महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-007
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति विश्वामित्रस्योत्पत्तिप्रकारकथनेनैव ब्राह्मण्यप्राप्तिप्रकारकधनम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-7-1x |
श्रूयतां पार्थ तत्त्वेन विश्वामित्रो यथा पुरा। ब्राह्मणत्वं गतस्तात् ब्रह्मर्षित्वं तथैव च।। | 13-7-1a 13-7-1b |
भरतस्यान्ववाये वै मिथिलो नाम पार्थिवः। बभूव भरतश्रेष्ठ यज्वा धर्मभृतांवरः।। | 13-7-2a 13-7-2b |
तस्य पुत्रो महानासीञ्जह्नुर्नाम नरेश्वरः। दुहितृत्वमनुप्राप्ता गङ्गा यस्य महात्मनः।। | 13-7-3a 13-7-3b |
तस्यात्मजस्तुल्यगुणः सिन्धुद्वीपो महायशाः। सिन्धुद्वीपाच्च राजर्षिर्बलाकाश्वो महाबलः।। | 13-7-4a 13-7-4b |
वल्लभस्तस्य तनयः साक्षाद्धर्म इवापरः। कुशिकस्तस्य तनयः सहस्राक्षसमद्युतिः।। | 13-7-5a 13-7-5b |
कुशिकस्यात्मजः श्रीमान्गाधिर्नाम जनेश्वरः। अपुत्रः प्रसवेनार्थी वनवासमुपावसत्।। | 13-7-6a 13-7-6b |
कन्या जज्ञे सुतात्तस्य वने निवसतः सतः। नाम्ना सत्यवती नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि।। | 13-7-7a 13-7-7b |
तां वव्रे भार्गवः श्रीमांश्च्यवनस्यात्मसम्भवः। ऋचीक इति विख्यातो विपुले तपसि स्थितः।। | 13-7-8a 13-7-8b |
स तां न प्रददौ तस्मै ऋचीकाय महात्मने। दरिद्र इति मत्वा वै गाधिः शत्रुनिबर्हणः।। | 13-7-9a 13-7-9b |
प्रत्याख्याय पुनर्यान्तमब्रवीद्राजसत्तप्रः। शुल्कं प्रदीयतां मह्यं ततो वत्स्यसि मे सुताम्।। | 13-7-10a 13-7-10b |
ऋचीक उवाच। | 13-7-11x |
किं प्रयच्छामि राजेन्द्र तुभ्यं शुल्कमहं नृप। दुहितुर्ब्रूह्यसंसक्तो माऽभूत्तत्र विचारणा।। | 13-7-11a 13-7-11b |
गाधिरुवाच। | 13-7-12x |
चन्द्ररश्मिप्रकाशानां हयानां वातरहसाम्। एकतः श्यामकर्णानां सहस्रं दाह भार्गव।। | 13-7-12a 13-7-12b |
भीष्म उवाच। | 13-7-13x |
ततः स भृगुशार्दूलश्च्यवनस्यात्मजः प्रभुः। अब्रवीद्वरुणं देवमादित्यं पतिमम्भसाम्।। | 13-7-13a 13-7-13b |
एकतः श्यामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम्। सहस्रं वातवेगानां भिक्षे त्वां देवसत्तम।। | 13-7-14a 13-7-14b |
तथेति वरुणो देव आदित्यो भृगुसत्तमम्। उवाच यत्र ते च्छन्दस्तत्रोत्थास्यन्ति वाजिनः।। | 13-7-15a 13-7-15b |
ध्यातमात्रे ऋचीकेन हयानां चन्द्रवर्चसाम्। गङ्गाजलात्समुत्तस्थौ सहस्रं विपुलौजसाम्।। | 13-7-16a 13-7-16b |
अदूरे कान्यकुब्जस्य गङ्गायास्तीरमुत्तमम्। अश्वतीर्थं तदद्यापि मानवाः परिचक्षते।। | 13-7-17a 13-7-17b |
ततो वै गाधये तात सहस्रं वाजिनां शुभम्। ऋचीकः प्रददौ प्रीतः शुल्कार्थं तपतां वरः।। | 13-7-18a 13-7-18b |
ततः स विस्मितो राजा गाधिः शापभयेन च। ददौ तां समलङ्कृत्य कन्यां भृगुसुताय वै।। | 13-7-19a 13-7-19b |
जग्राह विधिवत्पाणिं तस्या ब्रह्मर्षिसत्तमः। सा च तं पतिमासाद्य परं हर्षमवाप ह।। | 13-7-20a 13-7-20b |
स तुतोष च ब्रह्मर्षिस्तस्या वृत्तेन भारत। छन्दयामास चैवैनां वरेण वरवर्णिनीम्।। | 13-7-21a 13-7-21b |
मात्रे तत्सर्वमाचख्यौ सा कन्या राजसत्तम। अथतामब्रवीन्माता सुतां किञ्चिदवाङ्मुखीम्।। | 13-7-22a 13-7-22b |
ममापि पुत्रि भर्ता ते प्रसादं कर्तुमर्हति। अपत्यस्य प्रदानेन समर्थश्च महातपाः।। | 13-7-23a 13-7-23b |
ततः सा त्वरितं गत्वा तत्सर्वं प्रत्यवेदयत्। मातुश्चिकीर्षितं राजन्ऋचीकस्तामथाब्रवीत्।। | 13-7-24a 13-7-24b |
गुणवन्तं च पुत्रं वै त्वं च साऽथ जनिष्यथ। जनन्यास्तव कल्याणि मा भूद्वै प्रणयोऽन्यथा।। | 13-7-25a 13-7-25b |
तव चैव गुणश्लाघी पुत्र उत्पत्स्यते महान्। अस्मद्वंशकरः श्रीमांस्तव भ्राता च वंशकृत्।। | 13-7-26a 13-7-26b |
ऋतुस्नाता च साऽश्वत्थं त्वं च वृक्षमुदुम्बरम्। परिष्वजेतं कल्याणि तत इष्टमवाप्स्यथः।। | 13-7-27a 13-7-27b |
चरुद्वयमिदं चैव मन्त्रपूतं शुचिस्मिते। त्वं च सा चोपभुञ्जीतं ततः पुत्राववाप्स्यथः।। | 13-7-28a 13-7-28b |
ततः सत्यवती हृष्टा मातरं प्रत्यभाषत। यदृचीकेन कथितं तच्चाचख्यौ चरुद्वयम्।। | 13-7-29a 13-7-29b |
तामुवाच ततो माता सुतां सत्यवतीं तदा। पुत्रि पूर्वोपपन्नायाः कुरुष्व वचनं मम।। | 13-7-30a 13-7-30b |
भर्त्रा य एष दत्तस्ते चरुर्मन्त्रपुरस्कृतः। एनं प्रयच्छ मह्यं त्वं मदीयं त्वं गृहाण च।। | 13-7-31a 13-7-31b |
व्यत्यासं वृक्षयोश्चापि करवाव शुचिस्मिते। यदि प्रमाणं वचनं मम मातुरनिन्दिते।। | 13-7-32a 13-7-32b |
स्वमपत्यं विशिष्टं हि सर्व इच्छत्यनाविलम्। व्यक्तं भगवता चात्र कृतमेवं भविष्यति।। | 13-7-33a 13-7-33b |
ततो मे त्वच्चरौ भावः पादपे च समुध्यमे। कथं विशिष्टो भ्राता मे भवेदित्येव चिन्तय | 13-7-34a 13-7-34b |
तथाच कृतवत्यौ ते माता सत्यवती च सा। अथ गर्भावनुप्राप्ते उभे ते वै युधिष्ठिर।। | 13-7-35a 13-7-35b |
दृष्ट्वा गर्भमनुप्राप्तां भार्यां स च महानृषिः। उवाच तां सत्यवतीं दुर्मना भृगुसत्तमः।। | 13-7-36a 13-7-36b |
व्यत्यासेनोपयुक्तस्ते चरुर्व्यक्तं भविष्यति। व्यत्यासः पादपे चापि सुव्यक्तं ते कृतः शुभे।। | 13-7-37a 13-7-37b |
मया हि विश्वं यद्ब्राह्म त्वच्चरौ सन्निवेशितम्। क्षत्रवीर्यं च सकलं चरौ तस्या निवेशितम्।। | 13-7-38a 13-7-38b |
त्रैलोक्यविख्यातगुणं त्वं विप्रं जनयिष्यसि। सा च क्षत्रं विशिष्टं वै तत एतत्कृतं मया।। | 13-7-39a 13-7-39b |
व्यत्यासस्तु कृतो यस्मात्त्वया मात्रा च ते शुभे। तस्मात्सा ब्राह्मणं श्रेष्ठं माता ते जनयिष्यति।। | 13-7-40a 13-7-40b |
क्षत्रियं तूग्रकर्माणं त्वं भद्रे जनयिष्यसि। न हि ते तत्कृतं साधु मातृस्नेहेन भामिनि।। | 13-7-41a 13-7-41b |
सा श्रुत्वा शोकसंतप्ता पपात वरवर्णिनी। भूमौ सत्यवती राजंश्छिन्नेव रुचिरा लता।। | 13-7-42a 13-7-42b |
प्रतिलभ्य च सा सञ्ज्ञां शिरसा प्रणिपत्य च। उवाच भार्या भर्तारं गाधेयी भार्गवर्षभम्।। | 13-7-43a 13-7-43b |
प्रसादयन्त्यां भार्यायां मयि ब्रह्मविदांवर। प्रसादं कुरु विप्रर्षे न मे स्यात्त्रत्रियः सुतः।। | 13-7-44a 13-7-44b |
कामं ममोग्रकर्मा वै पौत्रो भवितुमर्हति। न तु मे स्यात्सुतो ब्रह्मन्नेष मे दीयतां वरः।। | 13-7-45a 13-7-45b |
एवमस्त्विति होवाच स्वां भार्यां सुमहातपाः। ततः सा जनयामास जमदग्निं सुतं शुभम्।। | 13-7-46a 13-7-46b |
विश्वामित्रं चाजनयद्गाधिभार्या यशस्विनी। ऋषेः प्रसादाद्राजेन्द्र ब्रह्मर्षि ब्रह्मवादिनम्।। | 13-7-47a 13-7-47b |
ततो ब्राह्मणतां यातो विश्वामित्रो महातपाः। क्षत्रियः सोऽप्यथ तथा ब्रह्मवंशस्य कारकः।। | 13-7-48a 13-7-48b |
तस्य पुत्रा महात्मानो ब्रह्मवंशविवर्धनाः। तपस्विनो ब्रह्मविदो गोत्रकर्तार एव च।। | 13-7-49a 13-7-49b |
मधुच्छन्दश्च भगवान्देवरातश्च वीर्यवान्। अक्षीणश्च शकुन्तश्च बभ्रुः कालपथस्तथा।। | 13-7-50a 13-7-50b |
याज्ञवल्क्यश्च विख्यातस्तथा स्थूणो महाव्रतः। उलूको यमदूतश्च तथर्षिः सैन्धवायनः।। | 13-7-51a 13-7-51b |
पर्णजङ्घश्च भगवान्गावलश्च महानृषिः। ऋषिर्वज्रस्तथा ख्यातः सालङ्कायन एव च।। | 13-7-52a 13-7-52b |
लीलाढ्यो नारदश्चैव तथा कूर्चामुखः स्मृतः। वादुलिर्मुसलश्चैव वक्षोग्रीवस्तथैव च। | 13-7-53a 13-7-53b |
आङ्घ्रिको नैकदृक्चैव शिलायूपः सितः शुचिः। चक्रको मारुतन्तव्यो वातघ्नोऽथाश्वलायनः।। | 13-7-54a 13-7-54b |
श्यामायनोऽथ गार्ग्यश्च जाबालिः सुश्रुतस्तथा। कारीषिरथ संश्रुत्यः परपौरवतन्तवः।। | 13-7-55a 13-7-55b |
महानृषिश्च कपिलस्तथर्षिस्ताडकायनः। तथैव चोपगहनस्तथर्षिश्चासुरायणः।। | 13-7-56a 13-7-56b |
मार्दमर्षिर्हिरण्याक्षो जङ्गारिर्बाभ्रवायणिः। भूतिर्विभूतिः सूतश्च सुरकृत्तु तथैव च।। | 13-7-57a 13-7-57b |
अरालिर्नाचिकश्चैव चाम्पेयोज्जयनौ तथा। नवतन्तुर्बकनखः सेयनो यतिरेव च।। | 13-7-58a 13-7-58b |
अम्भोरुदश्चारुमत्स्यः शिरीषी चाथ गार्दभिः। ऊर्जयोनिरुदापेक्षी नारदी च महानृषिः। विश्वामित्रात्मजाः सर्वे मुनयो ब्रह्मवादिनः।। | 13-7-59a 13-7-59b 13-7-59c |
तथैव क्षत्रियो राजन्विश्वामित्रो महातपाः। ऋचीकेनाहितं ब्रह्म परमेतद्युधिष्ठिर।। | 13-7-60a 13-7-60b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं तत्वेन भरतर्षभ। विश्वामित्रस्य वै जन्म सोमसूर्याग्नितेजसः।। | 13-7-61a 13-7-61b |
यत्रयत्र च सन्देहो भूयस्ते राजसत्तम। तत्रतत्र च मां ब्रूहि च्छेत्ताऽस्मि तव संशयान्।। | 13-7-62a 13-7-62b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तमोऽध्यायः।। 7 ।। |
13-7-1 ब्राह्मणेष्वपि ऋषित्वं मन्त्रद्रष्टृत्वं गोत्रप्रवर्तकत्वं वा।। 13-7-2 भरतस्यान्वये चैवाजमीढ इति झ.पाठः।। 13-7-5 पिप्पलस्तस्य तनय इति य, पाठः। पल्लवस्तस्येति ट. पाठः।। 13-7-6 प्रसवेन सोमाभिषवनिमित्तेन। अर्थी पुत्रार्थी।। 13-7-7 सुतात् सोमा भिषवोपलक्षिकताद्यज्ञात्।। 13-7-8 भार्गवो भृगोर्गोत्रापत्यम्।। 13-7-10 वत्स्यसि उद्वाहेन प्राप्स्यसि।। 13-7-11 असंसक्तो निःसंशयः।। 13-7-13 आदित्यमदितेः पुत्रम्।। 13-7-15 वरेण पुत्रं ते दास्यामीत्यनुग्रहेण।। 13-7-30 पूर्वोपपन्नाया भर्तुः सम्बन्धात्पूर्वमुपपन्नायाः गुरुत्वेन प्राप्तायास्तव भर्त्रपेक्षयाहं गरीयसीत्यर्थः। पुत्रि पूर्वप्रपन्नाया इति ट.ध पाठः।। 13-7-44 क्षत्रियः क्षत्रियवदुग्रक्रमा।। 13-7-53 ऊर्घ्वलिर्मुसलश्चेति ट.ध.पाठ।।
अनुशासनपर्व-006 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-008 |