महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-233
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महेश्वरेणोमांप्रति मांसभक्षणाभक्षणयोर्दोषगुणकथनम्।। 1 ।। गुरुप्रशंसनपूर्वकं तत्पूजादिफलकथनम्।। 2 ।। तथा तीर्थस्नानोपवासादिफलकथनम्।। 3 ।।
अत्थापयामास तदा प्रभुरेकः प्रजापतिः।
उवाच चैनं भगवांश्चिरस्यागतमात्मजम्।। 12-360-13a
12-360-13b
12-360-13c स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोसि मेऽन्तिकम्।
कच्चित्ते कुशलं पुत्र स्वाध्यायतपसोः सदा।
नित्यमुग्रतपास्त्वं हि ततः पृच्छामि ते पुनः।। 12-360-14a
12-360-14b
12-360-14c किंनु तत्सदनं श्रेष्ठं क्षुत्पिपासाविवर्जितम्।
सुरासुरैरध्युपितमृषिभिश्चामितप्रभैः।। 12-360-18a
12-360-18b ततस्तमीश्वरादिष्टा बुद्धिः क्षिप्रं विवेश सा।। अवश्यमेव तैः सर्वैर्वरदानेन दर्पितैः।
बाधितव्याः सुरगणा ऋषयश्च तपोधनाः।। 12-359-32a
12-359-32b निग्रहेण च पापानां साधूनां प्रग्रहेण च।
इदं तपस्विनी सत्या धारयिष्यति मेदिनी।। तेषां त्वत्तः प्रसूतानां कुलभेदो भविष्यति।
परस्परविनाशार्थं त्वामृते द्विजसत्तम।। तत्राप्यनेकधा वेदान्भेत्स्यसे तपसाऽन्वितः।
कृष्णे युगे च संप्राप्ते कृष्णवर्णो भविष्यसि।। 12-359-46a
12-359-46b धर्माणां विविधानां च कर्ता ज्ञानकरस्तथा।
भविष्यसि तपोयुक्तो न च रागाद्विमोक्ष्यसे।। भूतभव्यभविष्याणां ज्ञानानां वेत्स्यसे गतिम्।
ये ह्यतिक्रान्तकाः पूर्वं सहस्रसुगपर्ययाः।। 12-359-52a
12-359-52b तांश्च सर्वान्मयोद्दिष्टान्द्रक्ष्यसे तपसाऽन्वितः।
पुनर्द्रक्ष्यसि चानेकसहस्रयुगपर्ययान्।। * शनैश्चरः सूर्यपुत्रो भविष्यति मनुर्महान्।
तस्मिन्मन्वन्तरे चैव मन्वादिगणपूर्वकः।
त्वमेव भविता वत्स मत्प्रसादान्न संशयः।। 12-359-55a
12-359-55b
12-359-55c पुनश्च जातो विख्यातो वसिष्ठकुलनन्दनः।। तदेतत्कथितं जन्म मया पूर्वकमात्ममः।
नारायणप्रसादेन तदा नारायणांशजम्।। 12-359-60a
12-359-60b मया हि सुमहत्तप्तं तपः परमदारुणम्।
पुरा मतिमतां श्रेष्ठाः परमेण समाधिना।। 12-359-61a
12-359-61b एतद्वः कथितं सर्वं यन्मां पृच्छत पुत्रकाः।
पूर्वजन्म भविष्यं च भक्तानां स्नेहतो मया।। 12-359-62a
12-359-62b
जनमेजय उवाच। | 13-233-1x | |
बहवः पुरुषा ब्रह्मन्नुताहो एक एव तु। को ह्यत्र पुरुषः श्रेष्ठः को वा योनिरिहोच्यते।। | 12-360-1a 12-360-1b | |
वैशंपायन उवाच। | 12-360-2x | |
बहवः पुरुषा लोके साङ्ग्ययोगविचारणे। नैतदिच्छन्ति पुरुषमेकं कुरुकुलोद्वह।। | 12-360-2a 12-360-2b | |
बहनां पुरुषाणां च यथैका योनिरुच्यते। तथा तं पुरुषं विश्वं व्याख्यास्यामि गुणाधिकम्।। | 12-360-3a 12-360-3b | |
नमस्कृत्वा च गुरवे व्यासाय विदितात्मने। तपोयुक्ताय दान्ताय वन्द्याय परमपये।। | 12-360-4a 12-360-4b | |
इदं पुरुषसूक्तं हि सर्ववेदेषु पार्थिव। ऋतं सत्यं च विख्यातमृपिसिंहेन चिन्तितम्।। | 12-360-5a 12-360-5b | |
उत्सर्गेणापवादेन ऋषिभिः कपिलादिभिः। अध्यान्मचिन्तामाश्रित्य शास्त्राण्युक्तानि भारत।। | 12-360-6a 12-360-6b | |
समासतेस्तु यद्व्यासः पुरुषैकत्वमुक्तवान्। तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि प्रसादादमितौजसः।। | 12-360-7a 12-360-7b | |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ब्रह्मणा सह संवादं त्र्यम्बकस्य विशांपते।। | 12-360-8a 12-360-8b | |
क्षीरोदस्य समुद्रस्य मध्ये हाटकसप्रभः। वैजयन्त इति ख्यातः पर्वतप्रवरो नृप।। | 12-360-9a 12-360-9b | |
तत्राध्यात्मगतिं देव एकाकी प्रविचिन्तयन्। वैराजसदनान्नित्यं वैजयन्तं निपेवते।। | 12-360-10a 12-360-10b | |
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अथ तत्राऽऽसतस्तस्य चतुर्वक्रस्य धीमतः। ललाटप्रभवः पुत्रः शिव आगाद्यदृच्छया। आकाशेन महायोगी पुरा त्रिनयनः प्रभुः।। | 12-360-11a 12-360-11b 12-360-11c
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ततः खान्निपपाताशु धरणीधरमूर्धनि। अग्रतश्चाभवत्प्रीतो ववन्दे चापि पादयोः।। | 12-360-12a 12-360-12b
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पितामह उवाच। | 12-360-14x | |
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रुद्र उवाच। | 12-360-15x | |
त्वत्प्रसादेन भगवन्स्वाध्यायतपसोर्मम। कृशलं चाव्ययं चैव सर्वस्य जगतस्त्वथ।। | 12-360-15a 12-360-15b | |
चिरदृष्टोमि भगवन्वैराजसदने मया। ततोऽहं पर्वतं प्राप्तस्त्विमं त्वत्पादसेवितम्।। | 12-360-16a 12-360-16b | |
नैतत्कारणमल्पं हि भविष्यति पितामह।। | 12-360-17a 12-360-17b | |
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गन्धर्वैरेप्सरोभिश्च सततं संनिषेवितम्। उत्सृज्येमं गिरिवरमेकाकी प्राप्तवानसि।। | 12-360-19a 12-360-19b ब्रह्मोवाच। 12-360-20x | |
वैजयन्तो गिरिवरः सततं सेव्यते मया। | ||
रुद्र उवाच। | 12-360-21x | |
बहवः पुरुषा ब्रह्मंस्त्वया सृष्टाः स्वयंभुव। सृज्यन्ते चापरे ब्रह्मन्स चैकः पुरुषो विराट्।। | 12-360-21a 12-360-21b | |
को ह्यसौ चिन्त्यते ब्रह्मंस्त्वयैकः पुरुषोत्तमः। एतन्मे संशयं छिन्धि महत्कौतूहलं हि मे।। | 12-360-22a 12-360-22b | |
ब्रह्मोवाच। 12-360-23x | ||
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बहवः पुरुषाः पुत्र त्वया ये समुदाहृताः। | ||
बहूनां पुरुषाणां स यथैका योनिरुच्यते।। | 12-360-24a 12-360-24b | |
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तथा तं पुरुषं विश्वं परमं सुमहत्तमम्। | ||
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 360।। | ||
12-359-25c | ||
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अथैनं बुद्धिसंयुक्तं पुनः स ददृशे हरिः। भूयश्चैव वचः प्राह सृजेमा विविधाः प्रजाः।। | 12-359-26a 12-359-26b | |
एवमुक्त्वा स भगवांस्तत्रैवान्तरधायत।। | 12-359-27a 12-359-27b | |
प्राप चैनं मुहूर्तेन स्वं स्थानं देवसंज्ञितम्। तां चैव प्रकृतिं प्राप्य एकीभावगतोऽभवत्।। | 12-359-28a 12-359-28b | |
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दैत्यदानवगन्धर्वरक्षोगणसमाकुला। | ||
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बहवो बलिनः पृथ्व्यां दैत्यदानवराक्षसाः। भविष्यन्ति तपोयुक्ता वरानप्राप्स्यन्ति चोत्तमान्।। | 12-359-31a 12-359-31b
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तत्र न्याय्यमिदं कर्तुं भारावतरणं मया। अथ नानासमुद्भूतैर्वसुधायां यथाक्रमम्।। | 12-359-33a 12-359-33b | |
12-359-34a 12-359-34b | ||
मया ह्येषा हि ध्रियते पातालस्थेन भोगिना। तस्मात्पृथ्व्याः परित्राणं करिष्ये संभवं गतः।। | 12-359-35a 12-359-35b एवं स चिन्तयित्वा तु भगवान्मघधुसूदनः। | |
वाराहं नारसिहं च वामनं मानुषं तथा। एभिर्मया निहन्तव्याः दुर्विनीताः सुरारयः।। | 12-359-37a 12-359-37b | |
अथ भूयो जगत्स्रष्टा भोःशब्देनानुनादयन्। सरस्वतीमुच्चचार तत्र सारस्वतोऽभवत्।। | 12-359-38a 12-359-38b | |
अपान्तरतमा नाम सुतो वाक्संभवः प्रभोः। भूतभव्यभविष्यज्ञः सत्यवादी दृढव्रतः।। | 12-359-39a 12-359-39b | |
तमुवाच नतं मूर्ध्ना देवानामादिवरव्ययः। वेदाख्याने श्रुतिः कार्या त्वया मतिमतांवर।। | 12-359-40a 12-359-40b | |
तस्मात्कुरु यथाज्ञप्तं ममैतद्वचनं मुने। तेन भिन्नास्तदा वेदा मनोः स्वायंभुवेन्तरे।। | 12-359-41a 12-359-41b
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ततस्तुतोष भगवान्हरिस्तेनास्य कर्मणा। | ||
मन्वन्तरेषु पुत्र त्वमेवं लोकप्रवर्तकः। भविष्यस्यचलो ब्रह्मन्नप्रधृष्यश्च नित्यशः।। | 12-359-43a 12-359-43b | |
पुनस्तिष्ये च संप्राप्ते कुरवो नाम भारताः। भविष्यन्ति महात्मानो राजानः प्रथिता भुवि।। | 12-359-44a 12-359-44b | |
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12-359-45a 12-359-45b | ||
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12-359-47a 12-359-47b | ||
वीतरागश्च पुत्रस्ते परमात्मा भविष्यति। महेश्वरप्रसादेन नैतद्वचनमन्यथा।। | 12-359-48a 12-359-48b | |
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यं मानसं वै प्रवदन्ति विप्राः पितामहस्योत्तमबुद्धियुक्तम्। वसिष्ठमग्र्यं च तपोनिधानं यस्यातिसूर्यं व्यरिरिच्यते भाः।। | 12-359-49a 12-359-49b 12-359-49c 12-359-49d | |
उमोवाच। | 13-233-52x | |
तस्यान्वपे चापि ततो महर्षिः पराशरो नाम महाप्रभावः। पिता स ते वेदनिधिर्वरिष्ठो महातपा वै तपसो निवासः।। | 12-359-50a 12-359-50b 12-359-50c 12-359-50d | |
कानीनगर्भः पितृकन्यकायां तस्मादृषेस्त्वं भविता च पुत्रः।। | 12-359-51a 12-359-51b | |
12-359-53a 12-359-53b | ||
अनादिनिधनं लोके चक्रहस्तं च मां मुने। अनुध्यानान्मम मुने नैतद्वचनमन्यथा। भविष्यति महासत्व ख्यातिश्चाप्यतुला तव।। | 12-359-54a 12-359-54b 12-359-54c | |
[यत्किंचिद्विद्यते लोके सर्वं तन्मद्विचेष्टितम्। अन्यो ह्यन्यं चिन्तयति स्वच्छन्दं विदधाम्यहम्।।] | 12-359-56a 12-359-56b | |
एवं सारस्वतमृषिमपांतरतमं तथा। युक्त्वा वचनमीशानः साधयस्वेत्यथाब्रवीत्।। | 12-359-57a 12-359-57b | |
सोहं तस्य प्रसादेन देवस्य हरिमेधसः। अपांतरतमो नाम्ना ततो जातोऽऽज्ञया हरेः।। | 12-359-58a 12-359-58b | |
त्रिराप्लुत्य जलाभ्यासे दत्त्वा ब्राह्मणदक्षिणाम्। अभ्यर्च्य देवायतनं ततः प्रायाद्यथागतम्।। | 13-233-62a 13-233-62b | |
एतद्विधानं सर्वेषां तीर्थंतीर्थमिति प्रिये। समीपतीर्थस्नानात्तु दूरतीर्थं सुपूजितम्।। | 13-233-63a 13-233-63b | |
आदिप्रभृतिशुद्धस्य तीर्थस्नानं शुभं भवेत्। तपोर्थं पापनाशार्थं शौचार्थं तीर्थगाहनम्।। | 13-233-64a 13-233-64b | |
वैशंपायन उवाच। | 12-359-63x | |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मिपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 233 ।। |
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