महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-269
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भीष्मेणि युधिष्ठिरंप्रत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां सुकृतदुष्कृतयोः सदृष्टान्तप्रदर्शनं सुखदुःखकारणत्वोपपादनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-269-1x |
नाभागधेयः प्राप्नोति धनं सुबलवानपि। भागधेयान्वितस्त्वर्थान्कृशो बालश्च विन्दति।। | 13-269-1a 13-269-1b |
नालाभकाले लभते प्रयत्नेऽपि कृते सति। लाभकालेऽप्रयत्नेन लभते विपुलं धनम्।। | 13-269-2a 13-269-2b |
कृतयत्नाफलाश्चैव दृश्यन्ते शतशो नराः। अयत्नेनैधमानाश्च दृश्यन्ते बहवो जनाः।। | 13-269-3a 13-269-3b |
यदि यत्नो भवेन्मर्त्यः स सर्वं फलमाप्नुयात्। नालभ्यं चोपलभ्येत नृणां भरतसत्तम।। | 13-269-4a 13-269-4b |
प्रयत्नं कृतवन्तोपि दृश्यन्ते ह्यफला नराः। मार्गत्यागशतैरर्थानमार्गश्चापरः सुखी।। | 13-269-5a 13-269-5b |
अकार्यमसकृत्कृत्वा दृश्यन्ते ह्यधना नराः। धनयुक्ताः स्वकर्मस्था दृश्यन्ते चापरेऽधनाः।। | 13-269-6a 13-269-6b |
अधीत्य नीतिशास्त्राणि नीतियुक्तो न दृश्यते। अनभिज्ञश्च साचिव्यं गमितः केन हेतुना।। | 13-269-7a 13-269-7b |
विद्यायुक्तो ह्यविद्यश्च धनवान्दुर्मतिस्तथा। यदि विद्यामुपाश्रित्य नरः सुखमवाप्नुयात्।। | 13-269-8a 13-269-8b |
न विद्वान्विद्यया हीनं वृत्त्यर्थमुपसंश्रयेत्। यथा पिपासां जयति पुरुषः प्राप्य वै जलम्।। | 13-269-9a 13-269-9b |
इष्टार्थो विद्यया ह्येव न विद्यां प्रजहेन्नरः।। | 13-269-10a |
नाप्राप्तकालो म्रियते विद्धः शरशतैरपि। तृणाग्रेणापि संस्पृष्टः प्राप्तकालो न जीवति।। | 13-269-11a 13-269-11b |
भीष्म उवाच। | 13-269-12x |
ईहमानः समारम्भान्यदि नासादयेद्धनम्। उग्रं तपः समारोहेन्न ह्यनुप्तं प्ररोहति।। | 13-269-12a 13-269-12b |
दानेन भोगी भवति मेधावी वृद्धसेवया। अहिंसया च दीर्घायुरिति प्राहुर्मनीषिणः।। | 13-269-13a 13-269-13b |
तस्माद्दद्यान्न याचेत पूजयेद्धार्मिकानपि। सुभाषी प्रियकृच्छान्तः सर्वसत्वाविहिंसकः।। | 13-269-14a 13-269-14b |
यदा प्रमाणं प्रसवः स्वभावश्च सुखासुखे। दंशकीटपिपीलानां स्थिरो भव युधिष्ठिर।। | 13-269-15a 13-269-15b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 269 ।। |
13-269-3 कृतो यत्नोऽफलो येषां ते कृतयत्नाफलाः।। 13-269-4 भवेत्समर्थः स्यात्।। 13-269-5 आयशतैः उपायशतैः। सुखी धनेन ।। 13-269-13 तपसेह भोगी भवतीति ट.थ.पाठः।। 13-269-15 प्रसवः प्रसवकारणं कर्मैव। दशादीनां सुखाद्याप्तौ प्रमाणं नियामकम्। एवं स्वस्यापि ज्ञात्वा स्थिरोऽचञ्चलो भव।।
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