महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-186
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युधिष्ठिरेणावश्चवेद्योपास्येषु परावधिं पृष्टेनि भीष्मेण तम्प्रति श्रीनारायणमहिमप्रतिपादकनारदपुण्डिरीकसंवादानुवादपूर्वकं नारायणस्य सर्वोत्कृष्टत्वेन वेद्यत्वोपास्यत्वविधानम्।। 1 ।।
*युधिष्ठिर उवाच। | 13-186-1x |
यज्ज्ञेयं परमं कृत्यमनुष्ठेयं महात्मभिः। सारं मे सर्वशास्त्राणां वक्तुमर्हस्यनुग्रहात्।। | 13-186-1a 13-186-1b |
भीष्म उवाच। | 13-186-2x |
श्रूयतामिदमत्यन्तं गूढं संसारमोचनम्। श्रोतव्यं च त्वया सम्यग्ज्ञातव्यं च विशाम्पते।। | 13-186-2a 13-186-2b |
पुण्डरीकः पुरा विप्रः पुण्यतीर्थे जपान्वितः। नारदं परिपप्रच्छ श्रेयो योगपरं मुनिम्।। | 13-186-3a 13-186-3b |
नारदश्चाब्रवीदेनं ब्रह्मणोक्तं महात्मना।। | 13-186-4a |
शृणुष्वावहितस्तात ज्ञानयोगमनुत्तमम्। अप्रभूतं प्रभूतार्थं वेदशास्त्रार्थसंयुतम्। | 13-186-5a 13-186-5b |
यः परः प्रकृते प्रोक्तः पुरुषः पञ्चविंशकः। स एव सर्वभूतात्मा नर इत्यभिधीयते।। | 13-186-6a 13-186-6b |
नराज्जातानि तत्वानि नाराणीति ततो विदुः। तान्येव चायनं तस्य तेन नारायणः स्मृतः।। | 13-186-7a 13-186-7b |
नारायणाज्जगत्सर्वं सर्गकाले प्रजायते। तस्मिन्नेव पुनस्तच्च प्रलये सम्प्रलीयते।। | 13-186-8a 13-186-8b |
नारायणः परं ब्रह्म तत्वं नारायणः परः। परादपि परश्चासौ तस्मान्नास्ति परात्परः।। | 13-186-9a 13-186-9b |
वासुदेवं तथा विष्णुमात्मानं च तथा विदुः। संज्ञाभेदैः स एवैकः सर्वशास्त्राभिसंस्कृतः।। | 13-186-10a 13-186-10b |
आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनःपुनः। इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा।। | 13-186-11a 13-186-11b |
तस्मात्त्वं गहनान्सर्वांस्त्यक्त्वा शास्त्रार्थविस्तरान्। अनन्यचेता ध्यायस्व नारायणमजं विभुम्।। | 13-186-12a 13-186-12b |
मुहूर्तिमपि यो ध्यायेन्नारायणमतन्द्रितः। सोऽपि तद्गतिमाप्नोति किं पुनस्तत्परायणः।। | 13-186-13a 13-186-13b |
नमो नारायणायेति यो वेद ब्रह्म शाश्वतम्। अन्त्यकाले जपन्नेति तद्विष्णोः परमं पदम्।। | 13-186-14a 13-186-14b |
श्रवणान्मननाच्चैव गीतिस्तुत्यर्चनादिभिः। आराध्यं सर्वदा ब्रह्म पुरुषेण हितैषिणा।। | 13-186-15a 13-186-15b |
लिप्यते न स पापेन नारायणपरायणः। पुनाति सकलं लोकं सहस्रांशुरिवोदितः।। | 13-186-16a 13-186-16b |
ब्रह्मचारी गृहस्थोऽपि वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। केशवाराधनं हित्वा नैव याति परां गतिम्।। | 13-186-17a 13-186-17b |
जन्मान्तरसहस्रेषु दुर्लभा तद्गता मतिः। तद्भक्तवत्सलं देवं समराधय सुव्रत।। | 13-186-18a 13-186-18b |
नारदेनैवमुक्तस्तु स विप्रोऽभ्यर्चयद्धरिम्। स्वप्नोऽपि पुण्डरीकाक्षं शङ्खचक्रगदाधरम्।। | 13-186-19a 13-186-19b |
किरीटकुण्डलधरं लसच्छ्रीवत्सकौस्तुभम्। तं दृष्ट्वा देवदेवेशं प्राणमत्सम्भ्रमान्वितः।। | 13-186-20a 13-186-20b |
अथ कालेन महता तथा प्रत्यक्षतां गतः। संस्तुतः स्तुतिभिर्वेदैर्देवगन्धर्वकिन्नरैः।। | 13-186-21a 13-186-21b |
अथ तेनैव भगवानात्मलोकमधोक्षजः। गतः सम्प्रजितः सर्वैः स योगिनिलयो हरिः।। | 13-186-22a 13-186-22b |
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र तद्भक्तस्तत्परायणः। अर्चयित्वा यथायोगं भजस्व पुरुषोत्तमम्।। | 13-186-23a 13-186-23b |
अजरममरमेकं ध्येयमाद्यन्तशून्यं सगुणमगुणमाद्यं स्थूलमत्यन्तसूक्ष्मम्। निरुपममुपमेयं योगिविज्ञानगम्यं त्रिभुवनगुरुमीशं सम्प्रपद्यस्व विष्णुम्।। | 13-186-24a 13-186-24b 13-186-24c 13-186-24d |
।। इती श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि ष॰शीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 186 ।। |
13-186-1x अयमध्यायो दाक्षिणात्यकोशेष्वेव दृश्यते।
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