महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-191
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वायुना धर्मरहस्यकथनम्।। 1 ।।
[वायुरुवाच। | 13-191-1x |
किञ्चिद्धर्मं प्रवक्ष्यामि मानुषाणां सुखावहम्। सरहस्याश्च ये दोषास्ताञ्शृणुध्वं समाहिताः।। | 13-191-1a 13-191-1b |
अग्निकार्यं च कर्तव्यं परमान्नेन भोजनम्। दीपकश्चापि कर्तव्यः पितॄणां सतिलोदकः।। | 13-191-2a 13-191-2b |
एतेन विधिना मर्त्यः श्रद्दधानः समाहितः। चतुरो वार्षिकान्मासान्यो ददाति तिलोदकाम्।। | 13-191-3a 13-191-3b |
भोजनं च यथाशक्त्या ब्राह्मणे वेदपारगे। पशुबन्धशतस्येह फलं प्राप्नोति पुष्कलम्।। | 13-191-4a 13-191-4b |
इदं चैवापरं गुह्यमप्रशस्तं निबोधत। अग्नेस्तु वृषलो नेता हविर्मूढाश्च योषितः।। | 13-191-5a 13-191-5b |
मन्यते धर्म एवेति च चाधर्मेणि लिप्यते। अग्नयस्तस्य कुप्यन्ति शूद्रयोनिं स गच्छति।। | 13-191-6a 13-191-6b |
पितरश्च न तुष्यन्ति सहदेवैर्विशेषतः। प्रायश्चित्तं तु यत्तत्र ब्रुवतस्तन्निबोध मे। यत्कृत्वा तु नरः सम्यक्सुखी भवति विज्वरः।। | 13-191-7a 13-191-7b 13-191-7c |
गवां मूत्रपुरीषेणि पयसा च घृतेन च। अग्निकार्यं त्र्यहं कुर्यान्निराहारः समाहितः।। | 13-191-8a 13-191-8b |
ततः संवत्सरे पूर्णे प्रतिगृह्णन्ति देवताः। हृष्यन्ति पितरश्चास्य श्राद्धकाल उपस्थिते।। | 13-191-9a 13-191-9b |
एष ह्यधर्मो धर्मश्च सरहस्यः प्रकीर्तितः। मर्त्यानां स्वर्गकामानां प्रेत्य स्वर्गसुखावह।।] | 13-191-10a 13-191-10b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि< दानधर्मपर्वणि एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 191 ।। |
13-191-5 नेता देशान्तरप्रापको यदि शूद्रः स्यात् तर्हि तस्य दोषः।।
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