महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-067
← अनुशासनपर्व-066 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-067 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-068 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति शरणागतरक्षणफलप्रतिपादकश्येनकपोतोपाख्यानकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-67-1x |
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद। त्वत्तोऽहं श्रोतुमिच्छामि धर्मं भरतसत्तम।। | 13-67-1a 13-67-1b |
शरणागतं ये रक्षन्ति भूतग्रामं चतुर्विधम्। किं तस्य भरतश्रेष्ठ फलं भवति तत्त्वतः।। | 13-67-2a 13-67-2b |
भीष्म उवाच। | 13-67-3x |
इदं शृणु महाप्राज्ञ धर्मपुत्र महायशः। इतिहासं पुरावृत्तं शरणार्थं महाफलम्।। | 13-67-3a 13-67-3b |
प्रपात्यमानः श्येनेन कपोतः प्रियदर्शनः। वृषदर्भं महाभागं नरेन्द्रं शरणं गतः।। | 13-67-4a 13-67-4b |
स तं दृष्ट्वा विशुद्धात्मा त्रासादङ्कमुपागतम्। आश्वास्याश्वसिहीत्याह न तेऽस्ति भयमण्डज।। | 13-67-5a 13-67-5b |
भयं ते सुमहत्कस्मात्कुत्र किं वा कृतं त्वया। येन त्वमिह सम्प्राप्तो विसंज्ञो भ्रान्तचेतनः।। | 13-67-6a 13-67-6b |
नवनीलोत्पलापीड चारुवर्ण सुदर्शन। दाडिमाशोकपुष्पाक्ष मा त्रसस्वाभयं तव।। | 13-67-7a 13-67-7b |
मत्सकाशमनुप्राप्तं न त्वां कश्चित्समुत्सहेत्। मनसा ग्रहणं कर्तुं रक्षाध्यक्षपुरस्कृतम्।। | 13-67-8a 13-67-8b |
काशिराज्यं तदद्यैव त्वदर्तं जीवितं तथा। त्यजेयं भव विस्रब्धः कपोत भयं तव।। | 13-67-9a 13-67-9b |
श्येन उवाच। | 13-67-10x |
ममैतद्विहितं भक्ष्यं न राजंस्त्रातुमर्हसि। अतिक्रान्तं च प्राप्तं च प्रयत्नाच्चोपपादितम्।। | 13-67-10a 13-67-10b |
मांसं च रुधइरं चास्य मज्जा मेदश्च मे हितम्। परितोषकरो ह्येष मम माऽस्याग्रतो भव।। | 13-67-11a 13-67-11b |
तृष्णा मे बाधतेऽत्युग्रा क्षुधा निर्दहतीव माम्। मुञ्चैनं नहि शक्ष्यामि राजन्मन्दयितुं क्षुधाम्।। | 13-67-12a 13-67-12b |
मया ह्यनुसृतो ह्येष मत्पक्षनखविक्षतः। किञ्चिदुच्छ्वासनिःश्वासं न राजन्गोप्तुमर्हसि।। | 13-67-13a 13-67-13b |
यदि स्वविषये राजन्प्रभुस्त्वं रक्षणे नृणाम्। खेचरस्य तृषार्तस्य न त्वं प्रभुरथोत्तम।। | 13-67-14a 13-67-14b |
यदि वैरिषु भृत्येषु स्वजनव्यवहारयोः। विषयेष्विन्द्रियाणां च आकाशे मा पराक्रम।। | 13-67-15a 13-67-15b |
प्रभुत्वं हि पराक्रम्य सम्यक् पक्षहरेषु ते। यदि त्वमिह धर्मार्थी मामपि द्रष्टुमर्हसि।। | 13-67-16a 13-67-16b |
भीष्म उवाच। | 13-67-17x |
श्रुत्वा श्येनस्य तद्वाक्यं राजर्षिर्विस्मयं गतः। सम्भाव्य चैनं तद्वाक्यं तदर्थी प्रत्यभाषत।। | 13-67-17a 13-67-17b |
राजोवाच। | 13-67-18x |
गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषोपि वा। त्वदथर्मद्य क्रियतां क्षुधाप्रशमनाय ते।। | 13-67-18a 13-67-18b |
शरणागतं न त्यजेयमिति मे व्रतमाहितम्। न मुञ्चति ममाङ्गानि द्विजोऽयं पश्य वै द्विज।। | 13-67-19a 13-67-19b |
श्येन उवाच। | 13-67-20x |
न वराहं न चोक्षाणं न चान्यान्विविधान्द्विजान् भक्षयामि महाराज किमन्नाद्येन तेन मे।। | 13-67-20a 13-67-20b |
यस्तु मे विहितो भक्ष्यः स्वयं देवैः सनातनः। श्येनाः कपोतान्खादन्ति स्तितिरेषा सनातनी।। | 13-67-21a 13-67-21b |
उशीनर कपोते तु यदि स्नेहस्तवानघ। ततस्त्वं मे प्रयच्छाद्य स्वमांसं तुलया धृतम्।। | 13-67-22a 13-67-22b |
राजोवाच। | 13-67-23x |
महाननुग्रहो मेऽद्य यस्त्वमेवमिहात्थ माम्। बाढमेव करिष्यामीत्युक्त्वाऽसौ राजसत्तमः।। | 13-67-23a 13-67-23b |
उत्कृत्योत्कृत्य मांसानि तुलया समतोलयत्। अन्तःपुरे ततस्तस्य स्त्रियो रत्नविभूषिताः।। | 13-67-24a 13-67-24b |
हाहाभूता विनिष्क्रान्ताः श्रुत्वा परमदुःखिताः। तासां रुदितशब्देन मन्त्रिभृत्यजनस्य च।। | 13-67-25a 13-67-25b |
बभूव सुमहान्नादो मेघगम्भीरनिःस्वनः। निरुद्धं गगनं सर्वं व्यभ्रं मेघैः समन्ततः।। | 13-67-26a 13-67-26b |
मही प्रचलिता चासीत्तस्य सत्येन कर्मणा।। | 13-67-27a |
स राजा पार्श्वतश्चैव बाहुभ्यामूरुतश्च यत्। तानि मांसानि सञ्छिद्य तुलां पूरयतेऽशनैः। तथापि न समस्तेन कपोतेन बभूव ह।। | 13-67-28a 13-67-28b 13-67-28c |
अस्थिभूतो यदा राजा निर्मांसो रुधिरस्रवः। तुलां ततः समारूढः स्वं मांसक्षयमुत्सृजन्।। | 13-67-29a 13-67-29b |
ततः सेन्द्रास्त्रयो लोकास्तं नरेन्द्रमुपस्थिताः। र्भर्यश्चाकाशगैस्तत्र वादिता देवदुन्दुभिः।। | 13-67-30a 13-67-30b |
अमृतेनावसिक्तश्च वृषदर्भो नरेश्वरः। दिव्यैश्च सुसुखैर्माल्यैरभिवृष्टः पुनःपुनः।। | 13-67-31a 13-67-31b |
देवगन्धर्वसन्घातैरप्सरोभिश्च सर्वतः। नृत्तश्चैवोपगीतश्च पितामह इव प्रभुः।। | 13-67-32a 13-67-32b |
हेमप्रासादसम्बाधं मणिकाञ्चनतोरणम्। सवैडूर्यमणिस्तम्भं विमानं समधिष्ठितः।। | 13-67-33a 13-67-33b |
स राजर्षिर्गतः स्वर्गं कर्मणा तेन शाश्वतम्। शरणागतेषु चैवं त्वं कुरु सर्वं युधिष्ठिर।। | 13-67-34a 13-67-34b |
भक्तानामनुरक्तानामाश्रितानां च रक्षिता। दयावान्सर्वभूतेषु परत्र सुखमेधते।। | 13-67-35a 13-67-35b |
साधुवृत्तो हि यो राजा सद्वृत्तमनुतिष्ठति। किं न प्राप्तं भवेत्तेनि स्वव्याजेनेह कर्मणा।। | 13-67-36a 13-67-36b |
स राजर्षिर्विशुद्धात्मा धीरः सत्यपराक्रमः। काशीनामीश्वरः ख्यातस्त्रिषु लोकेषु कर्मणा।। | 13-67-37a 13-67-37b |
योऽप्यन्यः कारेयदेवं शरणागतरक्षणम्। सोपि गच्छेत तामेव गतिं भरतसत्तम।। | 13-67-38a 13-67-38b |
इदं वृत्तं हि राजर्षे वृषदर्भस्य कीर्तयन्। पूतात्मा वै भवेल्लोके शृणुयाद्यश्च नित्यशः।। | 13-67-39a 13-67-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तषष्टितमोऽध्यायः।। 67 ।। |
13-67-4 प्रात्यमान आकशादिति शेषः। वृषदर्भमौशीनरं शिबिम्।। 13-67-7 नवं नीलं च यदुत्पलं लस्याऽऽपीड इवालङ्कारभूत।। 13-67-10 अतिक्रान्तं गत्प्रायजवितम्।। 13-67-15 यदि वैर्यादिषु पराक्रमसे तद्युक्तं न त्वाकाशे आकाशचारिषु।। 13-67-16 पक्षहरेष्वाज्ञाभङ्गिषु शत्रुषु।। 13-67-17 तदथीं कपोतार्थी।। 13-67-19 द्विजः पक्षी।। 13-67-28 अशनैः शीघ्रम्।। 13-67-29 मांसक्षयं मांसालयं शरीरम्।। 13-67-32 नृत्तः नृत्येन तोपितः। एवमुपगीतः।। 13-67-36 साधुवृत्तः सुशीलः। सद्वृत्तं शिष्टाचारम्। स्वव्याजेन सुतरां नष्कपटेन।।
अनुशासनपर्व-066 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-068 |