकृताहार श्रीमान्सर्वमनोहरः।
तेजसा वपुषा लक्ष्म्या भ्राजते रश्मिवानिव
13-164-118a
13-164-118b
दिव्यमाल्याम्बरधरो दिव्यगन्धानुलेपनः
सुखेष्वभिरतो भोगी दुःखानामविजानकः
13-164-119a
13-164-119b
स्वयंप्रभाभिर्नारीभिर्विमानस्थो महीयते
रुद्रदेवर्षिकन्याभिः सततं चाभिपूज्यते
13-164-120a
13-164-120b
नानारमणरूपाभिर्नानारागाभिरेव च
13-164-121a
13-164-121b
विमाने गगनाकारे सूर्यवैडूर्यसन्निभे
पृष्ठतः सोमसङ्करो उदर्के चाभ्रसन्निभे
13-164-122a
13-164-122b
दक्षिणायां तु रक्ताभे अधस्तान्नीलमण्डले
ऊर्ध्वं विचित्रसङ्काशे नैको वसति पूजितः
13-164-123a
13-164-123b
यावद्वर्षसहस्रं वै जम्बूद्वीपे प्रवर्षति
तावत्संवत्सराः प्रोक्ता ब्रह्मलोकेऽस्य धीमतः
13-164-124a
13-164-124b
विप्रुषश्चैव यावन्त्यो निपतन्ति नभस्तलात्
वर्षासु वर्षतस्तावन्निवसत्यमरप्रभः
13-164-125a
13-164-125b
मासोपवासी वर्षैस्तु दशभिः स्वर्गमुत्तमम्
महर्षित्वमथासाद्य सशरीरगतिर्भवेत्
13-164-126a
13-164-126b
मुनिर्दान्तो जितक्रोधो जितशिश्नोदरः सदा
जुह्वन्नग्नींश्च नियतः सन्ध्योपासनसेविता
13-164-127a
13-164-127b
बहुभिर्नियमैरेवं शुचिरश्नाति यो नरः
अभ्रावकाशशीलश्च तस्य भानोरिव त्विषः
13-164-128a
13-164-128b
दिवं गत्वा शरीरेण स्वेन राजन्यथाऽमरः
स्वर्गं पुण्यं यथाकाममुपभुङ्क्ते तथाविधः
13-164-129a
13-164-129b
एथ ते भरतश्रेष्ठ यज्ञानां विधिरुत्तमः।
व्याख्यातो ह्यानुपूर्व्येण उपवासफलात्मकः
13-164-130a
13-164-130b
दरिद्रैर्मनुजैः पार्थ प्राप्यं यज्ञफलं यथा
देवद्विजातिपूजायां रतो भरतसत्तमम्
13-164-131a
13-164-131b
उपवासविधिस्त्वेष विस्तरेण प्रकीर्तितः
नियतेष्वप्रमत्तेषु शौचवत्सु महात्मसु
13-164-132a
13-164-132b
दम्भद्रोहनिवृत्तेषु कृतबुद्धिषु भारत
अचलेष्वप्रकम्पेषु मा ते भूदत्र संशयः
13-164-133a
13-164-133b

7-164-3 अवगुणैर्निर्गुणैः। एकात्मभिरेकाकिभिः। अत एवासंहतैरसहायैः।। 7-164-6 कल्यं प्रातः।। 7-164-10 सगाप्ते सम्पूर्णे द्वे पद्‌मे वर्षाणीति शेषः। शतकोटय एकं पद्मम्।। 7-164-16 निवर्तनं नियमेन वर्तनम्।। 7-164-22 आवर्तनानि वर्षाणि चत्वारि द्वादशचेति षोडश पद्मानि। तथा शराग्निरिति पञ्चत्रिंशत्। एवमेकपञ्चाशत्पद्मानि।। 7-164-27 पताका महापद्माख्यसंख्याविशेषः।। 7-164-30 सुमनोवर्णकं स्रक्च्न्दनादि।। 7-164-59 शङ्कुपताके संख्याविशेषौ।। 7-164-82 सुधा अमृतम्। अमृतं देवभोग्यं तदुपमम्।।

अनुशासनपर्व-163 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-165