महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-075
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति स्त्रीणां पुरुषचित्तप्रमथनाय शक्तिशेषदानपूर्वकं ब्रह्मणा सृष्टतया तद्रक्षणस्य दुष्करत्वकथनम्।। 1 ।। स्त्रीणां रक्षणस्य दुश्शकत्वे दृष्टान्ततया विपुलोपाख्यानकथनारम्भः।। 2 ।। गुरुणा स्वभार्वारक्षणं नियुक्तेन विपुलनाम्ना तदर्थं योगेन तच्छरीरप्रवेशः।। 3 ।।
भीष्म उवाच। | 13-75-1x |
एवमेतन्महाबाहो नात्र मिथ्याऽस्ति किञ्चन। यथा ब्रवीषि कौरव्य नारीं प्रति जनाधिप।। | 13-75-1a 13-75-1b |
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्। यथा रक्षा कृता पूर्वं विपुलेन महात्मना।। | 13-75-2a 13-75-2b |
प्रमदाश्च यथा सृष्टा ब्रह्मणा भरतर्षभ।। यदर्थं तच्च ते तात प्रवक्ष्यामि नराधिप।। | 13-75-3a 13-75-3b |
न हि स्त्रीभ्यः परं पुत्र पापीयः किञ्चिदस्ति वै। अग्निर्हिः प्रमदा दीप्तो मायाश्च मयजा विभो। क्षुरधारा विषं सर्पो मृत्युरित्येकतः स्त्रियः।। | 13-75-4a 13-75-4b 13-75-4c |
प्रजा इमा महाबाहो धार्मिक्य इति नः श्रुतम्। स्वयं गच्छन्ति देवत्वं ततो देवानियाद्भयम्।। | 13-75-5a 13-75-5b |
अथाभ्यागच्छन्देवास्ते पितामहमरिंदम। निवेद्य मानसं चापि तूष्णीमासन्नधोमुखाः।। | 13-75-6a 13-75-6b |
तेषामन्तर्गतं ज्ञात्वा देवानां स पितामहः। मानवानां प्रमोहार्थं कृत्या नार्योऽसृजत्प्रभुः।। | 13-75-7a 13-75-7b |
पूर्वसर्गे तु कौन्तेय साध्व्यो नार्य इहाभवन्। असाध्व्यस्तु समुत्पन्नाः कृत्याः सर्गात्प्रजापतेः 0 ताः कामलुब्धाः प्रमदाः प्रामथ्नन्त नरान्सदा।। | 13-75-8a 13-75-8b 13-75-9a ताभ्यः कामान्यथाकामं प्रादाद्धि स पितामहः। 13-75-9b |
क्रोधं कामस्य देवेशः सहायं चासृजत्प्रभुः। असज्जन्त प्रजाः सर्वाः कामक्रोधवशङ्गताः।। | 13-75-10a 13-75-10b |
`द्विजानां च गुरूणां च महागुरुनृपादिनाम्। क्षणस्त्रीसङ्गकामोत्था यातनाहो निरन्तरा।। | 13-75-11a 13-75-11b |
अरक्तमनसां नित्यं ब्रह्मचर्यामलात्मनाम्। तपोदमार्चनाध्यानयुक्तानां शुद्धिरुत्तमा।।' | 13-75-12a 13-75-12b |
न च स्त्रीणां क्रियाः काश्चिदिति धर्मो व्यवस्थितः। निरिन्द्रिया ह्यशास्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति श्रुतिः।। | 13-75-13a 13-75-13b |
शय्यासनमलङ्कारमन्नपानमनार्यताम्। दुर्वाग्भावं रतिं चैव ददौ स्त्रीभ्यः प्रजापतिः।। | 13-75-14a 13-75-14b |
न तासां रक्षणं शक्यं कर्तुं पुंसां कथञ्चन। अपि विस्वकृता तात कुतस्तु पुरुषैरिह।। | 13-75-15a 13-75-15b |
वाचा च वधबन्धैर्वा क्लेशैर्वा विविधैस्तथा। न शक्या रक्षितुं नार्यस्ता हि नित्यमसंयताः।। | 13-75-16a 13-75-16b |
इदं तु पुरुषव्याघ्र पुरस्ताच्छ्रुतवानहम्। यथा रक्षा कृता पूर्वं विपुलेन गुरुस्त्रियाः।। | 13-75-17a 13-75-17b |
ऋषिरासीन्महाभागो देवशर्मेति विश्रुतः। तस्य भार्या रुचिर्नाम रूपेणासदृशी भुवि।। | 13-75-18a 13-75-18b |
तस्या रूपेण सम्मत्ता देवगन्धर्वदानवाः। विशेषेण तु राजेन्द्र वृत्रहा पाकशासनः।। | 13-75-19a 13-75-19b |
नारीणां चरितज्ञश्च देवशर्मा महामतिः। यथाशक्ति यथोस्साहं भार्यां तामभ्यरक्षत।। | 13-75-20a 13-75-20b |
पुरंदरं च जानंश्च परस्त्रीकामचारिणम्। तस्माद्यत्नेन भार्याया रक्षणं स चकार ह।। | 13-75-21a 13-75-21b |
स कदाचिदृषिस्तात यज्ञं कर्तुमनास्तदा। भार्यासंरक्षणं कार्यं कथं स्यादित्यचिन्तयत्।। | 13-75-22a 13-75-22b |
रक्षाविधानं मनसा स सञ्चिन्त्य महातपाः। आहूय दयितं शिष्यं विपुलं प्राह भार्गवम्।। | 13-75-23a 13-75-23b |
यज्ञकारो गमिष्यामि रुचिं चेमां सुरेश्वरः। यतः प्रार्थयते नित्यं तां रक्षस्व यथाबलम्।। | 13-75-24a 13-75-24b |
अप्रमत्तेन ते भाव्यं सदा प्रति पुरंदरम्। स हि रूपाणि कुरुते विविधानि भृगूत्तम।। | 13-75-25a 13-75-25b |
भीष्म उवाच। | 13-75-26x |
इत्युक्तो विपुलस्तेन तपस्वी नियतेन्द्रियः। सदैवोग्रतपा राजन्नग्र्यर्कसदृशद्युतिः।। | 13-75-26a 13-75-26b |
धर्मज्ञः सत्यवादी च तथेति प्रत्यभाषत। पुनश्चेदं महाराज पप्रच्छ प्रस्थितं गुरुम्।। | 13-75-27a 13-75-27b |
कानि रूपाणि शक्रस्य भवन्त्यागच्छतो मुने। वपुस्तेजश्च कीदृग्वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-75-28a 13-75-28b |
भीष्म उवाच। | 13-75-29x |
ततः स भगवांस्तस्मै विपुलाय महात्मने। आचचक्षे यथातत्त्वं मायां शक्रस्य भारत।। | 13-75-29a 13-75-29b |
बहुमायः स विप्रर्षे बलहा पाकशासनः। तांस्तान्विकुरुते भावान्बहूनथ मुहुर्मुहुः।। | 13-75-30a 13-75-30b |
किरीटी वज्रधृग्धन्वी मुकुटी बद्धकुण्डलः। भवत्यथ मुहूर्तेनि चण्डालसमदर्शनः।। | 13-75-31a 13-75-31b |
शिखी जटी चीरवासाः पुनर्भवति पुत्रक। बृहच्छरीरश्च पनश्चीरवासाः पुनः कृशः।। | 13-75-32a 13-75-32b |
गौरं श्यामं च कृष्णं च वर्णं विकुरुते पुनः। विरूपो रूपवांश्चैव युवा वृद्धस्तथैव च।। | 13-75-33a 13-75-33b |
`प्राज्ञो जडश्च मूकश्च ह्रस्वो दीर्घस्तथैव च।' ब्राह्मणः क्षत्रियश्चैव वैश्यः शूद्रस्तथैव च।। | 13-75-34a 13-75-34b |
प्रतिलोमोऽनुलोमश्च भवत्यथ शतक्रतुः। शुकवायसरूपी च हंसकोकिलरूपवान्।। | 13-75-35a 13-75-35b |
सिंहव्याघ्रगजानां च रूपं धारयते पुनः। दैवं दैत्यमथो राज्ञां वपुर्धारयतेऽपि च।। | 13-75-36a 13-75-36b |
अकृशो मायुभग्राङ्गः शकुनिर्विकृतस्तथा। चतुष्पाद्बहुरूपश्च पुनर्भवति बालिशः।। | 13-75-37a 13-75-37b |
मक्षिकामशकादीनां वपुर्धारयतेऽपि च। न शक्यमस्य ग्रहणं कर्तुं विपुल केनचित्।। | 13-75-38a 13-75-38b |
अपि विश्वकृता तात येन सृष्टमिदं जगत्। पुनरन्तर्हितः शक्रो दृश्यते ज्ञानचक्षुषा।। | 13-75-39a 13-75-39b |
वायुभूतश्च स पुनर्देवराजो भवत्युतः। एवंरूपाणि सततं कुरुते पाकशासनः। तस्माद्विपुल यत्नेन रक्षेमां तनुमध्यमाम्।। | 13-75-40a 13-75-40b 13-75-40c |
यथा रुचिं नवलिहेद्देवेन्द्रो भृगुसत्तम। क्रतावुपहिते न्यस्तं हविः श्वेव दुरात्मवान्।। | 13-75-41a 13-75-41b |
एवमाख्याय स मुनिर्यज्ञकारोऽगमत्तदा। देवशर्मा महाभागस्ततो भरतसत्तम।। | 13-75-42a 13-75-42b |
विपुलस्तु वचः श्रुत्वा गुरोश्चिन्तामुपेयिवान्। रक्षां च परमां चक्रे देवराजान्महाबलात्।। | 13-75-43a 13-75-43b |
किन्नु शक्यं मया कर्तुं गुरुदाराभिरक्षणे। मायावी हि सुरेन्द्रोसौ दुर्धर्षश्चापि वीर्यवान्।। | 13-75-44a 13-75-44b |
नीपिधायाश्रमं शक्यो रक्षितुं पाकशासनः। उटजं वा तथा ह्यस्य नानाविधसरूपता।। | 13-75-45a 13-75-45b |
वायुरूपेण वा शक्रो गुरुपत्नीं प्रधर्षयेत्। तस्मादिमां सम्प्रविश्य रुचिं स्थास्येहमद्य वै।। | 13-75-46a 13-75-46b |
अथवा पौरुषेणेयं न शक्या रक्षितुं मया। बहुरूपो हि भगवाञ्छ्रूयते पाकशासनः।। | 13-75-47a 13-75-47b |
सोहं योगबलादेनां रक्षिष्ये पाकशासनात्। गात्राणि गात्रैरस्याहं सम्प्रवेक्ष्ये हि रक्षितुम्।। | 13-75-48a 13-75-48b |
यद्युच्छिष्टामिमां पत्नीमद्य पश्यति मे गुरुः। शप्स्यत्यसंशयं कोपाद्दिव्यज्ञानो महातपाः।। | 13-75-49a 13-75-49b |
न चेयं रक्षितुं शक्या यथाऽन्या प्रमदा नृभिः। मायावी हि सुरेन्द्रोसावहो प्राप्तोस्मि संशयम्।। | 13-75-50a 13-75-50b |
अवश्यं करणीयं हि गुरोरिह हि शासनम्। यदि त्वेतदहं कुर्यामाश्चर्यं स्यात्कृतं मया।। | 13-75-51a 13-75-51b |
योगेनाथ प्रविश्येदं गुरुपत्न्याः कलेवरम्। असक्तः पद्मपत्रस्थो जलबिन्दुर्यथा चलः।। | 13-75-52a 13-75-52b |
एवमेव शरीरे ऽस्या निवत्स्यामि समाहितः। निर्मुक्तस्य रजोरूपान्नापराधो भवेन्मम।। | 13-75-53a 13-75-53b |
यथाहि शून्यां पथिकः सभामध्यावसेत्यथि। तथाऽद्यावासयिष्यामि गुरुपत्न्याः कलेवरम्। एवमेव शरीरे ऽस्य निवत्स्यामि समाहितः।। | 13-75-54a 13-75-54b 13-75-54c |
इत्येवं धर्ममालोक्य वेदवेदांश्च सर्वशः। तपश्च विपुलं दृष्ट्वा गुरोरात्मन एव च।। | 13-75-55a 13-75-55b |
इति निश्चित्य मनसा रक्षां प्रति स भार्गवः। अन्वतिष्ठत्परं यत्नं यथा तच्छृणु पार्थिव।। | 13-75-56a 13-75-56b |
गुरुपत्नीं समासीनो विपुलः स महातपाः। उपासीनामनिन्द्याङ्गी कथार्थैः समलोभयत्।। | 13-75-57a 13-75-57b |
नेत्राभ्यां नेत्रयोरस्या रश्मिं संयोज्य रश्मिभिः। विवेश विपुलः कायमाकाशं पवनो यथा।। | 13-75-58a 13-75-58b |
लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च। अविचेष्टन्नतिष्ठद्वै छायेवान्तर्गतो मुनिः।। | 13-75-59a 13-75-59c |
ततो विष्टभ्य विपुलो गुरुपत्न्याः कलेवरम्। उवास रक्षणे युक्तो न च सा तमबुध्यत।। | 13-75-60a 13-75-60b |
यं कालं नागतो राजन्गुरुस्तस्य महात्मनः। क्रतुं समाप्य स्वगृहं तं कालं सोऽभ्यरक्षत।। | 13-75-61a 13-75-61b |
13-75-4 अस्ति हि प्रमदा दीप्तेति ट.थ. पाठः।। 13-75-13 दरिद्राश्च ह्यमन्त्रश्च स्त्रियो नित्यमिति श्रुतिरिति ध.पाठः।। 13-75-51 अशक्यकरणीयं हीति ध.पाठः।।
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