महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-114
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गवां चिरचीर्णतपःप्रसादिताच्चतुर्मुखाल्लोकश्रैष्ठ्यपावित्र्यादिवरलाभकथनम्।। 1 ।। तथा गोविशेषदानस्य फलविशेषकथनम्।। 2 ।।
वसिष्ठ उवाच। | 13-114-1x |
शतं वर्षसहस्राणां तपस्तप्तं सुदुष्करम्। गोभिः पूर्वं विसृष्टाभिर्गच्छेम श्रेष्ठतामिति।। | 13-114-1a 13-114-1b |
लोकेऽस्मिन्दक्षिणानां च सर्वासां वयमुत्तमाः। भवेम न च लोप्येम दोषेणेति परन्तप।। | 13-114-2a 13-114-2b |
अस्मत्पुरीषस्नानेन जनः पुयेत सर्वदा। शकृता च पवित्रार्थं कुर्वीरन्देवमानुषाःठ।। | 13-114-3a 13-114-3b |
तथा सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च। प्रदातारश्च लोकान्नो गच्छेयुरिति मानद।। | 13-114-4a 13-114-4b |
ताभ्यो वरं ददौ ब्रह्मा तपसोऽन्ते स्वयं प्रभुः। एवं भवन्विति विभुर्लोकांस्तारयतेति च।। | 13-114-5a 13-114-5b |
उत्तस्थुः सिद्धकामास्ता भूतभव्यस्य मातरः। तपसोऽन्ते महाराज गावो लोकपरायणाः।। | 13-114-6a 13-114-6b |
तस्माद्गावो महाभागाः पवित्रं परमुच्यते। तथैव सर्वभूतानां समतिष्ठन्त मूर्धनि।। | 13-114-7a 13-114-7b |
सम्मनवत्सां कपिलां धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्।। सुव्रतां वस्त्रसंवीतां ब्रह्मलोके महीयते।। | 13-114-8a 13-114-8b |
लोहितां तुल्यवत्सां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्। सुव्रतां वस्त्रसंवीतां सूर्यलोके महीयते।। | 13-114-9a 13-114-9b |
समानवत्सां शबलां धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्। सुव्रतां वस्त्रसंवीतीं सोमलोके महीयते।। | 13-114-10a 13-114-10b |
समानवत्सां श्वेतां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्। सुव्रतां वस्त्रसंवीतामिन्द्रलोके महीयते।। | 13-114-11a 13-114-11b |
समानवत्सां कृष्णां तु धेनु दत्त्वा पयस्विनीम्। सुव्रतां वस्त्रसंवीतामग्निलोके महीयते।। | 13-114-12a 13-114-12b |
समानवत्सां धूम्रां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्। सुव्रतां वस्त्रसंवीतां याम्यलोके महीयते।। | 13-114-13a 13-114-13b |
अपां फेनसवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम्। प्रदाय वस्त्रसंवीतां वारुणं लोकमाप्नुते।। | 13-114-14a 13-114-14b |
वातरेणुसवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम्। प्रदाय वस्त्रसंवीतां वायुलोके महीयते।। | 13-114-15a 13-114-15b |
हिरण्यवर्णां पिङ्गाक्षीं सवत्सां कांस्यदोहनाम्। प्रदाय वस्त्रसंवीतां कौबेरं लोकमश्नुते।। | 13-114-16a 13-114-16b |
पलालधूम्रवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम्। प्रदाय वस्त्रसंवीतां पितृलोके महीयते।। | 13-114-17a 13-114-17b |
सवत्सां पीवरीं दत्त्वा दृतिकण्ठामलङ्कृताम्। वैश्वदेवमसम्बाधं स्थानं श्रेष्ठं प्रपद्यते।। | 13-114-18a 13-114-18b |
समानवत्सां गौरीं तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम्। सुव्रतां वस्त्रसंवीतां वसूनां लोकमाप्नुयात्।। | 13-114-19a 13-114-19b |
पाण्डुकम्बलवर्णाभां सवत्सां कांस्यकदोहनाम्। प्रदाय वस्त्रसंवीतां साध्यानां लोकमाप्नुते।। | 13-114-20a 13-114-20b |
वैराटपृष्ठमुक्षाणं सर्वरत्नैरलङ्कृतम्। प्रददन्मरुतां लोकान्स राजन्प्रतिपद्यते।। | 13-114-21a 13-114-21b |
वत्सोपपन्नां नीलां गां सर्वरत्नसमन्विताम्। गन्धर्वाप्सरसां लोकान्दत्त्वा प्राप्नोति मानवः।। | 13-114-22a 13-114-22b |
दृतिकण्ठमनड्वाहं सर्वरत्नैरलङ्कृतम्। दत्त्वा प्रजापतेर्लोकान्विशोकः प्रतिपद्यते।। | 13-114-23a 13-114-23b |
गोप्रदानरतो याति भित्त्वा जलदसञ्चयान्। विमानेनार्कवर्णेन दिवि राजन्विराजता।। | 13-114-24a 13-114-24b |
तं चोरुवेषाः सुश्रोण्यः सहस्रं वारयोपितः। रमयन्ति नरश्रेष्ठं गोप्रदानरतं नरम्।। | 13-114-25a 13-114-25b |
वीणानां वल्लकीनां च नू पुराणां च शिञ्जितैः। हासैश्च हरिणाक्षीणां सुप्तः सुप्रतिबोध्यते।। | 13-114-26a 13-114-26b |
यावन्ति रोमाणि भवन्ति धेन्वा- स्तावन्ति वर्षाणि महीयते सः। स्वर्गच्युतश्चापि ततो नृलोके कुले प्रसूतो विपुले विशोकः।। | 13-114-27a 13-114-27b 13-114-27c 13-112-27d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 114 |
13-114-1 गच्छामः शृङ्गितामितीति क.ध.पाठः।। 13-114-18 प्रलम्बगलकम्बलाम्। शितिकण्ठामलङ्कृतामिति क.थ.ध.पाठः।। 13-114-21 वैराटं वृद्धं पृष्टं यस्य। वैतानस्थितमुक्षाणमिति क.ध.पाठः।।
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