महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-198
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भाष्मेणि युधिष्ठिरंप्रति भोज्याभोज्यान्नकानां भोजनीयानां जनानां च विवेचनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-198-1x |
के भोज्या ब्राह्मणस्येह के भोज्याः क्षत्रियस्य ह। तथा वैश्यस्य के भोज्याः के शूद्रस्य च भारत।। | 13-198-1a 13-198-1b |
भीष्म उवाच। | 13-198-2x |
ब्राह्मणा ब्राह्मणस्येह भोज्या ये चैव क्षत्रियाः। वैश्याश्चापि तथा भोज्याः शूद्राश्च परिवर्जिताः।। | 13-198-2a 13-198-2b |
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या भोज्या वै क्षत्रियस्य ह। वर्जनीयास्तु वै शूद्राः सर्वभक्षा विकर्मिणः।। | 13-198-3a 13-198-3b |
वैश्यास्तु भोज्या विप्राणां क्षत्रियाणां तथैव च। नित्याग्नयो विविक्ताश्च चातुर्मास्यरताश्च ये।। | 13-198-4a 13-198-4b |
शूद्राणामथ यो भुङ्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्। मलं नृणां स पिबति मलं भुङ्क्ते जनस्य च।। | 13-198-5a 13-198-5b |
शूद्राणां यस्तथा भुङ्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्। पृथिवीमलमश्नन्ति ये द्विजाः शूद्रभोजिनः।। | 13-198-6a 13-198-6b |
शूद्रस्य कर्मनिष्ठायां विकर्मस्थोपि पच्यते। ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो विकर्मस्थश्च पच्यते।। | 13-198-7a 13-198-7b |
स्वाध्यायनिरता विप्रास्तथा स्वस्त्ययने नृणाम्। रक्षणे क्षत्रियं प्राहुर्वैश्यं पुष्ट्यर्थमेव च।। | 13-198-8a 13-198-8b |
करोति कर्म यद्वैश्यस्तद्गत्वा ह्युपजीवति। कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यमकुत्सा वैश्यकर्मणि।। | 13-198-9a 13-198-9b |
शूद्रकर्म तु यः कुर्यादवहाय स्वकर्म च। स विज्ञेयो यथा शूद्रो न च भोज्यः कदाचन।। | 13-198-10a 13-198-10b |
चिकित्सकः काण्डपृष्ठः पुराऽध्यक्षः पुरोहितः। सांवत्सरो वृथाध्यायी सर्वे ते शूद्रसंमिताः।। | 13-198-11a 13-198-11b |
शूद्रकर्मस्वथैतेषु यो भुङ्क्ते निरपत्रपः। अभोज्यभोजनं भुक्त्वा भयं प्राप्नोति दारुणम्।। | 13-198-12a 13-198-12b |
कुलं वीर्यं च तेजश्च तिर्यग्योनित्वमेव च। स प्रयाति यथा श्वा वै निष्क्रियो धर्मवर्जितः।। | 13-198-13a 13-198-13b |
भुङ्क्ते चिकित्सकस्यान्नं तदन्नं च पुरीषवत्। पुंश्चल्यन्नं च मूत्रं स्यात्कारुकान्नं च शोणितम्।। | 13-198-14a 13-198-14b |
विद्योपजीविनोऽन्नं च यो भुङ्क्ते साधुसम्मतः। तदप्यन्नं यथा शौद्रं तत्साधुः परिवर्जयेत्।। | 13-198-15a 13-198-15b |
वचनीयस्य यो भुङ्क्ते तमाहुः शोणितं ह्रदम्। पिशुनं भोजनं भुङ्क्ते ब्रह्महत्यासमं विदुः।। | 13-198-16a 13-198-16b |
असत्कृतमवज्ञातं न भोक्तव्यं कदाचन।। | 13-198-17a |
व्याधिं कुलक्षयं चैव क्षिप्रं प्राप्नोति ब्राह्मणः। नगरीरक्षिणो भुङ्क्ते श्वपचप्रवणो भवेत्।। | 13-198-18a 13-198-18b |
गोघ्ने च ब्राह्मणघ्ने च सुरापे गुरुतल्पगे। भुक्त्वाऽन्नं जायते विप्रो रक्षसां कुलवर्धनः।। | 13-198-19a 13-198-19b |
न्यासापहारिणो भुक्त्वा कृतघ्ने क्लीबवर्तिनि। जायते शबरावासे मध्यदेशबहिष्कृते।। | 13-198-20a 13-198-20b |
अभोज्याश्चैव भोज्याश्च मया प्रोक्ता यथाविधि। किमन्यदद्य कौन्तेय मत्तस्त्वं श्रोतुमिच्छसि।।] | 13-198-21a 13-198-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 198 ।। |
13-198-1 के भोज्या भोज्यान्नाः।। 13-198-4 वैश्या भोज्या भोजनीयाः।। 13-198-7 शूद्रस्य कर्मनिष्ठायां सेवायां वर्तमानो विकर्मस्थो विशिष्टकर्मस्थः संध्यावन्दनादियुक्तोऽपि पच्यते नरके इति शेषः।। 13-198-11 काण्डपृष्ठोऽधमः।। 13-198-16 पिशुनं तत्सम्बन्धि।। 13-198-18 नगरीं रक्षति तस्य।।
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