महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-152
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति चातुर्वर्ण्यस्य श्रेयस्साधनोपायप्रतिपादकपराशरवचनानुवादः।। 1 ।।
`पराशर उवाच। | 13-152-1x |
एवं स भिक्षुर्निर्वाणं प्राप्नुयाद्दग्धकिल्बिषः। इहस्थो देहमुत्सृज्य नीडं शकुनिवद्यथा।। | 13-152-1a 13-152-1b |
सत्पथालम्बनादेव शूद्रः प्राप्नोति सद्गतिम्। ब्रह्मणः स्थानमचलं स्थानात्स्थानमवाप्नुयात्।। | 13-152-2a 13-152-2b |
यथा खनन्खनित्रेण जाङ्गले वारि विन्दति। अनिर्वेदात्ततः स्थानमीप्सितं प्रतिपद्यते।। | 13-152-3a 13-152-3b |
सैषा गतिरनाद्यन्ता सर्वैरप्युपधारिता। तस्माच्छूद्रैरनिर्वेदाच्छ्रद्दधानैस्तु नित्यदा। वर्तितव्यं यथाशक्त्या यथा प्रोक्तं मनीषिभिः। | 13-152-4a 13-152-4b 13-152-4c |
यत्करोति तदश्नाति शुभं वा यदि वाऽशुभम्। नाकृतं भुज्यते कर्म न कृतं नश्यते फलम्।। | 13-152-5a 13-152-5b |
तथा शुभसमाचारः शुभमेवाप्नुते फलम्। तथाऽशुभसमाचारो ह्यशुभं समवाप्नुते। शुभान्येव समादद्याद्य इच्छेद्भूतिमात्मनः।। | 13-152-6a 13-152-6b 13-152-6c |
भूतिश्च नान्यतः शक्त्या शूद्राणामिति निश्चयः। क्रते यतीनां शुश्रूषामिति सन्तो व्यवस्थिताः।। | 13-152-7a 13-152-7b |
तस्मादागमसम्पन्नो भवेत्सुनियतेन्द्रियः। शक्यते ह्यागमादेव गतिं प्राप्तुमनामयाम्।। | 13-152-8a 13-152-8b |
वरा चैषा गतिर्दृष्टा यामन्वेपन्ति साधवः। यत्रामृतत्वं लभते त्यक्त्वा दुःखमनन्तरम्।। | 13-152-9a 13-152-9b |
इमं हि धर्मिमास्थाय येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्याश्च शूद्राश्च प्राप्नुयुः परमां गतिम्। किं पुनर्ब्राह्मणो विद्वान्क्षत्रियो वा बहुश्रुतः।। | 13-152-10a 13-152-10b 13-152-10c |
न चाप्यक्षीणपापस्य ज्ञानं भवति देहिनः। ज्ञानोपलब्धिर्भवति कृतकृत्यो यदा भवेत्।। | 13-152-11a 13-152-11b |
उपलभ्य तु विज्ञानं ज्ञानं वाऽप्यनसूयकः। तथैव वर्तेद्गुरुषु भूयांसं वा समाहितः।। | 13-152-12a 13-152-12b |
अथावमन्येत गुरुं तथा तेषु प्रवर्तते। व्यर्थमस्य श्रुतं भवति ज्ञानमज्ञानतां व्रजेत्।। | 13-152-13a 13-152-13b |
गतिं चाप्यशुभां गच्छेन्निरयाय न संशयः। प्रक्षीयते तस्य पुण्यं ज्ञानमस्य विरुध्यते।। | 13-152-14a 13-152-14b |
अदृष्टपूर्वकल्याणो यथा दृष्ट्वा विधिं नरः। उत्सेकान्मोहमापद्य तत्वज्ञानमवाप्तवान्।। | 13-152-15a 13-152-15b |
एवमेवि हि नोत्सेकः कर्तव्यो ज्ञानसम्भवः। फलं ज्ञानस्य हि शमः प्रशामाय यतेत्सदा।। | 13-152-16a 13-152-16b |
उपशान्तेन दान्तेन क्षमायुक्तेन सर्वदा। शुश्रूषा प्रतिपत्तव्या नित्यमेवानसूयता।। | 13-152-17a 13-152-17b |
धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा। इन्द्रियार्थांश्च मनसा मनो बुद्धौ समादधेत्।। | 13-152-18a 13-152-18b |
धृत्याऽऽसीत ततो गत्वा शुद्धदेशं सुसंवृतम्। लब्धासनं यथा दृष्टं विधिपूर्वं समाचरेत्।। | 13-152-19a 13-152-19b |
ज्ञानयुक्तस्तथा देवं हृदिस्थमुपलक्षयेत्। आदीप्यमानं वपुषा विधूममनलं यथा।। | 13-152-20a 13-152-20b |
रश्मिमन्तमिवादित्यं वैद्युताग्निमिवाम्बरे। संस्थितं हृदये पश्येदीशं शाश्वतमव्ययम्।। | 13-152-21a 13-152-21b |
न चायुक्तेन शक्येत द्रष्टुं देहे महेश्वरः। युक्तस्तु पश्यते बुद्ध्या सन्निवेश्य मनो हृदि।। | 13-152-22a 13-152-22b |
अथ त्वेवं न शक्नोति कर्तुं हृदयधारणम्। यथासांख्यमुपासीत यथावद्योगमास्थितः।। | 13-152-23a 13-152-23b |
पञ्च बुद्धीन्द्रियाणीह पञ्च कर्मेन्द्रियाणि वै। पञ्च भूतविशेषाश्च मनश्चैव तु षोडश।। | 13-152-24a 13-152-24b |
तन्मात्राण्यपबि पञ्चैव मनोऽहङ्कार एव च। अष्टमं चाप्यथाव्यक्तमेताः प्रकृतिसंज्ञिताः। एताः प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश।। | 13-152-25a 13-152-25b 13-152-25c |
एवमेतदिहस्थेन विज्ञेयं तत्वबुद्धिना। एवं वर्ष्म समुत्तीर्य तीर्णो भवति नान्यथा।। | 13-152-26a 13-152-26b |
परिसंख्यानमेवैतन्मन्तव्यं ज्ञानबुद्धिना।। | 13-152-27a |
अहन्यहनि शान्तात्मा पावनाय हिताय च। एवमेव प्रसंख्याय तत्वबुद्धिर्विमुच्यते। निष्पलं केवलं भवति शुद्धतत्वार्थतत्ववित्।। | 13-152-28a 13-152-28b 13-152-28c |
भिक्षुकाश्रममास्थाय शुश्रूषानिरतो बुधः। शूद्रो निर्मुच्यते सत्वसंसर्गादेव नान्यथा।। | 13-152-29a 13-152-29b |
सत्संनिक्रषे परिवर्तितव्यं विद्याधिकाश्चापि निषेवितव्याः। सवर्णतां गच्छति सन्निकर्षा- न्नीलः खगो मेरुमिवाश्रयन्वै।। | 13-152-30a 13-152-30b 13-152-30c 13-152-30d |
भीष्म उवाच। | 13-152-31x |
इत्येवमाख्याय महामुनिस्तदा चतुर्षु वर्णेषु विधानमर्थवित्। शुश्रूषया वृत्तगतिं समाधिना समाधियुक्तः प्रययौ स्वमाश्रमम्।।' | 13-152-31a 13-152-31b 13-152-31c 13-152-31d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 152 ।। |
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