महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-051
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उत्तरदिगभिमानिदेवतया परदारत्वशङ्कया स्वभोगमनङ्गीकुर्वाणमष्टावक्रम्प्रति जरतीरूपत्यागेन कन्यारूपस्वीकरणपूर्वकं स्वपाणिग्रहणप्रार्थना।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-51-1x |
अथ सा स्त्री तमुवाच विप्रमेवं भवत्विति। तैलं दिव्यमुपादाय स्नानशाटीमुपानयत्।। | 13-51-1a 13-51-1b |
अनुज्ञाता च मुनिना सा स्त्री तेन महात्मना। अथास्य तैलेनाङ्गानि सर्वाण्येवाभ्यमृक्षत।। | 13-51-2a 13-51-2b |
शनैश्चाच्छादितस्तत्र स्नानशालामुपागमत्। भद्रासनं ततश्चित्रमृषिरन्वगमन्नवम्।। | 13-51-3a 13-51-3b |
अथोपविष्टश्च यदा तस्मिन्भद्रासने तदा। स्नापयामास शनकैस्तमृषिं सुखहस्तवत्। दिव्यं च विधिवच्चक्रे सोपचारं मुनेस्तदा।। | 13-51-4a 13-51-4b 13-51-4c |
जलेन सुसुखोष्णेन तस्या हस्तसुखेन च। व्यतीतां रजनीं कृत्स्नां नाजानात्स महाव्रतः।। | 13-51-5a 13-51-5b |
तत उत्थाय स मुनिस्तदा परमविस्मितः। पूर्वस्यां दिशि सूर्यं च सोऽपश्यदुदितं दिवि।। | 13-51-6a 13-51-6b |
`सन्ध्योपासनमित्येव सर्वपापहरं न मे।' तस्य बुद्धिरियं किन्तु मोहस्तत्त्वमिदं भवेत्।। | 13-51-7a 13-51-7b |
अथोपास्य सहस्रांशुं किं कोरमीत्युवाच ताम्। सा चामृतरसप्रख्यं क्रषेरन्नमुपाहरत्।। | 13-51-8a 13-51-8b |
तस्य स्वादुतयाऽन्नस्य न प्रभूतं चकार सः। व्यगमच्चाप्यहःशेष ततः सन्ध्याऽऽगमत्पुनः।। | 13-51-9a 13-51-9b |
अथ सा स्त्री भगवन्तं सुप्यतामित्यचोदयत्। तत्र वै शयने दिव्ये तस्य तस्याश्च कल्पिते।। | 13-51-10a 13-51-10b |
[पृथक्र्वैव तथा सुप्तौ सा स्त्री स च मुनिस्तदा। तथाऽर्थरात्रे सा स्त्री तु शयनं तदुपागमत्।।] | 13-51-11a 13-51-11b |
अष्टावक्र उवाच। | 13-51-12x |
न भद्रे परदारेषु मनो मे सम्प्रसज्जति। उत्तिष्ठ भद्रे भद्रं ते स्वापं वै विरमस्व च।। | 13-51-12a 13-51-12b |
भीष्म उवाच। | 13-51-13x |
सा तदा तेन विप्रेण तथा धृत्या निवर्तिता। स्वतन्त्राऽस्मीत्युवाचर्षिं न धर्मच्छलमस्ति ते।। | 13-51-13a 13-51-13b |
अष्टावक्र उवाच। | 13-51-14x |
नास्ति स्वतन्त्रता स्त्रीणामस्वतन्त्रा हि योषितः। प्रजापतिमतं ह्येतन्न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।। | 13-51-14a 13-51-14b |
स्त्र्युवाच। | 13-51-15x |
बाधने मैथुनं विप्र मम भक्तिं च पश्य वै। अधर्मं प्राप्स्यसे विप्र यन्मां त्वं नाभिनन्दसि।। | 13-51-15a 13-51-15b |
अष्टावक्र उवाच। | 13-51-16x |
हरन्ति दोषजातानि नरमिन्द्रियकिङ्करम्। प्रभवामि सदा धृत्या भद्रे स्वशयनं व्रज।। | 13-51-16a 13-51-16b |
स्त्र्युवाच। | 13-51-17x |
शिरसा प्रणमे विप्र प्रसादं कर्तुमर्हसि। भूमौ निपतमानायाः शरणं भव मेऽनघ।। | 13-51-17a 13-51-17b |
यदि वा दोषजातं त्वं परदारेषु पश्यसि। आत्मानं स्पर्शयाम्यद्य पाणिं गृह्णीष्व मे द्विज।। | 13-51-18a 13-51-18b |
न दोषो भविता चैव सत्येनैतद्ब्रवीम्यहम्। स्वतन्त्रां मां विजानीहि यो धर्मः सोस्तु वै मयि। त्वय्यावेशितचित्ता च स्वतन्त्राऽस्मि भजस्व माम्।। | 13-51-19a 13-51-19b 13-51-19c |
अष्टावक्र उवाच। | 13-51-20x |
स्वतन्त्रा त्वं कथं भद्रे ब्रूहि कारणमत्र वै। नास्ति त्रिलोके स्त्री काचिद्या वै स्वातन्त्र्यमर्हति।। | 13-51-20a 13-51-20b |
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। पुत्रस्तु स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति। `न वृद्धामक्षतां मन्ये च चेच्छा त्वयि मेऽनघे' | 13-51-21a 13-51-21b 13-51-21c |
स्त्र्युवाच। | 13-51-22x |
कौमारं ब्रह्मचर्यं मे कन्यैवास्मि न संशयः। पत्नीं कुरुष्व मां विप्र श्रद्धां विजहि मा मम।। | 13-51-22a 13-51-22b |
अष्टावक्र उवाच। | 13-51-23x |
यथा मम तथा तुभ्यं यथा तुभ्यं तथा मम। जिज्ञासेयमृषेस्तस्य विघ्नः सत्यं नु किं भवेत्।। | 13-51-23a 13-51-23b |
आश्चर्यं परमं हीदं किन्नु श्रेयो हि मे भवेत्। दिव्याभरणवस्त्रा हि कन्येयं मामुपस्थिता।। | 13-51-24a 13-51-24b |
किं त्वस्याः परमं रूपं जीर्णमासीत्कथं पुनः। कन्यारूपमिहाद्यैवं किमिवात्रोत्तरं भवेत्।। | 13-51-25a 13-51-25b |
यथा मे परमा शक्तिर्न व्युत्थाने कथंचन। न रोचते हि व्युत्थानं सत्येनासादयाम्यहम्।। | 13-51-26a 13-51-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकपञ्चाशोऽध्यायः।। 51 ।। |
13-51-2 अभ्यमृक्षति अभ्यञ्जितवती।। 13-51-3 शनैश्चोत्सादित इति ड.झ. पाठः। तत्र उत्सादितः चालितः।। 13-51-5 नाजानात् न ज्ञातवान्।। 13-51-9 न प्रभूतं चकार पूर्णमिति नाभ्यवददित्यर्थः।। 13-51-12 स्वयं वै विरमस्व चेति झ.पाठः।। 13-51-13 स्वातन्त्र्यान्मम। न तव पारदार्यदोषोऽस्तीत्यर्थः।। धर्मच्छलं परपुरुषप्रलोभनम्। नाधर्मफलमस्ति त इति ध. पाठः।। 13-51-14 नास्तीति अप्रदत्ता त्वां न कामये इत्यर्थः।। 13-51-18 स्पर्शयामि ददामि।। 13-51-19 स्वतन्त्रामात्मप्रदानं इति शेषः। यो धर्मः पाणिग्रहणादिसंस्कारो मयि मन्निमित्तं सोस्तु।। 13-51-22 विजहि मा मा नाशय।। 13-51-23 तुभ्यं तव। सङ्गमश्रद्धेत्युभयत्र शेषः। किं तस्य मया कन्यार्थिना प्रार्तितस्य तत्कर्तृका इयं जिज्ञासा मम परीक्षा किमयं साधुरसाधुर्वेति।। 13-51-24 विघ्रत्वमेवाह आश्चर्यमिति। पूर्वमतिजीर्णत्वेन दृष्टा पुनः कन्येव दृश्यत इति मायारूपमाश्चर्यम्।। 13-51-25 अत्रास्मिन्विषये किमुत्तरं श्रेष्ठतरम्। पर्वपरिगृहीतस्यात्यागः उत एतस्याः स्वीकारः कर्तव्य इति भावः।। 13-51-26 न व्युत्थास्येऽस्याः स्वीकारं न करिष्ये। व्युत्थानं धर्मातिक्रमो मम न रोचते किन्तु सत्येनासादयाम्बहं दारानिति शेषः। धृत्यैनां साधयाम्यहमिति ध.पाठः।।
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