महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-097
← अनुशासनपर्व-096 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-097 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-098 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति सेन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादं भूमिदानप्रशंसनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-97-1x |
इदं देयमिदं देयमितीयं श्रुतिचोदनात्। बहुदेयाश्च राजानः किंस्विद्देयमनुत्तमम्।। | 13-97-1a 13-97-1b |
भीष्म उवाच। | 13-97-2x |
अति दानानि सर्वाणि पृथिवीदानमुच्यते। अचला ह्यक्षया भूमिर्दोग्ध्री कामानिहोत्तमान्।। | 13-97-2a 13-97-2b |
दोग्ध्री वासांसि रत्नानि पशून्व्रीहियवांस्तथा। भूमिदः सर्वभूतेषु शाश्वतीरेधते समाः।। | 13-97-3a 13-97-3b |
यावद्भूमेरायुरिह तावद्भूमिद एधते। न भूमिदानादस्तीह परं किञ्चिद्युधिष्ठिर।। | 13-97-4a 13-97-4b |
अप्यल्पं प्रददुः सर्वे पृथिव्या इति नः श्रुतम्। भूमिमेव ददुः सर्वे भूमिं ते भुञ्जते जनाः।। | 13-97-5a 13-97-5b |
स्वकर्मैवोपजीवन्ति नरा इह परत्र च। भूमिः पतिं महादेवी दातारं कुरुते प्रियम्।। | 13-97-6a 13-97-6b |
य एतां दक्षिणां दद्यादक्षयां राजसत्तम। पुनर्नरत्वं सम्प्राप्य भवेत्स पृथिवीपतिः।। | 13-97-7a 13-97-7b |
यथा दानं तथा भोग इति धर्मेषु निश्चयः। सङ्ग्रामे वा तनुं जह्याद्दद्याच्च पृथिवीमिमांम्।। | 13-97-8a 13-97-8b |
इत्येतत्क्षत्रबन्धूनां वदन्ति परमाशिषः। पुनाति दत्ता पृथिवी दातारमिति शुश्रुम।। | 13-97-9a 13-97-9b |
अपि पापसमाचारं ब्रह्मघ्नमपि चानृतम्। सैव पापं प्लावयति सैव पापात्प्रमोचयेत्।। | 13-97-10a 13-97-10b |
अपि पापकृतां राज्ञां प्रतिगृह्णन्ति साधवः। पृथिवीं नान्यदिच्छन्ति पावनं जगती यतः।। | 13-97-11a 13-97-11b |
नामास्याः प्रियदत्तेति गुह्यं देव्याः सनातनम्। दानं वाऽप्यथवाऽदानं नामास्याः प्रथमप्रियम्।। | 13-97-12a 13-97-12b |
य एतां विदुषे दद्यात्पृथिवीं पृथिवीपतिः। पृथिव्यामेतदिष्टं स राजा राज्यमितो व्रजेत्।। | 13-97-13a 13-97-13b |
पुनश्चासौ जनिं प्राप्य राजवत्स्यान्न संशयः। तस्मात्प्राप्यैव पृथिवीं दद्याद्विप्राय पार्थिवः।। | 13-97-14a 13-97-14b |
नाभूमिपतिना भूमिरधिष्ठेया कथञ्चन। न च वस्त्रेणि वा गूहेदन्तर्धानेन वा चरेत्।। | 13-97-15a 13-97-15b |
ये चान्ये भूमिमिच्छेयुः कुर्युरेवं न संशयः। यः साधोर्भूमिमादत्ते न भूमिं विन्दते तु सः।। | 13-97-16a 13-97-16b |
भूमिं दत्त्वा तु साधुभ्यो विन्दते भूमिमुत्तमाम्। प्रेत्य चेह च धर्मात्मा सम्प्राप्नोति महद्यशः।। | 13-97-17a 13-97-17b |
`एकाहारकरीं दत्त्वा षष्ठिसाहस्रमूर्ध्वगः। तावत्या हरणे पृथ्व्या नरकं द्विगुणोत्तरम्।।' | 13-97-18a 13-97-18b |
यस्य विप्रास्तु शंसन्ति साधोर्भूमिं सदैव हि। न तस्य शत्रवो राजन्प्रशंसन्ति वसुन्धराम्।। | 13-97-19a 13-97-19b |
यत्किञ्चित्पुरुषः पापं कुरुते वृत्तिकर्शितः। अपि गोचर्ममात्रेण भूमिदानेन पूयते।। | 13-97-20a 13-97-20b |
येऽपि सङ्गीर्णाकर्माणो राजानो रौद्रकर्मिणः। तेभ्यः पवित्रमाख्येयं भूमिदानमनुत्तमम्।। | 13-97-21a 13-97-21b |
अल्पान्तरमिदं शश्वत्पुराणा मेनिरे जनाः। यो यजेताश्वमेधेन दद्याद्वा साधवे महीम्।। | 13-97-22a 13-97-22b |
अपि चेत्सुकृतं कृत्वा शङ्केरन्नपि पण्डिताः। अशंक्यमेकमेवैतद्भूमिदानमनुत्तमम्।। | 13-97-23a 13-97-23b |
सुवर्णं रजतं वस्त्रं मणिमुक्तावसूनि च। सर्वमेतन्महाप्राज्ञो ददाति वसुधां ददत्।। | 13-97-24a 13-97-24b |
तपो यज्ञः श्रुतं शीलमलोभः सत्यसन्धता। गुरुदैवतपूजा च एता वर्तन्ति भूमिदम्।। | 13-97-25a 13-97-25b |
भर्तुनिःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः। ब्रह्मलोकगताः सिद्धा नातिक्रामन्ति भूमिदम्।। | 13-97-26a 13-97-26b |
यथा जनित्री स्वं पुत्रं क्षीरेण भरते सदा। अनुगृह्णाति दातारं तथा सर्वरसैर्मही।। | 13-97-27a 13-97-27b |
मृत्युर्वैकिंकरो दण्डस्तापो वह्नेः सुदारुणः। घोराश्च वारुणाः पाशा नोपसर्पन्ति भूमिदम्।। | 13-97-28a 13-97-28b |
पितॄंश्च पितृलोकस्थान्देवलोके च देवताः। सन्तर्पयति शान्तात्मा यो ददाति वसुन्धराम्।। | 13-97-29a 13-97-29b |
कृशाय म्रियमाणाय वृत्तिग्लानाय सीदते। भूमिं वृत्तिकरीं दत्त्वा सत्री भवति मानवः।। | 13-97-30a 13-97-30b |
यथा धावति गौर्वत्सं स्रवन्ती वत्सला पयः। एवमेव महाभाग भूमिर्भरति भूमिदम्।। | 13-97-31a 13-97-31b |
हलकृष्टां महीं दत्त्वा सबीजां सफलामपि। सोदकं वाऽपि शरणं तथा भवति कामदः।। | 13-97-32a 13-97-32b |
ब्राह्मणं वृत्तसम्पन्नमाहिताग्निं शुचिव्रतम्। नरः प्रतिग्राह्य महीं न याति यमसादनम्।। | 13-97-33a 13-97-33b |
यथा चन्द्रमसो वृद्धिरहन्यहनि जायते। तथा भूमिकृतं दानं सस्येसस्ये विवर्धते।। | 13-97-34a 13-97-34b |
अत्र गाथा भूमिगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः। याः श्रुत्वा जामदग्न्येन दत्ता भूः काश्यपाय वै।। | 13-97-35a 13-97-35b |
मामेवादत्त मां दत्त मां दत्त्वा मामवाप्स्यथ। अस्मिँल्लोके परे चैव तद्दत्तं जायते पुनः।। | 13-97-36a 13-97-36b |
य इमां व्याहृतिं वेद ब्राह्मणो वेदसम्मिताम्। श्राद्धस्य हूयमानस्य ब्रह्मभूयं स गच्छति।। | 13-97-37a 13-97-37b |
कृत्यानामभिशप्तानामरिष्टशमनं महत्। प्रायश्चित्तं महीं दत्त्वा पुनात्युभयतो दश।। | 13-97-38a 13-97-38b |
पुनाति य इदं वेद वेदवादं तथैव च। प्रकृतिः सर्वभूतानां भूमिर्वै शाश्वती मता।। | 13-97-39a 13-97-39b |
अभिषिच्यैव नृपतिं श्रावयेदिममागमम्। यथा श्रुत्वा महीं दद्यान्नादद्यात्साधुतश्च तां।। | 13-97-40a 13-97-40b |
सोऽयं कृत्स्नो ब्राह्मणार्थो राजार्थश्चाप्यसंशयः। राजा हि धर्मकुशलः प्रथमं भूतिलक्षणम्।। | 13-97-41a 13-97-41b |
अथ येषामधर्मज्ञो राजा भवति नास्तिकः। न ते सुखं प्रबुध्यन्ति न सुखं प्रस्वपन्ति च।। | 13-97-42a 13-97-42b |
सदा भवन्ति चोद्विग्नास्तस्य दुश्चरितैर्नराः। योगक्षेमा हि बहवो राष्ट्रं नास्याविशन्ति तत्।। | 13-97-43a 13-97-43b |
अथ येषां पुनः प्राज्ञो राजा भवति धार्मिकः। सुखं ते प्रतिबुध्यन्ते सुसुखं प्रस्वपन्ति च।। | 13-97-44a 13-97-44b |
तस्य राज्ञः शुभे राज्ये कर्मभिर्निर्वृता नराः। योगक्षेमेण वृष्ट्या च विवर्धन्ते स्वकर्मभिः।। | 13-97-45a 13-97-45b |
स कुलीनः स पुरुषः स बन्धुः स च पुण्यकृत्। स दाता स च विक्रान्तो यो ददाति वसुन्धरां।। | 13-97-46a 13-97-46b |
आदित्या इव दीप्यन्ते तेजसा भुवि मानवाः। ददन्ति वसुधां स्फीतां ये वेदविदुषि द्विजे।। | 13-97-47a 13-97-47b |
यथा सस्यानि रोहन्ति प्रकीर्णानि महीतले। तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदानसमार्जिताः।। | 13-97-48a 13-97-48b |
आदित्यो वरुणो विष्णुर्ब्रह्मा सोमो हुताशनः। शूलिपाणिश्च भगवान्प्रतिनन्दन्ति भूमिदम्।। | 13-97-49a 13-97-49b |
भूमौ जायन्ति पुरुषा भूमौ निष्ठां व्रजन्ति च। चतुर्विधो हि लोकोऽयं योऽयं भूमिगुणात्मकः।। | 13-97-50a 13-97-50b |
एषा माता पिता चैव जगतः पृथिवीपते। नानया सदृशं भूतं किञ्चिदस्ति जनाधिप।। | 13-97-51a 13-97-51b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। बृहस्पतेश्च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर।। | 13-97-52a 13-97-52b |
इष्ट्वा क्रतुशतेनाथ महता दक्षिणावता। मघवा वाग्विदांश्रेष्ठं पप्रच्छेदं बृहस्पतिम्।। | 13-97-53a 13-97-53b |
भगवन्केन दानेन स्वर्गतः सुखमेधते। यदक्षयमहार्यं च तद्ब्रूहि वदतांवर।। | 13-97-54a 13-97-54b |
भीष्म उवाच। | 13-97-55x |
इत्युक्तृः स सुरेन्द्रेण ततो देवपुलोहितः। बृहस्पतिर्बृहत्तेजाः प्रत्युवाच शतक्रतुम्।। | 13-97-55a 13-97-55b |
सुवर्णदानं गोदानं भूमिदानं च वृत्रहन्। `विद्यादानं च कन्यानां दानं पापहरं परम्।' दददेतान्महाप्राज्ञः सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 13-97-56a 13-97-56b 13-97-56c |
न भूमिदानाद्देवेन्द्र परं किञ्चिदिति प्रभो। विशिष्टमिति मन्येऽहं यता प्राहुर्मनीषिणः।। | 13-97-57a 13-97-57b |
`ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा राष्ट्रघातेऽथ स्वामिनः। कुलस्त्रीणां परिभवे मृतास्ते भूमिपैः समाः'।। | 13-97-58a 13-97-58b |
ये शूरा निहता युद्धे स्वर्याता रणगृद्धिनः। सर्वे ते विबुधश्रेष्ठ नातिक्रामन्ति भूमिदम्।। | 13-97-59a 13-97-59b |
भर्तुर्निःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः। ब्राह्मलोकगता युक्ता नातिक्रामन्ति भूमिदम्।। | 13-97-60a 13-97-60b |
पञ्च पूर्वा हि पुरुषाः षडन्ये वसुधां गताः। एकादश ददद्भूमिं परित्रातीह मानवः।। | 13-97-61a 13-97-61b |
रत्नोपकीर्णां वसुधां यो ददाति पुरंदर। स मुक्तः सर्वकलुषैः स्वर्गलोके महीयते।। | 13-97-62a 13-97-62b |
महीं स्फीतां ददद्राजन्सर्वकामगुणान्विताम्। राजाधिराजो भवति तद्धि दानमनुत्तमम्।। | 13-97-63a 13-97-63b |
सर्वकामसमायुक्तां काश्यपीं यः प्रयच्छति। सर्वभूतानि मन्यन्ते मां ददातीति वासव।। | 13-97-64a 13-97-64b |
सर्वकामदुघां धेनुं सर्वकामगुणान्विताम्। ददाति यः सहस्राक्ष स्वर्गं याति स मानवः।। | 13-97-65a 13-97-65b |
मधुसर्पिःप्रवाहिण्यः पयोदधिवहास्तथा। सरितस्तपर्यन्तीह सुरेन्द्र वसुधाप्रदम्।। | 13-97-66a 13-97-66b |
भूमिप्रदानान्नृपतिर्मुच्यते सर्वकिल्बिषात्। न हि भूमिप्रदानेन दानमन्यद्विशिष्यते।। | 13-97-67a 13-97-67b |
ददाति यः समुन्द्रान्तां पृथिवीं शस्त्रनिर्जिताम्। तं जनाः कथयन्तीह यावद्धरति गौरियम्।। | 13-97-68a 13-97-68b |
पुण्यामृद्धिरसां भूमिं यो ददाति पुरंदर। न तस्य लोकाः क्षीयन्ते भूमिदानगुणान्विताः।। | 13-97-69a 13-97-69b |
सर्वदा पार्थिवेनेह सततं भूतिमिच्छता। भूर्देया विधिवच्छक्र पात्रे सुखमभीप्सुनां।। | 13-97-70a 13-97-70b |
अपि कृत्वा नरः पापं भूमिं दत्त्वा द्विजातये। समुत्सृजति तत्पापं जीर्णां त्वचमिवोरगः।। | 13-97-71a 13-97-71b |
सागरान्सरितः शैलान्काननानि च सर्वशः। सर्वमेतन्नरः शक्र ददाति वसुधां ददत्।। | 13-97-72a 13-97-72b |
तटाकान्युदपानानि स्रोतांसि च सरांसि च। स्नेहान्सर्वरसांश्चैव ददाति वसुधां ददत्।। | 13-97-73a 13-97-73b |
ओषधीर्वीर्यसम्पन्नानगान्पुष्पफलान्वितान्। काननोपलशैलांश्च ददाति वसुधां ददत्।। | 13-97-74a 13-97-74b |
अग्निष्टोमप्रभृतिभिरिष्ट्वा च स्वाप्तदक्षिणैः। न तत्फलमवाप्नोति भूमिदानाद्यदश्नुते।। | 13-97-75a 13-97-75b |
दाता दशानुगृह्णाति दश हन्ति तथा क्षिपन्। पूर्वदत्तां हरन्भूमिं नरकायोपगच्छति।। | 13-97-76a 13-97-76b |
न ददाति प्रतिश्रुत्य दत्त्वाऽपि च हरेत्तु यः। स बद्धो वारुणैः पाशैस्तप्यते मृत्युसासनात्।। | 13-97-77a 13-97-77b |
आहिताग्निं सदायज्ञं कृशवृत्तिं प्रियातिथिम्। ये भरन्ति द्विजश्रेष्ठं नोपसर्पन्ति ते यमम्।। | 13-97-78a 13-97-78b |
ब्राह्मणेष्वनृणीभूतः पार्थिवः स्यात्पुरंदर। इतरेषां तु वर्णानां तारयेत्कृशदुर्बलान्।। | 13-97-79a 13-97-79b |
नाच्छिन्द्यात्स्पर्शितां भूमिं परेण त्रिदशाधिप। ब्राह्मणस्य सुरश्रेष्ठ कृशवृत्तेः कदाचन।। | 13-97-80a 13-97-80b |
यथाश्रु पतितं तेषां दीनानामथ सीदताम्। ब्राह्मणानां हृते क्षेत्रे हन्यात्त्रिपुरुषं कुलम्।। | 13-97-81a 13-97-81b |
भूमिपालं च्युतं राष्ट्राद्यस्तु संस्थापयेत्पुनः। तस्य वासः सहस्राक्ष नाकपृष्ठे महीयते।। | 13-97-82a 13-97-82b |
`सुनिर्मितां सुविक्रीतां सुभृतां स्थापयेन्नृप।' इक्षुभिः सन्ततां भूमिं यवगोधूमसालिनीम्।। | 13-97-83a 13-97-83b |
गोश्ववाहनपूर्णां वा यो ददाति वसुन्धराम्। विमुक्तः सर्वपापेभ्यः स्वर्गलोके महीयते।।' | 13-97-84a 13-97-84b |
निधिगर्भां ददद्भूमिं सर्वरत्नपरिच्छदाम्। अक्षयाँल्लभते लोकान्भूमिसत्रं हि तस्य तत।। | 13-97-85a 13-97-85b |
विधूय कलुषं सर्वं विरजाः सम्मतः सताम्। लोके महीयते सद्भिर्यो ददाति वसुन्धराम्।। | 13-97-86a 13-97-86b |
यथाऽप्सु पतितः शक्र तैलबिन्दुर्विसर्पति। तथा भूमिकृतं दानं सस्येसस्ये विवर्धते।। | 13-97-87a 13-97-87b |
ये रणाग्रे महीपालाः शूराः समितिशोभनाः। वध्यन्तेऽभिमुखाः शक्र ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते।। | 13-97-88a 13-97-88b |
नृत्तगीतपरा नार्यो दिव्यमाल्यविभूषिताः। उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र यथा भूमिप्रदं दिवि।। | 13-97-89a 13-97-89b |
मोदते च सुखं स्वर्गे देवगन्धर्वपूजितः। यो ददाति महीं सम्यग्विधिनेह द्विजातये।। | 13-97-90a 13-97-90b |
शतमप्सरसश्चैव दिव्यमाल्यविभूषिताः। उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र ब्रह्मलोके धराप्रदम्।। | 13-97-91a 13-97-91b |
उपतिष्ठन्ति पुण्यानि सदा भूमिप्रदं नरम्। शङ्खं भद्रासनं छत्रं वराश्वा वरवाहनम्।। | 13-97-92a 13-97-92b |
भूमिप्रदानात्पुष्पाणि हिरण्यनिचयास्तथा। आज्ञा सदाऽप्रतिहता जयशब्दा वसूनि च।। | 13-97-93a 13-97-93b |
भूमिदानस्य पुण्यानि फलं स्वर्गः पुरन्दर। हिरण्यपुष्पाश्चौषध्यः कुशकाञ्चनशाद्वलाः।। | 13-97-94a 13-97-94b |
अमृतप्रसवां भूमिं प्राप्नोति पुरुषो ददत्।। | 13-97-95a |
नास्ति भूमिसमं दानं नास्ति मातृसमो गुरुः। नास्ति सत्यसमो धर्मो नास्ति दानसमो निधिः।। | 13-97-96a 13-97-96b |
भीष्म उवाच। | 13-97-97x |
एतदाङ्गिरसाच्छ्रुत्वा वासवो वसुधामिमाम्। वसुरत्नसमाकीर्णां ददावाङ्गिरसे तदा।। | 13-97-97a 13-97-97b |
य इदं श्रावयेच्छ्राद्धे भूमिदानस्य संस्तवम्। न तस्य रक्षसां भागो नासुराणां भवत्युत।। | 13-97-98a 13-97-98b |
अक्षयं च भवेद्दत्तं पितृभ्यस्तन्न संशयः। तस्माच्छ्राद्धेष्विदं विद्वान्भुञ्जतः श्रावयेद्द्विजान्।। | 13-97-99a 13-97-99b |
इत्येतत्सर्वदानानां श्रेष्ठमुक्तं तवानघ। मया भरतशार्दूल किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-97-100a 13-97-100b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः।। 97 ।। |
13-97-6 प्रियं स्वपतिम्।। 13-97-12 प्रियेण प्रियाय वा दत्तेति योगात्तस्या दानमादानं वा कुर्वन् प्रियदत्ताया अस्याः प्रियो भवतीत्यर्थः। दानं वाप्यथ वा ज्ञानं नामास्याः परमप्रियम् इति ट.ध.पाठः।। 13-97-19 शंसन्त्यमुकदत्ते गृहे तिष्ठाम इति कथयन्ति।। 13-97-23 अर्पितदानान्तरवद्भूमिदाने पुण्योत्पत्तौ शङ्कैव नास्तीत्यर्थः।। 13-97-25 एता एतानि। सुपो डादेशः। वर्तन्त्यनुसरन्ति। नातिक्रामन्ति भूमिदमिति थ.ध.पाठः।। 13-97-28 वैकिंकरः विपरीतं कुत्सितं च करोतीति विकिंकरः कालस्तत्सम्बन्धी कालमृत्युरित्यर्थः।। 13-97-30 सत्री सत्रकृत्।। 13-97-31 उदीर्णं इति पाठे महत्। शरणं गृहम्।। 13-97-36 ततश्च जनने पुनरिति थ.पाठ.।। 13-97-37 ब्रह्मभूयं बृहत्त्वं फलमिति यावत्। गच्छति प्राप्नोति। ब्राह्मणो ब्रह्मसंश्रित इति ट.ध.पाठः।। 13-97-38 कृत्यानां मन्त्रमयीनां मारणार्थशक्तीनां सम्बन्धि यदरिष्टं तच्छमनम्।। 13-97-39 इदं भूमिदानं यो वेद। वादं भूमिवाक्यं यो वेद। सोऽपि पुनाति दशपुरुषानिति शेषः।। 13-97-41 भूतिलक्षणं ऐश्वर्यसूचकम्।। 13-97-76 क्षिपन् हरन्।। 13-97-80 स्पर्शितां दत्ताम्।। 13-97-92 वराश्वा वरवारणा इति थ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-096 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-098 |