महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-030
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति ब्राह्मणाय प्रतिश्रुतार्थाप्रदानस्यानर्थहेतुतायां दृष्टान्ततया सृगालवानरसंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-30-1x |
ब्राह्मणानां तु ये लोके प्रतिश्रुत्य पितामह। न प्रयच्छन्ति लोभात्ते के भवन्ति महामते।। | 13-30-1a 13-30-1b |
एतन्मे तत्वतो ब्रूहि धर्मे धर्मभृतांवर। प्रतिश्रुत्य दुरात्मानो न प्रयच्छन्ति ये नराः।। | 13-30-2a 13-30-2b |
भीष्म उवाच। | 13-30-3x |
यो न दद्यात्प्रतिश्रुत्य स्वल्पं वा यदि वा बहु। आशास्तस्य हताः सर्वाः क्लीबस्येव प्रजाफलम्।। | 13-30-3a 13-30-3b |
यां रात्रिं जायते पापो यां च रात्रिं विनश्यति। एतस्मिन्नन्तरे यद्यत्सुकृतं तस्य भारत।। | 13-30-4a 13-30-4b |
यच्च तस्य हुतं किञ्चिद्दत्तं वा भरतर्षभ। तपस्तप्तमथो वाऽपि सर्वं तस्योपहन्यते।। | 13-30-5a 13-30-5b |
अथैतद्वचनं प्राहुर्धर्मशास्त्रविदो जनाः। निशास्य भरतश्रेष्ठ बुद्ध्या परमयुक्तया।। | 13-30-6a 13-30-6b |
अपि चोदाहरन्तीमं धर्मशास्त्रविदो जनाः। अश्वानां श्यामकर्णानां सहस्रेण स मुच्यते।। | 13-30-7a 13-30-7b |
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। सृगालस्य च संवादं वानरस्य च भारत।। | 13-30-8a 13-30-8b |
तौ सखायौ पुरा ह्यास्तां मानुषत्वे परंतप। अन्यां योनिं समापन्नौ सृगालीं वानरीं तथा। सम्भाषणात्ततः सख्यं तत्रतत्र परस्परम्।। | 13-30-9a 13-30-9b 13-30-9c |
ततः परासून्खादन्तं सृगालं वानरोऽब्रवीत्। श्मशानमध्ये सम्प्रेक्ष्य पूर्वजातिमनुस्मरन्।। | 13-30-10a 13-30-10b |
किं त्वया पापकं पूर्वं कृतं कर्म सुदारुणम्। यस्त्वं श्मशाने मृतकान्पूतिकानत्सि कुत्सितान्।। | 13-30-11a 13-30-11b |
एवमुक्तः प्रत्युवाच सृगालो वानरं तदा। ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुत्य न मया तदुपाहृतम्।। | 13-30-12a 13-30-12b |
तत्कृते पापिकां योनिमापन्नोस्मि प्लवङ्गम। तस्मादेवंविधं भक्ष्यं भक्षयामि बुभुक्षितः।। | 13-30-13a 13-30-13b |
भीष्म उवाच। | 13-30-14x |
सृगालो वानरं प्राह पुनरेव नरोत्तम। किं त्वया पातकं कर्म कृतं येनासि वानरः।। | 13-30-14a 13-30-14b |
वानर उवाच। | 13-30-15x |
स चाप्याह फलाहारो ब्राह्मणानां प्लवङ्गमः। तस्मान्न ब्राह्मणस्वं तु हर्त्तव्यं विदुषा सदा। सीमाविवादे मोक्तव्यं दातव्यं च प्रतिश्रुतम्।। | 13-30-15a 13-30-15b 13-30-15c |
भीष्म उवाच। | 13-30-16x |
इत्येतद्ब्रुवतो राजन्ब्राह्मणस्य मया श्रुतम्। कथां कथयतः पुण्यां धर्मज्ञस्य पुरातनीम्।। | 13-30-16a 13-30-16b |
श्रुतं चापि मया भूयः कृष्णस्यापि विशांपते। कथां कथयतः पूर्वं ब्राह्मणं प्रति पाण्डव।। | 13-30-17a 13-30-17b |
न हर्तव्यं विप्रधनं क्षन्तव्यं तेषु नित्यशः। बालाश्च नावमन्तव्या दरिद्राः कृपणा अपि।। | 13-30-18a 13-30-18b |
एवमेव च मां नित्यं ब्राह्मणाः संदिशन्ति वै। प्रतिश्रुतं भवेद्देयं नाशा कार्या द्विजोत्तमे।। | 13-30-19a 13-30-19b |
ब्राह्मणो ह्याशया पूर्वं कृतया पृथिवीपते। सुसमिद्धो यता दीप्तः पावकस्तद्विधः स्मृतः।। | 13-30-20a 13-30-20b |
यं निरीक्षेत सङ्क्रुद्ध आशया पूर्वजातया। प्रदहेच्च हितं राजन्कक्षमक्षय्यभुग्यथा।। | 13-30-21a 13-30-21b |
स एव हि यदा तुष्टो वचसा प्रतिनन्दति। भवत्यगदसंकाशो विषये तस्य भारत।। | 13-30-22a 13-30-22b |
पुत्रान्पौत्रान्पशूंश्चैव बान्धवान्सचिवांस्तथा। पुरं जनपदं चैव शान्तिरिष्टेन पोषयेत्।। | 13-30-23a 13-30-23b |
एतद्धि परमं तेजो ब्राह्मणस्येह दृश्यते। सहस्रकिरणस्येव सवितुर्धरणीतले।। | 13-30-24a 13-30-24b |
तस्माद्दातव्यमेवेह प्रतिश्रुत्य युधिष्ठिर। यदीच्छेच्छोभनां जातिं प्राप्तुं भरतसत्तम।। | 13-30-25a 13-30-25b |
ब्राह्मणस्य हि दत्तेन ध्रुवं स्वर्गो ह्यनुत्तमः। शक्यः प्राप्तुं विशेषेण दानं हि महती क्रिया।। | 13-30-26a 13-30-26b |
इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्था। तस्माद्दानानि देयानि ब्राह्मणेभ्यो विजानता।। | 13-30-27a 13-30-27b |
महद्धि भरतश्रेष्ठ ब्राह्मणस्तीर्थमुच्यते। वेलायां न तु कस्यां चिद्गच्छेद्विप्रो ह्यपूजितः।। | 13-30-28a 13-30-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।। |
13-30-6 निशाम्य विचार्य।। 13-30-10 ततः पुरा सखायं तं सृगालमिति थ.ध.पाठः।। 13-30-16 ब्रुवतोऽध्यापकस्य कथां कथयतो मुखात् श्रुतम्।। 13-30-17 कृष्णस्य व्यासस्य। नृगकथां कथयतो वासुदेवस्य वा मुखात्।। 13-30-19 आशा वन्ध्याशा।। 13-30-21 अक्षय्यं पित्रर्थमुद्दिष्टं दानं भुङ्क्ते इत्यक्षय्यभुगग्निः।। 13-30-22 अगदसंकाशः चिकित्सकतुल्यः।। 13-30-23 शान्तिरिष्टेन शान्त्याहितेन क्षेमेण।। 13-30-30 त्रिंशोऽध्यायः।।
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