महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-179
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कीटोपाख्यानकथनम्।। 1 ।। कीटेन व्यासंप्रतति स्वपूर्वजन्मवृत्तान्तकथनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-179-1x |
अकामाश्च सकामाश्च ये हताः स्म महामृधे। कां योनिं प्रतिपन्नास्ते तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-179-1a 13-179-1b |
दुःखं प्राणपरित्यागः पुरुषाणां महामृधे। जानामि चाहं धर्मज्ञ प्राणत्यागं सुदुष्करम्।। | 13-179-2a 13-179-2b |
समृद्दे वाऽसमृद्धे वा शुभे वा यदि वाऽशुभे। `संसारेऽस्मिन्सदाजाताः प्राणिनोऽभिरताःकथम् कारणं तत्र मे ब्रूहि सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः।। | 13-179-3a 13-179-3b 13-179-3c |
भीष्म उवाच। | 13-179-4x |
समृद्धे वाऽसमृद्धे वा शुभे वा यदि वाऽशुभे। संसारेऽस्मिन्समे जाताः प्राणिनः पृथिवीपते।। | 13-179-4a 13-179-4b |
निरता येन भावेन तत्र मे शृणु कारणम्। सम्यक्चायमनुप्रश्नस्त्वयोक्तस्तु युधिष्ठिर।। | 13-179-5a 13-179-5b |
अत्र ते वर्तयिष्यामि पुरावृत्तमिदं नृप। द्वैपायनस्य संवादं कीटस्य च युधिष्ठिर।। | 13-179-6a 13-179-6b |
ब्रह्मिभूतश्चरन्विप्रः कृष्णद्वैपायनः पुरा। ददर्श कीटं धावन्तं शीघ्रं शकटवर्त्मनि।। | 13-179-7a 13-179-7b |
गतिज्ञः सर्वभूतानां रुतज्ञश्च शरीरिणाम्। सर्वज्ञस्त्वरितं दृष्ट्वा कीटं वचनमब्रवीत्।। | 13-179-8a 13-179-8b |
कीट संत्रस्तरूपोऽसि त्वरितश्चैव लक्ष्यसे। क्व च वासस्तदाचक्ष्व कुतस्ते भयमागतम्।। | 13-179-9a 13-179-9b |
कीट उवाच। | 13-179-10x |
शकटव्रजस्य महतो घोषं श्रुत्वा भयं मम। आगतं वै महाबुद्धे स्वन एष हि दारुणः।। | 13-179-10a 13-179-10b |
श्रूयते तु स मा हन्यादिति ह्यस्मादपक्रमे। श्वसतां च शृणोम्येनं गोवृषाणां प्रतोद्यताम्।। | 13-179-11a 13-179-11b |
वहतां सुमहाभारं सन्निकर्षे स्वनं प्रभो। नृणां च संवाहयतां श्रूयन्ते विविधाः स्वनाः।। | 13-179-12a 13-179-12b |
वोढुमस्मद्विधेनैव न शक्यः कीटयोनिना। तस्मादतिक्रमाम्येष भयादस्मात्सुदारुणात्।। | 13-179-13a 13-179-13c |
दुःखं हि मृत्युर्भूतानां जीवितं च सुदुर्लभम्। अतो भीतः पलायामि गच्छेयं नापदं यथा।। | 13-179-14a 13-179-14b |
भीष्म उवाच। | 13-179-15x |
इत्युक्तः स तु सं प्राह कुतः कीट सुखं तव। मरणं ते सुखं मन्ये तिर्यग्योनौ हि वर्तसे।। | 13-179-15a 13-179-15b |
शब्दं स्पर्शं रसं गन्धं भोगांश्चोच्चावचान्बहून्। नाभिजानासि कीट त्वं श्रेयो मरणमेव ते।। | 13-179-16a 13-179-16b |
कीट उवाच। | 13-179-17x |
सर्वत्र निरतो जीव इहापि च सुखं मम। चेतयामि महाप्राज्ञ तस्मादिच्छामि जीवितुम्।। | 13-179-17a 13-179-17b |
इहापि विषयः सर्वो यथादेहं प्रवर्तितः। मनुष्यास्तिर्यगाश्चैव पृथग्भोगा विशेषतः।। | 13-179-18a 13-179-18b |
अहमासं मनुष्यो वै शूद्रो बहुधनः प्रभो। अब्रह्मण्यो नृशंसश्च कदर्यो बुद्धिजीवनः।। | 13-179-19a 13-179-19b |
वाक्श्लक्ष्णो ह्यकृतप्रज्ञो द्वेष्टा विश्वस्य कर्मणः। मिथोगुप्तनिधिर्नित्यं परस्वहरणे रतः।। | 13-179-20a 13-179-20b |
भृत्यातिथिजनश्चापि गृहेऽपर्यशितो मया। मात्सर्यात्स्वादुकामेन नृशंसेन बुभुक्षता।। | 13-179-21a 13-179-21b |
देवार्थं पितृयज्ञार्थं न च श्राद्धं कृतं मया। न दत्तमन्नकामेषु दत्तमन्नं लुनामि च।। | 13-179-22a 13-179-22b |
गुप्तं शरणमाश्रित्य भयेषु शरणागतान्। त्यक्त्वाऽकस्मान्निशायां च न दत्तमभयं मया।। | 13-179-23a 13-179-23b |
धनं धान्यं प्रियान्दारान्यानं वासस्तथाऽद्भुतम्। श्रियं दृष्ट्वा मनुष्याणामसूयामि निरर्थकम्।। | 13-179-24a 13-179-24b |
ईर्ष्युः परसुखं दृष्ट्वा अन्यस्य न बुभूषकः। त्रिवर्गहन्ता चान्येषामात्मकामानुवर्तकः।। | 13-179-25a 13-179-25b |
नृशंसगुणभूयिष्ठं पुरा कर्म कृतं मया। स्मृत्वा तदनुतप्येऽहं हित्वा प्रियमिवात्मजम्।। | 13-179-26a 13-179-26b |
शुभानां नाभिजानामि कृतानां कर्मणां फलम्। माता च पूजिता वृद्धा ब्राह्मणश्चार्चितो मया।। | 13-179-27a 13-179-27b |
सकृज्जातिगुणोपेतः सङ्गत्या गृहमागतः। अतिथिः पूजितो ब्रह्मंस्तेन मां नाजहात्स्मृतिः।। | 13-179-28a 13-179-28b |
कर्मणामेव चैवाहं सुखाशामिव लक्षये। तच्छ्रोतुमहमिच्छामि त्वत्तः श्रेयस्तपोधन।। | 13-179-29a 13-179-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 179 ।। |
13-179-19 कदर्यो वृद्धिजीवनः इति झ.पाठः।। 13-179-25 न बुभूषकः अनैश्वर्यमिच्छन्।।
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