महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-268
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति धार्मिकाधार्मिकाणां स्वर्गनरकप्राप्तिप्रतिपादनम्।। 1 ।। तता साध्वसाधुजनकक्षणाभिधानपूर्वकं सामान्यतो नानाधर्मप्रतिपादनम्।। 3 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-268-1x |
ये च धर्ममसूयन्ते ये चैनं पर्युपासते। ब्रवीतु मे भवानेतत्क्व ते गच्छन्ति तादृशाः।। | 13-268-1a 13-268-1b |
भीष्म उवाच। | 13-268-2x |
रजसा तमसा चैव समवस्तीर्णचेतसः। नरकं प्रतिपद्यन्ते धर्मविद्वेषिमो जनाः।। | 13-268-2a 13-268-2b |
ये तु धर्मं महाराज सततं पर्युपासते। सत्यार्जवपराः सन्तस्ते वै स्वर्गभूजो नराः।। | 13-268-3a 13-268-3b |
धर्म एव रतिस्तेषामाचार्योपासनाद्भवेत्। देवलोकं प्रपद्यन्ते ये धर्मं पर्युपासते।। | 13-268-4a 13-268-4b |
मनुष्या यदि वा देवाः शरीरमुपताप्य वै। धर्मिणः सुखमेधन्ते लोभद्वेषविवर्जिताः।। | 13-268-5a 13-268-5b |
प्रथमं ब्रह्म्णः पुत्रं धर्ममाहुर्मनीषिणः। धर्मिणः पर्युपासन्ते फलं पक्वमिवाशिनः।। | 13-268-6a 13-268-6b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-268-7x |
असाधोः कीदृशं शीलं साधोश्चैव तु कीदृशम्। ब्रवीतु मे भवानेतत्सन्तोऽसन्तश्च कीदृशाः।। | 13-268-7a 13-268-7b |
भीष्म उवाच। | 13-268-8x |
दुराधाराश्च दुर्धर्षा दुर्मुखाश्चाप्यसाधवः। साधवः शीलसम्पन्नाः शिष्टाचारस्य लक्षणम्।। | 13-268-8a 13-268-8b |
राजमार्गे गवां मध्ये जनमध्ये च धर्मिणः। नोपसेचन्ति राजेन्द्र सर्गं मूत्रपुरीषयोः।। | 13-268-9a 13-268-9b |
पञ्चानां यजनं कृत्वा शेषमश्नन्ति साधवः। न जल्पन्ति च भुञ्जाना न निद्रान्त्यार्द्रपाणयः।। | 13-268-10a 13-268-10b |
चित्रभानुमपां देवं गोष्ठं चैव चतुष्पथम्। ब्राह्मणं धार्मिकं वृद्धं ये कुर्वन्ति प्रदक्षिणम्।। | 13-268-11a 13-268-11b |
वृद्धानां भारतप्रानां स्त्रीणां बालातुरस्य च। ब्राह्मणानां गवां राज्ञां पन्थानं ददते च ये।। | 13-268-12a 13-268-12b |
अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च। `सामान्यं भोजनं कुर्यात्स्वयं नाग्र्यशनं व्रजेत्।। | 13-268-13a 13-268-13b |
न सत्यार्जवधर्मस्य तुल्यमन्यच्च विद्यते। बहुला नाम गौस्तेन गतिमग्र्यां गता किल।। | 13-268-14a 13-268-14b |
मुनिशापाद्द्विजः कश्चिद्व्याघ्रतां समुपागतः। बहुलां भक्षणरुचिरास्वाद्य शपथेन तु।। | 13-268-15a 13-268-15b |
विमुच्य पीतवत्सां तां दृष्ट्वा स्मृत्वा पुरातनम्। जगाम लोकानमलान्सा स्वराष्ट्रं तथा पुनः।। | 13-268-16a 13-268-16b |
तस्मात्सत्यार्जवरतो राजन्राष्ट्रं समानवम्। तारयित्वा सुखं स्वर्गं गन्तासि भरतर्षभ।। | 13-268-17a 13-268-17b |
तथा शरणकामानां गोप्ता स्यात्स्वागतप्रदः।। सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं देवनिर्मितम्। | 13-268-18a 13-268-18b |
नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासविधिर्हि सः।। होमकाले यथा वह्निः काले होमं प्रतीक्षते। | 13-268-19a 13-268-19b |
ऋतुकाले तथाऽऽधानं पितरश्च प्रतीक्षते। नान्यदा गच्छते यस्तु ब्रह्मचर्यं च तत्स्मृतम्।। | 13-268-20a 13-268-20b |
अमृतं ब्राह्मणा गाव इत्येतत्त्रयमेकतः। तस्मादोब्राह्मणान्नित्यमर्चयेत यथाविधि।। | 13-268-21a 13-268-21b |
यजुषां संस्कृतं मांसमुपभुञ्जत दुष्यति। पृष्ठमांसं वृथामांसं पुत्रमांसं च तत्समम्।। | 13-268-22a 13-268-22b |
स्वदेशे परदेशे वाऽप्यतिथिं नोपवासयेत्। कर्म वै सफलं कृत्वा गुरुणां प्रतिपादयेत्।। | 13-268-23a 13-268-23b |
गुरुभ्यस्त्वासनं देयमभिवाद्याभिपूज्य च। गुरुमभ्यर्च्य वर्धन्ते आयुषा यशसा श्रिया।। | 13-268-24a 13-268-24b |
वृद्धान्नाभिभवेज्जातु न चैतान्प्रेषयेदिति। नासीनः स्यात्स्थितेष्वेवमायुरस्य न रिष्यते।। | 13-268-25a 13-268-25b |
न नग्रामीक्षते नारीं न नग्रान्पुरुषानपि। मैथुनं सततं गुप्तं तपश्चैव समाचरेत्।। | 13-268-26a 13-268-26b |
तीर्थानां गुरवस्तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचि। दर्शनानां परं ज्ञानं सन्तोषः परमं सुखम्।। | 13-268-27a 13-268-27b |
सायं प्रातश्च वृद्धानां शृणुयात्पुष्कला गिरः। श्रुतमाप्नोति हि नरः सततं वृद्धसेवया।। | 13-268-28a 13-268-28b |
स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत्। यच्छेद्वाङ्मनसी नित्यमिन्द्रियाणि तथैव च।। | 13-268-29a 13-268-29b |
संस्कृतं पायसं नित्यं यावकं कृसरं हविः। अष्टकाः पितृदैवत्या ग्रहाणामभिपूजनम्।। | 13-268-30a 13-268-30b |
श्मश्रुकर्मणि मङ्गल्यं क्षुतानामभिनन्दनम्। व्याधितानां च सर्वेषामायुषामभिनन्दनम्।। | 13-268-31a 13-268-31b |
न जातु त्वमिति ब्रूयादापन्नोपि महृत्तरम्। त्वंकारो वा वधो वेति विद्वत्सु न विशिष्यते। अवराणां समानानां शिष्याणां च समाचरेत्।। | 13-268-32a 13-268-32b 13-268-32c |
पापमाचरते नित्यं हृदयं पापकर्मणाम्। ज्ञानपूर्वकृतं कर्म च्छादयन्ते ह्यसाधवः।। | 13-268-33a 13-268-33b |
ज्ञानपूर्वं विनश्यन्ति गूहमाना महाजने। न मां मनुष्याः पश्यन्ति न मां पश्यन्ति देवताः।। | 13-268-34a 13-268-34b |
पापेनाभिहितः पापः पापमेवाभिजायते।। | 13-268-35a |
यथा वार्धुषिको वृद्धिं दिनभेदे प्रतीक्षते। धर्मेण पिहितं पापं धर्ममेवाभिवर्धयेत्।। | 13-268-36a 13-268-36b |
यथा लवणमम्भोभिराप्लुतं प्रविलीयते। प्रायश्चित्तहतं पापं तथा सद्यः प्रणश्यति।। | 13-268-37a 13-268-37b |
तस्मात्पापं न गूहेत गूहमानं विवर्धते। कृत्वा तु सादुष्वाख्यायाधर्मं प्रशमयन्त्युत।। | 13-268-38a 13-268-38b |
आशया सञ्चितं द्रव्यं स्वकाले नोपभुज्यते। अन्ये चैतत्प्रद्यन्ते वियोगे तस्य देहिनः।। | 13-268-39a 13-268-39b |
`तद्धर्मसाधनं नित्यं सङ्कल्पाद्धनमार्जयेत्।' मननं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः। | 13-268-40a 13-268-40b |
तस्मात्सर्वाणि भूतानि धर्ममेव समासते।। एक एव चरेद्धर्मं न धर्मध्वजिको भवेत्। | 13-268-41a 13-268-41b |
धर्मवाणिजका ह्येते ये धर्ममुपभुञ्जते।। अर्चेद्देवानदम्भेन सेवेताऽमायया गुरून्। | 13-268-42a 13-268-42b |
धनं निदध्यात्पात्रेषु परत्रार्थं समावृतम्।। | 13-268-43a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 268 ।। |
13-268-7 कीदृशाः किलक्षणाः।। 13-268-9 सर्गं उत्सर्गम्।। 13-268-10 पञ्चनां देवपितृभूतातिथिकुटुम्बानाम्।। 13-268-20 ऋतुकाले तथा नारी ऋतुमेव प्रतीक्षते इति झ.पाठः। नचान्यां गच्छते यस्तु ब्रह्मचर्यं च तस्य तत् इति क.ट.थ. पाठः।। 13-268-23 कर्म अध्ययनम्। प्रतिपादयेत् दक्षिणामिति शेषः।। 13-268-25 वृद्धान्नातिवदेज्वात्विति क.ट.थ.पाठः।। 13-268-29 दक्षिणं पाणिं उद्धरेत् यज्ञोपवीती भवेत्।। 13-268-31 मङ्गत्यं मङ्गलवचनम्। अभिनन्दनं शतं जीवेति वचनेन सुखोत्पादनं च। कुर्यादिति शेषः।। 13-268-32 त्वंकारो वा वदस्वेतीति क.ट.थ.पाठः।। 13-268-41 धर्मध्वजिकस्तत्प्रकाशकः।।
अनुशासनपर्व-267 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-269 |