महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-228
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परमेश्वरेण पार्वतींप्रति प्राणिनां फलनित्पत्तौ दैवपुरुषकारयोः परस्परसापेक्षत्वेन साधनत्वोक्तिः।। 1 ।। तथाऽण्डजरायुजानां गर्भप्रवेशादिप्रकारकथनम्।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-228-1x |
भगवन्सर्वभूतेश लोके कर्मक्रियापथे। दैवात्प्रवर्तते सर्वमिति केचिद्व्यवस्थिताः।। | 13-228-1a 13-228-1b |
अपरे चेष्टया चेति दृष्ट्वा प्रत्यक्षतः क्रियाम्। पक्षभेदे द्विधा चास्मिन्संशयस्थं मनो मम। तत्त्वं वद महादेव श्रोतुं कौतूहलं हि मे।। | 13-228-2a 13-228-2b 13-228-2c |
महेश्वर उवाच। | 13-228-3x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु तत्वं समाहिता। तदेवं कुरुते कर्म लोके देवि शुभाशुभम्।। | 13-228-3a 13-228-3b |
लक्ष्यते द्विविधं कर्म मानुषेष्वेव तच्छृणु। पुराकृतं तयोरेकमैहिकं त्वितरस्तथा।। | 13-228-4a 13-228-4b |
अदृष्टपूर्वं यत्कर्म तद्दैवमिति लक्ष्यते। विहीनं दृष्टकरणं तन्मानुषमिति स्मृतम्।। | 13-228-5a 13-228-5b |
मानुषं तु क्रियामात्रं दैवात्सम्भवते फलम्। एवं तदुभयं कर्म मानुषं विद्धि तन्नृषु।। | 13-228-6a 13-228-6b |
लौकिकं तु प्रवक्ष्यामि दैवमानुषनिर्मितम्। कृषौ तु दृश्यते कर्म कर्षणं वपनं तथा।। | 13-228-7a 13-228-7b |
रोपणं चैव लवनं यच्चान्यत्पौरुषं स्मृतम्। दैवादसिद्धिश्च भवेद्दुष्कृतं चास्ति पौरुषे।। | 13-228-8a 13-228-8b |
सुयत्नाल्लभ्यते कीर्तिर्दुर्यत्नादयशस्तथा। एवं लोकगतिर्देवि आदिप्रभृति वर्तते।। | 13-228-9a 13-228-9b |
उमोवाच। | 13-228-10x |
भगवन्सर्वलोकेश सुरासुरनमस्कृत। कथमात्मा सदा गर्भं संविशेष्कर्मकारणात्। तन्मे वद महादेव तद्धि गुह्यं परं मतम्।। | 13-228-10a 13-228-10b 13-228-10c |
महेश्वर उवाच। | 13-228-11x |
शृणु भामिनि तत्सर्वं गुह्यानां परमं प्रिये। देवगुह्यादपि परमात्मगुह्यमिति स्मृतम्।। | 13-228-11a 13-228-11b |
देवासुरास्तन्न विदुरात्मनो हि गतागतम्। अदृश्यो हि सदैवात्मा जनैः सौक्ष्म्यान्निराश्रयात्।। | 13-228-12a 13-228-12c |
अतिमायेति मायानामात्ममाया सेदष्यते। सोयं चतुर्विधां जातिं संविशत्यात्ममायया। मैथुनं शोणितं बीजं दैवमेवात्र कारणम्।। | 13-228-13a 13-228-13b 13-228-13c |
बीजशोणितसंयोगे यदा सम्भवते शुभे। तदाऽऽत्मा विशते गर्भमेवमण्डजरायुजे।। | 13-228-14a 13-228-14b |
एवं संयोगकाले तु आत्मा गर्भत्वमेयिवान्।। | 13-228-15a |
कलिलाज्जायते पिण्डं पिण्डात्पेश्यर्बुदं भवेत्। व्यक्तिभावगतं चैव कर्म त्वाश्रयते क्रमात्।। | 13-228-16a 13-228-16b |
एवं विवर्धमानेन कर्मात्मा सह वर्धते। एवमात्मगतिं विद्धि यन्मां पृच्छसि सुप्रभे।। | 13-228-17a 13-228-17b |
रोपणं चैव लवनं यच्चान्यत्पौरुषं स्मृतम्।। | 13-228-18a |
काले वृष्टिः सुवापं च प्ररोहः पक्तिरेव च। एवमादि तु यच्चान्यत्तद्दैवतमिति स्मृतम्।। | 13-228-19a 13-228-19b |
पञ्चभूतस्थितिश्चैव ज्योतिषामयनं तथा। अबुद्धिगम्यं यन्मर्त्यैर्हेतुभिर्वा न विद्यते।। | 13-228-20a 13-228-20b |
तादृशं कारणं दैवं शुभं वा यदि वेतरत्। यादृशं चात्मना शक्यं तत्पौरुषमिति स्मृतम्।। | 13-228-21a 13-228-21b |
केवलं फलनिष्पत्तिरेकेन तु न शक्यते। पौरुषेणैव दैवेनि युगपद्ग्रथितं प्रिये। तयोः समाहितं कर्म शीतोष्णं युगपत्तथा।। | 13-228-22a 13-228-22b 13-228-22c |
पौरुषं तु तयोः पूर्वमारब्धव्यं विजानता। आत्मना तु न शक्यं हि न तथा कीर्तिमाप्नुयात्।। | 13-228-23a 13-228-23b |
खननान्मथनाल्लोके जलाग्निप्रापणं यथा। तथा पुरुषकारे तु दैवसम्पत्समाहिता।। | 13-228-24a 13-228-24b |
नरस्याकुर्वतः कर्म दैवसम्पन्न लभ्यते। तस्मात्सर्वसमारम्भो दैवमानुषनिर्मितः।। | 13-228-25a 13-228-25b |
असुरा राक्षसाश्चैव मन्यन्ते लोकनाशनाः। पश्यन्ते न च ते पापाः केवलं मांसभक्षणाः।। | 13-228-26a 13-228-26b |
प्रच्छादितं हि तत्सर्वं गूढमाया हि देवताः। तदहं ते प्रवक्ष्यामि देवि गुह्यं पुरस्सरम्।। | 13-228-27a 13-228-27b |
आदिकाले नराः सर्वे कृत्वा कर्म शुभाशुभम्। भुञ्जते पश्यमानास्ते वृत्तान्तं लोकयोर्द्वयोः।। | 13-228-28a 13-228-28b |
यथैवात्मकृतं विद्युर्देशान्तरगता नराः। विद्युस्तथैवान्तकाले सुकृतं पौर्वदैहिकम्।। | 13-228-29a 13-228-29b |
एवं व्यवस्थिते लोके सर्वे धर्मरताऽभवन्। अचिरेणैव कालेन स्वर्गः सम्पूरितस्तदा।। | 13-228-30a 13-228-30b |
देवानामपि सम्बाधं दृष्ट्वा ब्रह्माऽप्यचिन्तयत्। सञ्चरन्ते कथं स्वर्गं मानुषाः प्रविशन्ति हि।। | 13-228-31a 13-228-31b |
इत्येवमनुचिन्त्यैव मानुषान्सममोहयत्। तदाप्रभृति ते मर्त्या न विदुस्ते पुराकृतम्।। | 13-228-32a 13-228-32b |
कामक्रोधौ तु तत्काले मानुषेष्ववपातयत्। ताभ्यामभिहता मर्त्याः स्वर्गलोकं न पेदिरे।। | 13-228-33a 13-228-33b |
पुराकृतस्याविज्ञानात्कामक्रोधाभिपीडिताः। नैतदस्तीति मन्वाना विकारंश्चक्रिरे पुनः।। | 13-228-34a 13-228-34b |
अकार्यादिमहादोषानाहरन्त्यात्मकारणात्। विस्मृत्य धर्मकार्याणि परलोकभयं तदा।। | 13-228-35a 13-228-35b |
एवं व्यवस्थिते लोके कश्मलं समपद्यत। लोकानां चैव देवानां क्षयायैव तथा प्रिये। नरकाः पूरिताश्चासन्प्राणिभिः पापकारिभिः।। | 13-228-36a 13-228-36b 13-228-36c |
पुनरेव तु तान्दृष्ट्वा लोककर्ता पितामहः। अचिन्तयत्तमेवार्थं लोकानां हितकारणात्। समत्वेन कथं लोके वर्तेतेति मुहुर्मुहुः।। | 13-228-37a 13-228-37b 13-228-37c |
चिन्तयित्वा तदा ब्रह्मा ज्ञानेन तपसा प्रिये। अकरोज्ज्ञानदृश्यं तत्परलोकं न चक्षुषा।। | 13-228-38a 13-228-38b |
उमोवाच। | 13-228-39x |
भगवन्मृतमात्रस्तु योयं जात इति स्मृतः। तथैव दृश्यते जातस्तत्रात्मा तु कथं भवेत्।। | 13-228-39a 13-228-39b |
गर्भादावेव संविष्ट आत्मा तु भगवन्मम। एष मे संशयो देव तन्मे छेत्तुं त्वमर्हसि।। | 13-228-40a 13-228-40b |
महेश्वर उवाच। | 13-228-41x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु तत्वं समाहिता। | 13-228-41a |
अन्यो गर्भगतो भूत्वा तत्रैव निधनं गतः। पुनरन्यच्छरीरं तत्प्रविश्य भुवि जायते। तत्वविन्नैव सर्वस्तु दैवयोगस्तु सम्भवेत्।। | 13-228-42a 13-228-42b 13-228-42c |
सूतिकाया हितार्थं च मोहनार्थं च देहिनाम्। समकर्मविधानत्वादित्येवं विद्धि शोभने।। | 13-228-43a 13-228-43b |
काङ्क्षमाणास्तु नरकं भुक्त्वा केचित्प्रयान्ति हि। मायासंयामिका नाम यज्जन्ममरणान्तरे। इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-228-44a 13-228-44b 13-228-44c |
उमोवाच। | 13-228-45x |
भगवन्सर्वलोकेश लोकनाथ वृषध्वज। नास्त्यात्मा कर्मभोक्तेति मृतो जन्तुर्न जायते।। | 13-228-45a 13-228-45b |
स्वभावाज्जायते सर्वं यथा वृक्षफलं तथा। यथोर्मयः सम्भवन्ति तथैव जगदाकृतिः।। | 13-228-46a 13-228-46b |
तपोदानानि यत्कर्म तत्र तद्दृश्यते वृथा। नास्ति पौनर्भवं जन्म इति केचिद्व्यवस्थिताः।। | 13-228-47a 13-228-47b |
परोक्षवचनं श्रुत्वा न प्रत्यक्षस्य दर्शनात्। तत्सर्वं नास्तिनास्तीति संशयस्थास्तथा परे।। | 13-228-48a 13-228-48b |
पक्षभेदान्तरे चास्मिंस्तत्वं मे वक्तुमर्हसि। उक्तं भगवता यत्तु तत्तु लोकस्य संस्थितिः।। | 13-228-49a 13-228-49b |
प्रश्नमेतत्तु पृच्छत्या रुद्राण्या परिषत्तदा। कौतूहलयुता श्रोतुं समाहितमनाऽभवत्।। | 13-228-50a 13-228-50b |
महेश्वर उवाच। | 13-228-51x |
नैतदस्ति महाभागे यद्वदन्तीह नास्तिकाः। एतदेवाभिशस्तानां श्रुतविद्वेषिणां मतम्।। | 13-228-51a 13-228-51b |
सर्वमर्थं श्रुतं दृष्टं यत्प्रागुक्तं मया तव। तदाप्रभृति मर्त्यानां श्रुतमाश्रित्य पण्डिताः।। | 13-228-52a 13-228-52b |
कामान्संछिद्य परिगान्धृत्या वै परमासिना। अभियान्त्येव ते स्वर्गं पश्यन्तः कर्मणः पलम्।। | 13-228-53a 13-228-53b |
एवं श्रद्धाफलं लोके परतः सुमहत्फलम्। बुद्धिः श्रद्धा च विनयः कारणानि हितैषिणाम्।। | 13-228-54a 13-228-54b |
तस्मात्स्वर्गाभिगन्तारः कतिचित्त्वभवन्नराः। अन्ये करणहीनत्वान्नास्तिक्यं भावमाश्रिताः।। | 13-228-55a 13-228-55b |
श्रुतविद्वेषिणो मूर्खा नास्तिका दृढनिश्चयाः। निष्क्रियास्तु निरन्नादाः पतन्त्येवाधमां गतिम्।। | 13-228-56a 13-228-56b |
नास्त्यस्तीति पुनर्जन्म कवयोऽप्यत्र मोहिताः। नाधिगच्छन्ति तन्नित्यं हेतुवादशतैरपि।। | 13-228-57a 13-228-57b |
एषा ब्रह्मकृता माया दुर्विज्ञेया सुरासुरैः। किंपुनर्मानवैर्लोके ज्ञातुकामैः कुबुद्धिभिः।। | 13-228-58a 13-228-58b |
केवलं श्रद्धया देवि श्रुतमात्मनिविष्टया। ततोस्तीऽत्येव मन्तव्यं तथा हितमवाप्नुयात्।। | 13-228-59a 13-228-59b |
दैवगुह्येषु चान्येषु हेतुर्देवि निरर्थकः। बधिरान्धवदेवात्र वर्तितव्यं हितैषिणा। एतत्ते कथितं देवि ऋषिगुह्यं प्रजाहितम्।। | 13-228-60a 13-228-60b 13-228-60c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 228 ।। |
अनुशासनपर्व-227 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-229 |