महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-262
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वायुना हैहयंप्रति देवानां प्रार्थनया अग्निसर्जनेन कपहननरूपब्राह्मणमहिमोक्तिः।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-262-1x |
तूष्णीमासीदर्जुनस्तु पवनस्त्वब्रवीत्पुनः। शृणु मे ब्राह्मणेष्वेव मुख्यं कर्म जनाधिप।। | 13-262-1a 13-262-1b |
मदस्यास्यमनुप्राप्ता यदा सेन्द्रा दिवौकसः। तदैव च्यवनेन द्यौर्हृता तेषां वसुन्धरा।। | 13-262-2a 13-262-2b |
उभौ लोकौ हृतौ मत्वा ते देवा दुःखिताऽभवन्। शोकार्ताश्त महात्मानं ब्रह्माणं शरणं ययुः।। | 13-262-3a 13-262-3b |
देवा ऊचुः। | 13-262-4x |
मदास्यव्यतिषिक्तानामस्माकं लोकपूजित। च्यवनेन हृता भूमिः कपैश्चैव दिवं प्रभो।। | 13-262-4a 13-262-4b |
ब्रह्मोवाच। | 13-262-5x |
गच्छध्वं शरणं विप्रानाशु सेन्द्रा दिवौकसः। प्रसाद्य तानुभौ लोकाववाप्स्यथ यथापुरम्।। | 13-262-5a 13-262-5b |
ते ययुः शरणं विप्रानूचुस्ते काञ्जयामहे। इत्युक्तास्ते द्विजान्प्राहुर्जयतेह कपानिति।। | 13-262-6a 13-262-6b |
भूगतान्हि विजेतारो वयमित्यब्रुवन्द्विजाः। ततः कर्म समारब्धं ब्राह्मणैः कपनाशनम्।। | 13-262-7a 13-262-7b |
तच्छ्रुत्वा प्रेषितो दूतो ब्राह्मणेभ्यो धनी कपैः। स च तान्ब्राह्मणानाह धनी कपवचो यथा।। | 13-262-8a 13-262-8b |
भवद्भिः सदृशः सर्वे कपाः किमिह वर्तते। सर्वे वेदविदः प्राज्ञाः सर्वे च क्रतुयाजिनः।। | 13-262-9a 13-262-9b |
सर्वे सत्यव्रताश्चैव सर्वे तुल्या महर्षिभिः। श्रीश्चैव रमते तेषु धारयन्ति श्रियं च ते।। | 13-262-10a 13-262-10b |
वृथा दारान्न गच्छन्ति वृथा मांसं न भुञ्जते। दीप्तमग्निं जुह्वते च गुरूणां वचने स्थिताः।। | 13-262-11a 13-262-11b |
सर्वे च नियतात्मानो बालानां संविभागिनः। उपेत्य शनकैर्यान्ति न सेवन्ति रजस्वलाम्। स्वर्गातिं चैव गच्छन्ति तथैव शुभकर्मिणः।। | 13-262-12a 13-262-12b 13-262-12c |
अभुक्तवत्सु नाश्नन्ति गर्भिणीवृद्धकादिषु। पूर्वाह्णेषु न दीव्यन्ति दिवा चैव न शेरते।। | 13-262-13a 13-262-13b |
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्गुणैर्युक्तान्कथं कपान्। विजेष्यथ निवर्तध्वं निवृत्तानां सुखं हि वः।। | 13-262-14a 13-262-14b |
ब्राह्मणा ऊचुः। | 13-262-15x |
कपान्वयं विजेष्यामो ये देवास्ते वयं स्मृताः। तस्माद्वध्याः कपाऽस्माकं धनिन्याहि यथागतम्।। | 13-262-15a 13-262-15b |
धनी गत्वा कपानाह न वो विप्राः प्रियङ्कराः। गृहीत्वाऽस्त्राण्यतो विप्रान्कपाः सर्वे समाद्रवन्।। | 13-262-16a 13-262-16b |
समुदग्रध्वजान्दृष्ट्वा कपान्सर्वे द्विजातयः। व्यसृजञ्ज्वलितानग्नीन्कपानां प्राणनाशनान्।। | 13-262-17a 13-262-17b |
ब्रह्मसृष्टा हव्यभुजः कपान्हत्वा सनातनाः। नभसीव यथाऽभ्राणि व्यराजन्त नराधिप।। | 13-262-18a 13-262-18b |
हत्वा वै दानवान्देवाः सर्वे सम्भूय संयुगे। ते नाभ्यजानन्हि तदा ब्राह्मणैर्निहतान्कपान्।। | 13-262-19a 13-262-19b |
अथागम्य महातेजा नारदोऽकथयद्विभो। यथा हता महाभागैस्तेजसा ब्राह्मणैः कपाः।। | 13-262-20a 13-262-20b |
नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रीताः सर्वे दिवौकसः। प्रशशंसुर्द्विजांश्चापि ब्राह्मणांश्च यशस्विनः।। | 13-262-21a 13-262-21b |
तेषां तेजस्तथा वीर्यं देवानां ववृधे ततः। अवाप्नुवंश्चामरत्वं त्रिषु लोकेषु पूजितम्।। | 13-262-22a 13-262-22b |
इत्युक्तवचनं वायुमर्जुनः प्रत्युवाच ह। प्रतिपूज्य महाबाहो यत्तच्छृणु नराधिप।। | 13-262-23a 13-262-23b |
अर्जुन उवाच। | 13-262-24x |
जीवाम्यहं ब्राह्मणार्थं सर्वथा सततं प्रभो। ब्रह्मण्यो ब्राह्मणेभ्यश्च प्रणमामि च नित्यशः।। | 13-262-24a 13-262-24b |
दत्तात्रेयप्रसादाच्च मया प्राप्तमिदं बलम्। लोके च परमा कीर्तिर्धर्मश्चाचरितो महान्।। | 13-262-25a 13-262-25b |
अहो ब्राह्मणकर्माणि मयि मारुत तत्त्वतः। त्वया प्रोक्तानि कार्त्स्न्येन श्रुतानि प्रयतेन च।। | 13-262-26a 13-262-26b |
वायुरुवाच। | 13-262-27x |
ब्राह्मणान्क्षात्राधर्मेण पालयस्वेन्द्रियाणि च। विप्रेभ्यस्ते भयं घोरं तत्तु कालाद्भविष्यति।। | 13-262-27a 13-262-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 262 ।। |
13-262-4 कपैः सुरविशेषैः। दिवं द्यौः।। 13-262-8 धनीनाम दूतः।।
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