महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-080
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति वैवाहिकविध्यादेर्दायार्हतादेश्च कथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच | 13-80-1x |
कन्यायां प्राप्तशुल्कायां पतिश्चेन्नास्ति कश्चन। तत्र का प्रतिपत्तिः स्यात्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-80-1a 13-80-1b |
भीष्म उवाच। | 13-80-2x |
या पुत्रकस्य ऋद्धस्य प्रतिपाल्या तदा भवेत्। अथवा सा हरेच्छुल्कं क्रीता शुल्कप्रदस्य सा।। | 13-80-2a 13-80-2b |
तस्यार्थेऽपत्यमीहेव येन न्यायेन शक्नुयात्। न तस्मान्मन्त्रवत्कार्यं कश्चित्कुर्वीत किञ्चन।। | 13-80-3a 13-80-3b |
स्वयंवृतेन साज्ञप्ता पित्रा वै प्रत्यपद्यत। तत्तस्यान्ये प्रशंसन्ति धर्मज्ञा नेतरे जनाः।। | 13-80-4a 13-80-4b |
एतत्तु नापरे चक्रुरपरे जातु साधवः। साधूनां पुनराचारो गरीयान्धर्मलक्षणः।। | 13-80-5a 13-80-5b |
अस्मिन्नेव प्रकारे तुसुक्रतुर्वाक्यमब्रवीत्। नप्ता विदेहराजस्य जनकस्य महात्मनः।। | 13-80-6a 13-80-6b |
असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम्। अनुप्रश्नः संशयो वा सतामेवमुपालभेत्।। | 13-80-7a 13-80-7b |
असदेव हि धर्मस्य प्रदानं धर्म आसुरः। नानुशुश्रुम जात्वेनामिमां पूर्वेषु कर्मसु।। | 13-80-8a 13-80-8b |
भार्यापत्योर्हि सम्बन्धः स्त्रीपुंसोस्तुल्य एव तु। रतिः साधारणो धर्म इति चाह स पार्थिवः।। | 13-80-9a 13-80-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-80-10x |
अथ केन प्रमाणेन पुंसामादीयते धनम्। पुत्रवद्धि पितुस्तस्य कन्या भवितुमर्हति।। | 13-80-10a 13-80-10b |
भीष्म उवाच। | 13-80-11x |
यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा। तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्।। | 13-80-11a 13-80-11b |
मातुश्च यौतकं यत्स्यात्कुमारीभाग एव सः। दौहित्र एव तद्रिक्थमपुत्रस्य पितुर्हरेत्।। | 13-80-12a 13-80-12b |
ददाति हि स पिण्डान्वै पितुर्मातामहस्य च। पुत्रदौहित्रयोरेव विशेषो नास्ति धर्मतः।। | 13-80-13a 13-80-13b |
अन्यत्र जामया सार्धं प्रजानां पुत्र ईहते। दुहिताऽन्यत्र जातेन पुत्रेणापि विशिष्यते।। | 13-80-14a 13-80-14b |
दौहित्रकेण धर्मेण तत्र पश्यामि कारणम्। विक्रीतासु हि ये पुत्रा भवन्ति पितुरेव ते।। | 13-80-15a 13-80-15b |
असूयवस्त्वधर्मिष्ठाः परस्वादायिनः शठाः। आसुरादधिसम्भूता धर्माद्विषमवृत्तयः।। | 13-80-16a 13-80-16b |
अत्र गाथा यमोद्गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः। धर्मज्ञा धर्मशास्त्रेषु निबद्धा धर्मसेतुषु।। | 13-80-17a 13-80-17b |
यो मनुष्यः स्वकं पुत्रं विक्रीय धनमिच्छति। कन्यां वा जीवितार्थाय यः शुल्केन प्रयच्छति।। | 13-80-18a 13-80-18b |
सप्तावरे महाघोरे निरये कालसाह्वये। स्वेदं मूत्रं पुरीषं च तस्मिन्मूढः समश्नुते।। | 13-80-19a 13-80-19b |
आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैव तत्। अल्पो वा बहु वा राजन्विक्रयस्तावदेव सः।। | 13-80-20a 13-80-20b |
यद्यप्याचरितः कैश्चिन्नैष धर्मः सनातनः। अन्येषामपि दृश्यन्ते लोभतः सम्प्रवृत्तयः।। | 13-80-21a 13-80-21b |
वश्यां कुमारीं बलतो ये तां समुपभुञ्जते। एते पापस्य कर्तारस्तमस्यन्धे च शेरते।। | 13-80-22a 13-80-22b |
अन्योप्यथ न विक्रेयो मनुष्यः किं पुनः प्रजाः। अधर्ममूलैर्हि धनैस्तैर्न धर्मोऽथ कश्चन।। | 13-80-23a 13-80-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अशीतितमोऽध्यायः।। 80।। |
13-80-1 शुल्कदश्चेत्प्रोषितस्तद्भयादन्यश्च न वृणुते तदा तत्पित्रा किं कर्तव्यमिति प्रश्नार्थः।। 13-80-2 या कन्याः पितुः प्रतिपाल्या पिता च यदि तत् शुल्कं परपक्षीयेभ्यः परावृत्य न दद्यात्तर्हि सा कन्या शुल्कप्रदस्यैव ज्ञेया।। 13-80-4 स्वयंवृतेति सावित्रीति धर्मज्ञानपरा जना इति च.ध.पाठः।। 13-80-8 धर्मस्य स्इत्रीणामस्वातन्त्र्यलक्षणस्य धर्मस्य प्रदानं खण्डनं यत्स आसुरो धर्मः एतां पद्धतिम्। पूर्वेषु वृद्धेषु। कर्मसु विवाहेषु। जात्वेव तदिदं पूर्वजन्म्सविति ध.पाठः।। 13-80-14 जामया कन्ययापि तामपेक्ष्येत्यर्थः। अन्यत्र जायते सोपि प्रजया पुत्र ईयते इति ट.थ.ध.पाठः।। 13-80-19 कालसाह्नये कालसूत्राख्ये।। 13-80-22 बलतो वश्यां नतु स्वच्छन्दत इत्यर्थः।। 13-80-23 अन्योपि पशुरपि।।
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