महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-028
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गरुडेन नवनीतप्रक्षेपेण मन्दीभूताभ्युल्लङ्घनपूर्वकममृतरक्षिणां पक्षप्रहारेण निराकरणम्।। 1 ।। तथाऽमृतमाहृत्य विमति समुत्पतनम्।। 2 ।। तथा स्वस्योपरि इन्द्रेण वज्रे विसृष्टे तत्सन्माननायैकतनूरुहविस्रंसनम्।। 3 ।।
`भीष्म उवाच। | 13-28-1x |
पितामहवचः श्रुत्वा गरुडः पततांवरः। जगाम गोकुलं किञ्चिन्नवनीतजिहीर्षया।। | 13-28-1a 13-28-1b |
नवनीतं तथाऽपश्यन्मथितं कलशे स्थितम्। तदादाय ततोऽगच्छद्यतस्तद्रक्ष्यतेऽमृतम्।। | 13-28-2a 13-28-2b |
स तत्र गत्वा पतगस्तिर्यक्तोयं महाबलः। हुताशनमपक्रम्य नवनीतमपातयत्।। | 13-28-3a 13-28-3b |
सो र्चिष्मान्मन्दवेगोऽभूत्सर्पिषा तेन तर्पितः। धूमकेतुर्न जज्वाल धूममेव ससर्ज ह।। | 13-28-4a 13-28-4b |
तमतीत्याशु गरुडो हृष्टात्मा जातवेदसम्। रक्षांसि समतिक्रामत्पक्षवातेन पातयन्।। | 13-28-5a 13-28-5b |
ते पतन्ति शिरोभिस्च जानुभिश्चरणैस्तथा। उत्सृज्य शस्त्रावरणं पक्षिपक्षसमाहताः।। | 13-28-6a 13-28-6b |
उत्प्लुत्य चावृतान्नागान्हत्वा चक्रं व्यतीत्य च। अरान्तरेण शिरसा भित्त्वा जालं समाद्रवत्।। | 13-28-7a 13-28-7b |
स भित्त्वा शिरसा जालं वज्रवेगसमो बली। उज्जहार ततः शीघ्रममृतं भुजगाशनः।। | 13-28-8a 13-28-8b |
तदादायाद्रवच्छीघ्रं गरुडः श्वसनो यथा। अथ सन्नाहमकरोद्वृत्रहा विबुधैः सह।। | 13-28-9a 13-28-9b |
ततो मातलिसंयुक्तं हरिभिः स्वर्णमालिभिः। आरुरोह रथं शीघ्रं सूर्याग्निसमतेजसम्।। | 13-28-10a 13-28-10b |
सोऽभ्यद्रवत्पक्षिराजं वृत्रहा पाकशासनः। उद्यम्य निशितं वज्रं वज्रहस्तो महाबलः।। | 13-28-11a 13-28-11b |
तथैव गरुडो राजन्वज्रहस्तं समाद्रवत्। ततो वै मातलिं प्राह शीघ्रं वाहय वाजिनः।। | 13-28-12a 13-28-12b |
अथ दिव्यं महाघोरं गरुडाय ससर्ज ह। वज्रं सहस्रनयनस्तिग्मवेगपराक्रमः।। | 13-28-13a 13-28-13b |
उत्सिसृक्षन्तमाज्ञाय वज्रं वै त्रिदशेश्वरम्। तूर्णं वेगपरो भूत्वा जगाम पततांवरः।। | 13-28-14a 13-28-14b |
पितामहनिसर्गेण ज्ञात्वा लब्धवरः खगः। आयुधानां वरं वज्रमथ शक्रमुवाच ह।। | 13-28-15a 13-28-15b |
वृत्रहन्नेष वज्रस्ते वरो लब्धः पितामहात्। अतः सम्मानमाकाङ्क्षन्मुञ्चाम्येकं तनूरुहम्।। | 13-28-16a 13-28-16b |
एतेनायुधराजेन यदि शक्तोसि वृत्रहन्। हन्यास्त्वं परया शक्तया गच्छाम्यहमनामयः।। | 13-28-17a 13-28-17b |
तत्तु तूर्णं तदा वज्रं स्वेन वेगेन भारत। जघान परया शक्त्या न चैनमदहद्भृशम्।। | 13-28-18a 13-28-18b |
ततो देवर्षयो राजन्गच्छन्तो वै विहायसा। दृष्ट्वा वज्रं विवक्तं तं पक्षइपर्णेऽब्रुवन्वचः।। | 13-28-19a 13-28-19b |
सुपर्णः पक्षिगरुडो यस्य पर्णे वरायुधम्। विषक्तं देवराजस्य वृत्रहन्तुः सनातनम्।। | 13-28-20a 13-28-20b |
एवं सुपर्णो विहगो वैनतेयः प्रतापवान्। ऋषयस्तं विजानन्ति चाग्नेयं वैष्णवं पुनः।। | 13-28-21a 13-28-21b |
वेदाभिष्टुतमत्यर्थं स्वर्गमार्गफलप्रदम्। तनुपर्णं सुपर्णस्य जगृहुर्बर्हिणस्तथा।। | 13-28-22a 13-28-22b |
मयूराविस्मिताः सर्वे आद्रवन्ति स्म वज्रिणम्।।' | 13-28-23a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः।। 28 ।। |
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