महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-223
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परमेश्वरेण पार्वतीप्रति प्राणिनां चण्डालत्वदरिद्रत्वादिप्रापकदुष्कर्मप्रतिपादनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-223-1x |
भगवन्मानुषेष्वेव मानुषाः समदर्शनाः। चण्डाला इव दृश्यन्ते स्पर्शमात्रविदूषिताइः।। | 13-223-1a 13-223-1b |
नीचकर्मरता देव सर्वेषां मलहारकाः। दुर्गताः क्लेशभूयिष्ठा विरूपा दुष्टचेतसः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-223-2a 13-223-2b 13-223-2c |
महेश्वर उवाच। | 13-223-3x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि तदेकाग्रमनाः शृणु।। | 13-223-3a |
ये पुरा मनुजा देवि अतिमानयुता भृशम्। आत्मसम्भावनायुक्ताः स्तब्धा दर्पसमन्विताः।। | 13-223-4a 13-223-4b |
प्रणामं तु न कुर्वन्ति गुरूणामपि पामराः। ये स्वधर्मार्पणं कार्यमतिमानान्न कुर्वते।। | 13-223-5a 13-223-5b |
परान्संनामयन्त्येव आज्ञयात्मनि ये बलात्। ऋद्धियोगात्परान्नित्यमवमन्यन्ति मानवान्। पानपाः सर्वभक्षाश्च परुषाः कटुका नराः।। | 13-223-6a 13-223-6b 13-223-6c |
एवंयुक्तसमाचाराक दण्डिता यमशासनैः। कथंचित्प्राप्य मानुष्यं चण्डालाः सम्भवन्ति ते।। | 13-223-7a 13-223-7b |
नीचकर्मरताश्चैव सर्वेषां मलहारकाः। परेषां वन्दनपरास्ते भवन्त्येव मानिनः।। | 13-223-8a 13-223-8b |
विरूपाः पापयोनिस्थाः स्पर्शनादिविवर्जिताः। कुवृत्तिमुपजीवन्ति भुत्वा ते रजकादयः। पुराऽतिमानदोषात्तु भुञ्जते स्वकृतं फलम्।। | 13-223-9a 13-223-9b 13-223-9c |
तानप्यवस्ताकृपणांश्चण्डालानपि बुद्धिमान्। न च निन्देन्नापि कुप्येद्भुञ्जते स्वकृतं फलम्। चण्डाला अपि तां जातिं शोचन्तः शुद्धिमाप्नुयुः।। | 13-223-10a 13-223-10b 13-223-10c |
उमोवाच। | 13-223-11x |
भगवन्मानुषाः केचिदाशापाशशतैर्वृताः। परेषां द्वारि तिष्ठन्ति प्रतिषिद्धाः प्रवेशने।। | 13-223-11a 13-223-11b |
द्रष्टुं ज्ञापयितुं चैव न लभन्ते च यत्नतः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-223-12a 13-223-12b |
महेश्वर उवाच। | 13-223-13x |
ये पुरा मानुषा देवि ऐश्वर्यस्थानसंयुताः। संवादं तु न कुर्वन्ति परैरैश्वर्यमोहिताः।। | 13-223-13a 13-223-13b |
द्वाराणि न ददत्येव लोभमोहादिभिर्वृताः। अवस्थामोहसंयुक्ताः स्वार्थमात्रपरायणाः।। | 13-223-14a 13-223-14b |
सर्वभोगयुता वाऽपि सर्वेषां निष्फला भृशम्। अपि शक्ता न कुर्युस्ते परानुग्रहकारणात्।। | 13-223-15a 13-223-15b |
निर्दयाश्चैव निर्द्वारा भोगैश्वर्यगतिं प्रति। एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने।। | 13-223-16a 13-223-16b |
यदि चेन्मानुषं जन्म लभेरंस्ते तथाविधाः। दुर्गता दुरवस्थाश्च कर्मव्याक्षेपसंयुताः।। | 13-223-17a 13-223-17b |
अभिधावन्ति ते सर्वे तमर्थमभिवेदिनः। राज्ञां वा राजमात्राणां द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।। | 13-223-18a 13-223-18b |
कर्म विज्ञापितुं द्रष्टुं न लभन्ते कथञ्चन। प्रवेष्टुमपि ते द्वारं बहिस्तिष्ठन्ति काङ्क्षया।। | 13-223-19a 13-223-19b |
उमोवाच। | 13-223-20x |
भगवन्मानुषाः केचिन्मनुष्येषु बहुष्वपि। सहसा नष्टसर्वस्वा भ्रष्टकोशपरिग्रहाः।। | 13-223-20a 13-223-20b |
दृश्यन्ते मानुषाः केचिद्राजचोरोदकादिभिः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-223-21a 13-223-21b |
महेश्वर उवाच। | 13-223-22x |
ये पुरा मानुषा देवि आसुरं भावमाश्रिताः। परेषां वृत्तिनाशं तु कुर्वते द्वेषलोभतः।। | 13-223-22a 13-223-22b |
उत्कोचनपराश्चैव पिशुनाश्च तथाविधाः। परद्रव्यहरा घोराश्चौर्याद्वाऽन्येन कर्मणा।। | 13-223-23a 13-223-23b |
निर्दया निरनुक्रोशाः परेषां वृत्तिनाशकाः। नास्तिकाऽनृतभूयिष्ठाः परद्रव्यापहारिणः।। | 13-223-24a 13-223-24b |
एवंयुक्तसमाचारा दण्डिता यमशासनैः। निरयस्थाश्चिरं कालं तत्र दुःखसमन्विताः।। | 13-223-25a 13-223-25b |
यदि चेन्मानुषं जन्म लभेरंस्ते तथाविधाः। तत्रस्थाः प्राप्नुवन्त्येव सहसा द्रव्यवाशनम्।। | 13-223-26a 13-223-26b |
कष्टं तत्प्राप्नुवन्त्येव कारणाकारणादपि। नाशं विनाशं द्रव्याणामुपघातं च सर्वशः।। | 13-223-27a 13-223-27b |
उमोवाच। | 13-223-28x |
भगवन्मानुषाः केचिद्बान्धवैः सहसा पृथक्। कारणादेव सहसा सर्वेषां प्राणनाशनम्।। | 13-223-28a 13-223-28b |
शस्त्रेण वाऽन्यथा वाऽपि प्राप्नुवन्ति वधं नराः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-223-29a 13-223-29b |
महेश्वर उवाच। | 13-223-30x |
ये पुरा मनुजा देवि घोरकर्मरतानृताः। आसुराः प्रायशो मूर्खाः प्राणिहिंसाप्रिया भृशं।। | 13-223-30a 13-223-30b |
निर्दयाः प्राणिहिंसायां तथा प्राणिविघातकाः। विश्वस्तघातकाश्चैव तथा सुप्तविघातकाः। प्रायशोऽनृतभूयिष्ठा नास्तिका मांसभोजनाः।। | 13-223-31a 13-223-31b 13-223-31c |
एवंयुक्तसमाचाराः कालधर्मं गताः पुनः। दण्डिता यमदण्डेन निरयस्थाश्चिरं प्रिये।। | 13-223-32a 13-223-32b |
तिर्यग्योनिं पुनः प्राप्य तत्र दुःखपरिक्षयात्। यदि चेन्मानुपं जन्म लभेरंस्ते तथाविधाः। तत्र ते प्राप्नुवन्त्येव वधबन्धान्यथा तथा।। | 13-223-33a 13-223-33b 13-223-33c |
आढ्या वा दुर्गता वाऽपि भुञ्जते स्वकृतं फलम्। सुप्ता मत्ताश्च विश्वस्तास्तथा ते प्राप्नुवन्त्युत।। | 13-223-34a 13-223-34b |
प्राणवाधकृतं दुःखं बान्धवैः सहसा पृथक्। पुत्रदारविनाशं वा शस्त्रेणान्येन वा वधम्।। | 13-223-35a 13-223-35b |
उमोवाच। | 13-223-36x |
भगवन्मानुषाः केचिद्राजनीतिविशार दैः। दण्ड्यन्ते मानुषे लोके मानुषाः सर्वतोभयाः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-223-36a 13-223-36b 13-223-36c |
महेश्वर उवाच। | 13-223-37x |
ये पुरा मनुजा देवि मानुषांश्चेतराणि वा। क्लिष्टघातेन निघ्नन्ति प्राणान्प्राणिषु निर्दयाः। आसुर घोरकर्माणः क्रूरदण्डवधप्रियाः।। | 13-223-37a 13-223-37b 13-223-37c |
ये दण्डयन्त्यदण्ड्यांश्च राजानः कोपमोहिताः। हिंसाहङ्कारपरुषा मांसादा नास्तिकाशुभाः।। | 13-223-38a 13-223-38b |
केचित्स्त्रीपुरुषघ्नाश्च गुरुघ्नाश्च तथा प्रिये। एवंयुक्तसमाचारा प्राणिधर्मं गताः पुनः।। | 13-223-39a 13-223-39b |
दण्डिता यमदण्डेन निरयस्थाश्चिरं प्रिये। पूर्वजन्मकृतं कर्म भुञ्जते तदिह प्रजाः।। | 13-223-40a 13-223-40b |
इहैव यत्कर्म कृतं तत्परत्र फलत्युत। एषा व्यवस्थितिर्देवि मानुषेष्वेव दृश्यते।। | 13-223-41a 13-223-41b |
न चर्षीणां न देवानाममृतत्वात्तपोबलात्। तैरेकेन शरीरेण भुज्यते कर्मणः फलम्।। | 13-223-42a 13-223-42b |
न तथा मानुषाणां स्यादन्तर्धाय भवेद्धि तत्।। | 13-223-43a |
उमोवाच। | 13-223-44x |
किमर्थं मानुषा लोके दण्ड्यन्ते पृथिवीश्वरैः। कृतापराधमुद्दिश्य हन्ता हर्ताऽयमित्युत।। | 13-223-44a 13-223-44b |
पुत्रार्थी पुत्रकामेष्ट्या इहैव लभते सुतान्। तैरेव हि शरीरेण भुञ्जन्ते कर्मणां फलम्।। | 13-223-45a 13-223-45b |
दृश्यन्ते मानुषे लोके तद्भवान्नानुमन्यते। एतन्मे संशयस्थानं तन्मे त्वं छेत्तुमर्हसि।। | 13-223-46a 13-223-46b |
महेश्वर उवाच। | 13-223-47x |
स्थाने संशयितं देवि तत्त्वं शृणु समाहिता। कर्म कर्मफलं चेति युगपद्भुवि नेष्यते।। | 13-223-47a 13-223-47b |
ये त्वयाऽभिहिता देवि हन्ता हर्ताऽयमित्यपि। तेषां तत्पूर्वकं कर्म दण्ड्यते यत्र राजभिः।। | 13-223-48a 13-223-48b |
देवि कर्म कृतं चैषां हेतुर्भवति शासने। अपराधापरेशेन राजा दण्डयति प्रजाः।। | 13-223-49a 13-223-49b |
इह लोके व्यवस्थार्थं राजभिर्दण्डनं स्मृतम्। उद्वेजनार्थं शेषाणामपराधं तमुद्दिशन्।। | 13-223-50a 13-223-50b |
पुराकृतफलं दण्डो दण्ड्यमानस्य तद्ध्रुवम्। प्रागेव च मया प्रोक्तं तत्र निःसंशया भव।। | 13-223-51a 13-223-51b |
उमोवाच। | 13-223-52x |
भगवन्भुवि मर्त्यानां दण्डितानां नरेश्वरैः। दण्डेनैव तु तेनेह पापनाशो भवेन्न वा। | 13-223-52a 13-223-52b |
एतन्मया संशयितं तद्भवांश्छेत्तुमर्हति।। | 13-223-53a |
महेश्वर उवाच। | 13-223-53x |
स्थाने संशयितं देवि शृणु तत्वं समाहिता।। | 13-223-53b |
ये नृपैर्दण्डिता भूमावपराधापदेशतः। यमलोके न दण्ड्यन्ते तत्र ते यमदण्डनैः।। | 13-223-54a 13-223-54b |
अदण्डिता वा ये मिथ्या मिथ्या वा दण्डिता भुवि। तान्यमो दण्डयत्येव स हि वेद कृताकृतम्। नातिक्रमेद्यमं कश्चित्कर्म कृत्वेह मानुषः।। | 13-223-55a 13-223-55b 13-223-55c |
राजा यमश्च कुर्वाते दण्डमात्रं तु शोभने। उभाभ्यां यमराजभ्यां दण्डितोऽदण्डितोपि वा। पश्चात्कर्मफलं भुङ्क्ते नरके मानुषेषु वा।। | 13-223-56a 13-223-56b 13-223-56c |
नास्ति कर्मफलच्छेत्ता कश्चिल्लोकत्रयेऽपि च। इति ते कथितं सर्वं निर्विशङ्का भव प्रिये।। | 13-223-57a 13-223-57b |
उमोवाच। | 13-223-58x |
किमर्थं दुष्कृतं कृत्वा मानुषा भुवि नित्यशः। पुनस्तत्कर्मनाशाय प्रायश्चित्तानि कुर्वते।। | 13-223-58a 13-223-58b |
सर्वपापहरं चेति हयमेधं वदन्ति च। प्रायश्चित्तानि चान्यानि पापनाशाय कुर्वते। तस्मान्मया संशयितं त्वं तच्छेत्तुमिहार्हसि।। | 13-223-59a 13-223-59b 13-223-59c |
महेश्वर उवाच। | 13-223-60x |
स्थाने संशयितं देवि शृणु तत्वं समाहिता। संशयो हि महानेव पूर्वेषां च मनीषिणाम्।। | 13-223-60a 13-223-60b |
द्विधा तु क्रियते पापं सद्भिश्चासद्भिरेव च। अभिसन्धाय वा नित्यमन्यथा वा यदृच्छया।। | 13-223-61a 13-223-61b |
केवलं चाभिसन्धाय संरम्भाच्च करोति यत्। कर्मणस्तस्य नाशस्तु न कथंचन विद्यते।। | 13-223-62a 13-223-62b |
अभिसन्धिकृतस्यैव नैव नाशोस्ति कर्मणः। अश्वमेधसहस्रैश्च प्रायश्चित्तशतैरपि।। | 13-223-63a 13-223-63b |
अन्यथा यत्कृतं पापं प्रमादाद्वा यदृच्छया। प्रायश्चित्ताश्वमेधाब्यां श्रेयसा तत्प्रणश्यति।। | 13-223-64a 13-223-64b |
लोकसंव्यवहारार्थं प्रायश्चित्तादिरिष्यते। विद्ध्येवं पापके कार्ये निर्विशङ्का भव प्रिये।। | 13-223-65a 13-223-65b |
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-223-66a |
उमोवाच। | 13-223-67x |
भगवन्देवदेवेश मानुषाश्चेतरा अपि। म्रियन्ते मानुषा लोके कारणाकारणादपि। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-223-67a 13-223-67b 13-223-67c |
महेश्वर उवाच। | 13-223-68x |
ये पुरा मनुजा देवि कारणाकारणादपि। यथाऽसुभिर्वियुज्यन्ते प्राणिनः प्राणिनिर्दर्यः।। | 13-223-68a 13-223-68b |
तथैव ते प्राप्नुवन्ति यथैवात्मकृतं फलम्। विषदास्तु विषेणैव शस्त्रैः शस्त्रेण घातकाः।। | 13-223-69a 13-223-69b |
एवमेव यथा लोके मानुषान्घ्नन्ति मानुषाः। कारणेनैव तेनाथ तता स्वप्राणनाशनम्। प्राप्नुवन्ति पुनर्देवि नास्ति तत्र विचारणा।। | 13-223-70a 13-223-70b 13-223-70c |
इति ते कथितं सर्वं कर्मपाकफलं प्रिये। भूयस्तव समासेन कथयिष्यामि तच्छृणु।। | 13-223-71a 13-223-71b |
सत्यप्रमाणकरणान्नित्यमव्यभिचारि च। यैः पुरा मनुजैर्देवि यस्मिन्काले यथा कृतम्।। | 13-223-72a 13-223-72b |
येनैव कारणेनापि कर्म यत्तु शुभाशुभम्। तस्मन्काले तथा देवि कारणेनैव तेन तु।। | 13-223-73a 13-223-73b |
प्राप्नुवन्ति नराः प्रेत्य निःसन्देहं शुभाशुभम्। इति सत्यं प्रजानीहि लोके तत्र विधिं प्रति।। | 13-223-74a 13-223-74b |
कर्मकर्ता नरो भोक्ता स नास्ति दिवि वा भुवि। न शक्यं कर्म चाभोक्तुं सदेवासुरमानुषैः।। | 13-223-75a 13-223-75b |
कर्मणा ग्रथितो लोक आदिप्रभृति वर्तते। एतदुद्देशतः प्रोक्तं कर्मपाकफलं प्रति।। | 13-223-76a 13-223-76b |
यदन्यच्च मया नोक्तं यस्मिंस्ते कर्मसङ्ग्रहे। बुद्धितर्केण तत्सर्वं तथा वेदितुमर्हसि। कथितं श्रोतुकामाया भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-223-77a 13-223-77b 13-223-77c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 223 ।। |
अनुशासनपर्व-222 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-224 |