महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-163
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भीष्मेणि युधिष्ठिरंप्रति पक्षमासोपवासफलप्रतिपादकाङ्गिरोवचनानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-163-1x |
सर्वेषामेव वर्णानां म्लेच्छानां च पितामह। उपवासे मतिरियं कारणं च न विद्महे।। | 13-163-1a 13-163-1b |
ब्रह्मक्षत्रेण नियमाः कर्तव्या इति नः श्रुतम्। उपवासे कथं तेषां कृतमस्ति पितामह। | 13-163-2a 13-163-2b |
नियमांश्चोपवासांश्च सर्वेषां ब्रूहि पार्थिव। आप्नोति कां गतिं तात उपवासपरायणः।। | 13-163-3a 13-163-3b |
उपवासः परं पुण्यं पवित्रमपि चोत्तमम्।। उपोष्येह नरश्रेष्ठ किं फलं प्रतिपद्यते।। | 13-163-4a 13-163-4b |
अधर्मान्मुच्यते केन धर्ममाप्नोति वा कथम्। स्वर्गं पुण्यं च लभते कथं भरतसत्तम।। | 13-163-5a 13-163-5b |
उपोष्य चापि किं तेन प्रयोज्यं स्यान्नराधिप। धर्मेण च सुखानर्थाँल्लभेद्येन ब्रवीहि मे।। | 13-163-6a 13-163-6b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-163-7x |
एवं ब्रुवाणं कौन्तेयं धर्मज्ञं धर्मतत्त्ववित्। धर्मपुत्रमिदं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत्।। | 13-163-7a 13-163-7b |
इदं खलु महाराज श्रुतमासीत्पुरातनम्। उपावासविधौ श्रेष्ठा गुणा ये भरतर्षभ।। | 13-163-8a 13-163-8b |
प्राजापत्यमाङ्गिरसं पृष्टवानस्मि भारत। यथा मां त्वं तथैवाहं पृष्टवांस्तं तपोधनम्।। | 13-163-9a 13-163-9b |
प्रश्नमेतं मया पृष्टो भगवानग्निसम्भवः। उपवासविधिं पुण्यमाचष्ट भरतर्षभ।। | 13-163-10a 13-163-10b |
अङ्गिरा उवाच। | 13-163-11x |
ब्रह्मक्षत्रे त्रिरात्रं तु विहितं कुरुनन्दन। द्विस्त्रिरात्रमथैकाहं निर्दिष्टं पुरुषर्षभ।। | 13-163-11a 13-163-11b |
वैश्याः शूद्राश्च यन्मोहादुपवासं प्रकुर्वते। त्रिरात्रं वा द्विराइत्रं वा तयोर्व्युष्टिर्न विद्यते।। | 13-163-12a 13-163-12b |
चतुर्थभक्तक्षपणं वैश्ये शूद्रे विधीयते। त्रिरात्रं न तु धर्मज्ञैर्विहितं ब्रह्मवादिभिः।। | 13-163-13a 13-163-13b |
पञ्चम्यां वाऽपि षष्ठ्यां च पौर्णमास्यां च भारत। उपोष्य एकभक्तेन नियतात्मा जितेन्द्रियः।। | 13-163-14a 13-163-14b |
क्षमावान्रूपसम्पन्नः सुरभिश्चैव जायते। नानपत्यो भवेत्प्राज्ञो दरिद्रो वा कदाचन।। | 13-163-15a 13-163-15b |
यजिष्णुः पञ्चमीं षष्ठीं कुले भोजयते द्विजान्। अष्टमीमथ कौरव्य कृष्णपक्षे चतुर्दशीम्। उपोष्य व्याधिरहितो वीर्यवानभिजायते।। | 13-163-16a 13-163-16b 13-163-16c |
मार्गशीर्षं तु वै मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। भोजयेच्च द्विजाञ्शक्त्या स मुच्येद्व्याधिकिल्बिषैः।। | 13-163-17a 13-163-17b |
सर्वकल्याणसम्पूर्णः सर्वौषधिसमन्वितः। कृषिभागी बहुधनो बहुधान्यश्च जायते।। | 13-163-18a 13-163-18b |
पौषमासं तु कौन्तेय भक्तेनैकेन यः क्षिपेत्। सुभगो दर्शनीयश्च यशोभागी च जायते।। | 13-163-19a 13-163-19b |
पितृभक्तो माघमासं यः क्षिपेदेकभोजनः। श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये सुभगत्वं प्रपद्यते।। | 13-163-20a 13-163-20b |
भगदैवतमासं तु एकभक्तेन यः क्षिपेत्। `सुभगो दर्शनीयश्च यशोभागी च जायते। स्त्रीषु वल्लभतां याति वश्याश्चास्य भवन्ति ताः।। | 13-163-21a 13-163-21b 13-163-21c |
चैत्रं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। सुवर्णमणिमुक्ताढ्ये कुले महति जायते।। | 13-163-22a 13-163-22b |
निस्तरेदेकभक्तेन वैशाखं यो जितेन्द्रियः। नरो वा यदि वा नरी ज्ञातीनां श्रेष्ठतां व्रजेत्।। | 13-163-23a 13-163-23b |
ज्येष्ठामूलं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षिपेत्। ऐश्वर्यमतुलं श्रेष्ठं पुमान्स्त्री वा प्रपद्यते।। | 13-163-24a 13-163-24b |
आषाढमेकभक्तेन स्थित्वा मासमतन्द्रितः। बहुधान्यो बहुधनो बहुपुत्रश्च जायते।। | 13-163-25a 13-163-25b |
श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। रूपद्रविणसम्पन्नः सुखी भवति नित्यशः। बहुभार्यो बहुधनो बहुपुत्रश्चि जायते।। | 13-163-26a 13-163-26b 13-163-26c |
प्रौष्ठपादं तु यो मासमेकाहारो भवेन्नरः। गवाढ्यं स्फीतमचलमैश्वर्यं प्रतिपद्यते।। | 13-163-27a 13-163-27b |
तथैवाश्वयुजं मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। प्रज्ञावान्वाहनाढ्यश्च बहुपुत्रश्च जायते।। | 13-163-28a 13-163-28b |
कार्तिकं तु नरो मासं यः कुर्यादेकभोजनम्। शूरश्च बहुभार्यश्च कीर्तिमांश्चैव जायते।। | 13-163-29a 13-163-29b |
इति मासा नरव्याघ्र क्षिपतां परिकीर्तिताः। तिथीनां नियमा ये तु शृणु तानपि पार्थिव।। | 13-163-30a 13-163-30b |
पक्षेपक्षे गते यस्तु भक्तमश्नाति भारत। गवाढ्यो बहुपुत्रश्च दीर्घायुश्च स जायते।। | 13-163-31a 13-163-31b |
मासिमासि त्रिरात्राणि कृत्वा वर्षाणि द्वादश। गणाधिपत्यं प्राप्नोति निःसपत्नमनाविलम्।। | 13-163-32a 13-163-32b |
एते तु नियमाः सर्वे कर्तव्याः शरदो दश। द्वे चान्ये भरतश्रेष्ठ प्रवृत्तिरनुकीर्तिता।। | 13-163-33a 13-163-33b |
यस्तु प्रातस्तथा सायं भुञ्जानो नान्तरा पिबेत्। अहिंसानिरतो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम्।। | 13-163-34a 13-163-34b |
षड्भिः स वर्षैर्नृपते सिध्यते नाइत्र संशयः। अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।। | 13-163-35a 13-163-35b |
अधिवासे सोप्सरसां नृत्यगीतविनादिते। रमते स्त्रीसहस्राढ्ये सुकुती विरजा नरः।। | 13-163-36a 13-163-36b |
तप्तकाञ्चनवर्णाभं विमानमधिरोहति। पूर्णं वर्षसहस्रं च ब्रह्मिलोके महीयते। तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते।। | 13-163-37a 13-163-37b 13-163-37c |
यस्तु संवत्सरं पूर्णमेकाहारो भवेन्नरः। अतिरात्रस्य यज्ञस्य स फलं समुपाश्नुते।। | 13-163-38a 13-163-38b |
त्रिंशद्वर्षसहस्राणि स्वर्गे च स महीयते। तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते।। | 13-163-39a 13-163-39b |
यस्तु संवत्सरं पूर्णं चतुर्थं भक्तमश्नुते। अहिंसानिरतो नित्यं सत्यवाग्विजितेन्द्रियः।। | 13-163-40a 13-163-40b |
वाजपेयस्य यज्ञस्य स फलं समुपाश्नुते। त्रिंशद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते।। | 13-163-41a 13-163-41b |
षष्ठे काले तु कौन्तेय नरः संवत्सरं क्षिपन्। अश्वमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।। | 13-163-42a 13-163-42b |
चक्रवाकप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति। चत्वारिंशत्सहस्राणि वर्षाणि दिवि मोदते।। | 13-163-43a 13-163-43b |
अष्टमेन तु भक्तेन जीवन्संवत्सरं नृप। गवामयनयज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।। | 13-163-44a 13-163-44b |
हंससारसयुक्तेन विमानेन स गच्छति। पञ्चाशतं सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते।। | 13-163-45a 13-163-45b |
पक्षेपक्षे गते राजन्योऽश्नीयाद्वर्षमेव तु। षण्मासानशनं तस्य भगवानङ्गिराऽब्रवीत्। षष्टिं वर्षसहस्राणि दिवमावसते च सः।। | 13-163-46a 13-163-46b 13-163-46c |
विणानां वल्लकीनां च वेणूनां च विशाम्पते। सुघोषैर्मधुरैः शब्दैः सुप्तः स प्रतिबोध्यते।। | 13-163-47a 13-163-47b |
संवत्सरमिहैकं तु मासिमासि पिबेदपः। फलं विश्वजितस्तात प्राप्नोति स नरो नृप।। | 13-163-48a 13-163-48b |
सिंहव्याघ्रप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति। सप्ततिं च सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते।। | 13-163-49a 13-163-49b |
मासादूर्ध्वं नरव्याघ्र नोपवासो विधीयते। विधिं त्वनशनस्याहुः पार्थ धर्मविदो जनाः।। | 13-163-50a 13-163-50b |
अनार्तो व्याधिरहितो गच्छेदनशनं तु यः। पदेपदे यज्ञफलं स प्राप्नोति न संशयः।। | 13-163-51a 13-163-51b |
दिवं हंसप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति। शतं वर्षसहस्राणां मोदते स दिवि प्रभो।। | 13-163-52a 13-163-52b |
शतं चाप्सरसः कन्या रमयन्त्यपि तं नरम्। आर्तो वा व्याधितो वाऽपि गच्छेदनशनं तु यः।। | 13-163-53a 13-163-53b |
शतं वर्षसहस्राणां मोदते स दिवि प्रभो। काञ्चीनूपुरशब्देन सुप्तश्चैव प्रबोध्यते।। | 13-163-54a 13-163-54b |
सहस्रहंसयुक्तेन विमानेन तु गच्छति। स गत्वा स्त्रीशताकीर्णे रमते भरतर्षभ।। | 13-163-55a 13-163-55b |
क्षीणस्याप्यायनं दृष्टं क्षतस्य क्षतरोहणम्। व्याधितस्यौषधग्रामः क्रुद्धस्य च प्रसादनम्।। | 13-163-56a 13-163-56b |
दुःखितस्यार्तपूर्वस्य द्रव्याणां प्रतिपादनम्। न चैतद्रोचते तेषां ये धनैः सुखमेधिताः।। | 13-163-57a 13-163-57b |
अतः स कामसंयुक्ते विमाने हेमसन्निभे। रमते स्त्रीशताकीर्णे पुरुषोऽलङ्कृतः शुचिः।। | 13-163-58a 13-163-58b |
स्वस्थः सफलसङ्कल्पः सुखी विगतकल्मषः। अनश्नन्देहमुत्सृज्य फलं प्राप्नोति मानवः।। | 13-163-59a 13-163-59b |
बालसूर्यप्रतीकाशे विमाने सोमवर्चसि। वैदूर्यमुक्ताखचिते वीणामुरजनादिते।। | 13-163-60a 13-163-60b |
पताकादीपिकाकीर्णे दिव्यघण्टानिनादिते। स्त्रीसहस्रानुचरिते स नरः सुखमेधते।। | 13-163-61a 13-163-61b |
यावन्ति रोमकूपाणि तस्य गात्रेषु पाण्डव। तावन्त्येव सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते।। | 13-163-62a 13-163-62b |
नास्ति वेदात्परं शास्त्रं नास्ति मातृसमो गुरुः। न धर्मात्परमो लाभस्तपो नानशनात्परम्।। | 13-163-63a 13-163-63b |
ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति पावनं दिवि चेह च। उपवासैस्तथा तुल्यं तपःकर्म न विद्यते।। | 13-163-64a 13-163-64b |
उपोष्य विधिवद्देवास्त्रिदिवं प्रतिपेदिरे। ऋषयश्च परां सिद्धिमुपवासैरवाप्नुवन्।। | 13-163-65a 13-163-65b |
दिव्यवर्षसहस्राणि विश्वामित्रेण धीमता। क्षान्तमेकेन भक्तेन तेन विप्रत्वमागतम्।। | 13-163-66a 13-163-66b |
च्यवनो जमदग्निश्च वसिष्ठो गौतमो भृगुः। सर्व एव दिवं प्राप्ताः क्षमावन्तो महर्षयः।। | 13-163-67a 13-163-67b |
इदमङ्गीरसा पूर्वं महर्षिभ्यः प्रदर्शितम्। यः प्रदर्शयते नित्यं न स दुःखमवाप्नुते।। | 13-163-68a 13-163-68b |
इमं तु कौन्तेय यथाक्रमं विधिं प्रवर्तितं ह्यङ्गिरसा महर्षिणा। पठेच्च यो वै शृणुयाच्च नित्यदा न विद्यते तस्य नरस्य किल्बिषम्।। | 13-163-69a 13-163-69b 13-163-69c 13-163-69d |
विमुच्यते चापि स सर्वसङ्करै- र्न चास्य दोषैरभिभूयते मनः। वियोनिजानां च विजानते रुतं ध्रुवां च कीर्तिं लभते नरोत्तमः।। | 13-163-70a 13-163-70b 13-163-70c 13-163-70d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 163 ।। |
13-163-12 व्युष्टिः फलम्।। 13-163-13 दिनस्य द्वे भक्ते तत्र चतुर्थस्य भक्तस्य क्षपणम्। द्विरात्रमभोजनमित्यर्थः।। 13-163-16 यजिष्णुः देवतापूजनशीलः कुले स एव महानन्नदाता भवतीत्यर्थः।। 13-163-24 ज्येष्ठामूलं ज्येष्ठमासम्।। 13-163-28 मृजावान् वाहनाढ्यश्च इति झ.पाठः।। 13-163-31 सर्वेषु मासेष्वेकैकस्मिन्पक्षे गते द्वितीयपक्षे भक्तमेकभक्तमश्नाति।। 13-163-57 दुःखितस्यार्थमानाभ्यां दुःखानां प्रतिषेधनम् इति झ.पाठः।। 13-163-70 वियोनिजानां पक्ष्यादीनां रुतं शब्दं विजानते विजानीते।।
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