महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-265
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति दक्षाध्वरविध्वंसनत्रिपुरदहनादिरूपरुद्रचरित्रपरिकीर्तनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-265-1x |
दुर्वाससः प्रसादात्ते शंकरांशस्य माघव। अवाप्तमिह विज्ञानं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-265-1a 13-265-1b |
महाभाग्यं च यत्तस्य नामानि च महात्मनः। तत्त्वमो ज्ञातुमिच्छामि सर्वं मतिमतांवर।। | 13-265-2a 13-265-2b |
वासुदेव उवाच। | 13-265-3x |
हन्ति ते कीर्तयिष्यामि नमस्कृत्य कपर्दिने। यदवाप्तं मया राजञ्श्रेयो यच्चार्जितं यशः।। | 13-265-3a 13-265-3b |
प्रयतः प्रातरुत्थाय यस्त्वधीयेद्विशाम्पते। प्राञ्जलिः शतरुद्रीयं नास्य किञ्चनि दुर्लभम्।। | 13-265-4a 13-265-4b |
`शिवः सर्वकतो रुद्रः स्रष्टा यस्त्वं शृणुष्व मे।' प्रजापतिस्तमसृजत्तमसोऽन्ते महातपाः। शङ्करस्त्वसृजत्तात प्रजाः स्थावरजङ्गमाः।। | 13-265-5a 13-265-5b 13-265-5c |
नास्ति किञ्चित्परं भूतं महादेवाद्विशाम्पते। इह त्रिष्वपि लोकेषु भूतानां प्रभवो हि सः।। | 13-265-6a 13-265-6b |
न चैवोत्सहते स्थातुं कश्चिदग्रे महात्मनः। न हि भूतं समं तेन त्रिषु लोकेषु विद्यते।। | 13-265-7a 13-265-7b |
गन्धेनापि हि सङ्ग्रामे तस्य क्रुद्धस्य शत्रवः। विसंज्ञा हतभूयिष्ठा वेपनेते च पतन्ति च।। | 13-265-8a 13-265-8b |
घोरं च निनदं तस्य पर्जन्यनिनदोपम्। श्रुत्वा विशीर्येद्धृदयं देवानामपि संयुगे। यं चाक्ष्णा घोररूपेण पश्येद्दग्धः पतेदधः।। | 13-265-9a 13-265-9b 13-265-9c |
न सुरा नासुरा लोके न गन्धर्वा न पन्नगाः। कुपिते सुखमेधन्ते तस्मिन्नपि गुहागताः।। | 13-265-10a 13-265-10b |
प्रजापतेश्च दक्षस्य यजतो वितते क्रतौ। विव्याध कुपितो यज्ञं निर्भयस्तु भवस्तदा।। | 13-265-11a 13-265-11b |
धनुषा वाणमुत्सृज्य सुघोरं विननाद च।। | 13-265-12a |
ते न शर्म कुतः शान्ति विषादं लेभिरे सुराः। विद्धे च सहसा यज्ञे कुपिते च महेश्वरे।। | 13-265-13a 13-265-13b |
तेन ज्यातलघोषेण सर्वे लोकाः समाकुलाः। बभूवुरवशाः पार्थ विषेदुश्च सुरासुराः।। | 13-265-14a 13-265-14b |
आपश्चुक्षुभिरे चैव चकम्पे च वसुन्धरः। व्यद्रवग्निरयश्चापि द्यौः पफाल च सर्वशः।। | 13-265-15a 13-265-15b |
अन्धेन तमसा लोकाः प्रावृता न चकाशिरे। प्रनष्टा ज्योतिषां भाश्च सह सूर्येण भारत।। | 13-265-16a 13-265-16b |
भृशं भीतास्ततः शान्तिं चत्रुः स्वस्त्ययनानि च। ऋषयः सर्वभूतानामात्मनश्च हितैषिमः।। | 13-265-17a 13-265-17b |
ततः सोऽभ्यद्रवद्देवान्रुद्रो रौद्रपराक्रमः। भगस्य नयने क्रुद्धः प्रहारेण व्यशातयत्।। | 13-265-18a 13-265-18b |
पूषणं चाभिदुद्राव घोरेण वपुषाऽन्वितः। पुरोडाशं भक्षयतो दशनान्वै व्यशातयत्।। | 13-265-19a 13-265-19b |
ततः प्रणेमुर्देवास्ते वेपमानाः स्म शङ्करम्। पुनश्च सन्दधे रुद्रो दीप्तं सुनिशितं शरम्।। | 13-265-20a 13-265-20b |
रुद्रस्य विक्रमं दृष्ट्वा भीता देवाः सहर्षिभिः। ततः प्रसादयामासुः शर्वं ते विबुधोत्तमाः।। | 13-265-21a 13-265-21b |
जेषुश्च शतरुद्रीयं देवाः कृत्वाञ्जलिं तदा। संस्तूयमानस्त्रिदशैः प्रससाद महेश्वरः।। | 13-265-22a 13-265-22b |
रुद्रस्य भागं यज्ञे च विशिष्टं ते त्वकल्पयन्। भयेन त्रिदशा राजञ्शरणं च प्रपेदिरे।। | 13-265-23a 13-265-23b |
तेन चैव हि तुष्टेन स यज्ञः सन्धितोऽभवत्। यद्यच्चापहृतं तत्र तत्तथैवान्वजीवयत्।। | 13-265-24a 13-265-24b |
असुराणां पुराण्यासंस्त्रीणि वीर्यवतां दिवि। आयसं राजतं चैव सौवर्णमपि चापरम्।। | 13-265-25a 13-265-25b |
नाशकत्तानि मघवा भेत्तुं सर्वायुधैरपि। अथ सर्वेऽमरा रुद्रं जग्मुः शरणमर्दिताः।। | 13-265-26a 13-265-26b |
तत ऊचुर्महात्मानो देवाः सर्वे समागताः। रुद्र रौद्रा भविष्यन्ति पशवः सर्वकर्मसु।। | 13-265-27a 13-265-27b |
जहि दैत्यान्सह पुरैर्लोकांस्त्रायस्व मानद। स तथोक्तस्तथेत्युक्त्वा कृत्वा विष्णुं शरोत्तमम्।। | 13-265-28a 13-265-28b |
शल्यमग्निं तथा कृत्वा पुङ्खं वैवस्वतं यमम्। ओङ्कारं च धनुः सर्वाञ्ज्यां च सावित्रिमुत्तमां।। | 13-265-29a 13-265-29b |
ब्रह्माणं सारथिं कृत्वा विनियुज्य च सर्वशः। त्रिपर्वणा त्रिशल्येन तेन तानि बिभेद सः।। | 13-265-30a 13-265-30b |
शरेणादित्यवर्णेन कालाग्निसमतेजसा। तेऽसुराः सपुरास्तत्र दग्धा रुद्रेण भारत।। | 13-265-31a 13-265-31b |
तं चैवाङ्कगतं दृष्ट्वा बालं पञ्चशिखं पुनः। उमा जिज्ञासमाना वै कोऽयमित्यब्रवीत्तदा।। | 13-265-32a 13-265-32b |
असूयतश्च शक्रस्य वज्रेणि प्रहरिष्यतः। सवज्रं स्तम्भयामास तं बाहुं परिघोपमम्।। | 13-265-33a 13-265-33b |
न संयुयुधिरे चैव देवास्तं भुवनेश्वरम्। सप्रजापतयः सर्वे तस्मिन्मुमुहुरीश्वरे।। | 13-265-34a 13-265-34b |
ततो ध्यात्वा च भगवान्ब्रह्मा तममितौजसम्। अयं श्रेष्ठ इति ज्ञात्वा ववन्दे तमुमापतिम्।। | 13-265-35a 13-265-35b |
ततः प्रसादयामासुरुमां रुद्रं च ते सुराः। बभूव स तदा बालः प्रययौ तु यथापुरम्।। | 13-265-36a 13-265-36b |
स चापि ब्राह्मणो भूत्वा दुर्वासा नाम वीर्यवान्। द्वारवत्यां मम गृहे चिरं कालमुपावसन्।। | 13-265-37a 13-265-37b |
विप्रकारान्प्रयुङ्क्ते स्म सुबहून्मम वेश्मनि। तानुदारतया चाहं चक्षमे चातिदुःसहान्।। | 13-265-38a 13-265-38b |
स वै रुद्रः स च शिवः सोग्निः सर्वः स सर्वजित्। स चैवेन्द्रश्च वायुश्च सोऽस्विनौ स च विद्युतः।। | 13-265-39a 13-265-39b |
स चन्द्रमाः स चेशानः स सूर्यो वरुणश्च सः। स कालः सोन्तको मृत्युः स यमो रात्र्यहानि च।। | 13-265-40a 13-265-40b |
मासार्धमासा ऋतवः सन्ध्ये संवत्सरश्च सः। सधाता स विधाता च विश्वकर्मा स सर्ववित्।। | 13-265-41a 13-265-41b |
नक्षत्राणि ग्रहाश्चैव दिशोऽथ प्रदिशस्तथा। विश्वमूर्तिरमेयात्मा भगवान्परमद्युतिः।। | 13-265-42a 13-265-42b |
एकधा च द्विधा चैव बहुधा च स एव हि। शतधा सहस्रधा चैव तथा शतसहस्रधा।। | 13-265-43a 13-265-43b |
ईदृशः स महादेवो भूयश्च भगवानतः। न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि।। | 13-265-44a 13-265-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चषष्ट्यदिकद्विशततमोऽध्यायः।। 265 ।। |
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