महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-141

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त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-141
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-142 →

भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्यसाधुभ्यः प्रतिग्रहस्य निन्द्यत्वे प्रमाणतया सप्तर्षिवृषादर्भिसंवादानुवादः।। 1 ।। वृषादर्भिणा राज्ञा कश्यपादिसप्तर्षिभि- स्वस्मात्प्रतिग्रहनिराकरणे तज्जिघांसया कृत्योत्पादनम्।। 2 ।। तन्नामार्थपरिज्ञानेन तद्वधं चोदितया कृत्यया वने तत्समीपम्प्रति गमनम्।। 3 ।।

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युधिष्ठिर उवाच। 13-141-1x
ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छन्ति दानानि विविधानि च।
दातृप्रतिग्रहीत्रोर्वै को विशेषः पितामह।।
13-141-1a
13-141-1b
भीष्म उवाच। 13-141-2x
साधोर्यः प्रतिगृह्णीयात्तथैवासाधुतो द्विजः।
गुणवत्यल्पदोषः स्यान्निर्गुणे तु निमज्जति।।
13-141-2a
13-141-2b
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
वृषादर्भेश्च संवादं सप्तर्षीणां च भारत।।
13-141-3a
13-141-3b
कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च भरद्वाजोऽथ गौतमः।
विश्वामित्रो जमदग्निः साध्वी चैवाप्यरुन्धती।।
13-141-4a
13-141-4b
सर्वेषामथ तेषां तु गण्डाभूत्परिचारिका।
शूद्रः पशुसखश्चैव भर्ता चास्या बभूव ह।।
13-141-5a
13-141-5b
ते च सर्वे तपस्यन्तः पुरा चेरुर्महीमिमाम्।
समाधिना प्रतीक्षन्तो ब्रह्मलोकं सनातनम्।।
13-141-6a
13-141-6b
अथाभवदनावृष्टिर्महती कुरुनन्दन।
कृच्छ्रप्राणोऽभवद्यत्र लोकोऽयं वै क्षुधान्वितः।।
13-141-7a
13-141-7b
कस्मिंश्चिच्च पुरा यज्ञे याज्येन शिबिसूनुना।
दक्षिणार्थेऽथ ऋत्विग्भ्यो दत्तः पुत्रोऽनिलः किल
13-141-8a
13-141-8b
अस्मिन्कालेऽथ सोऽल्पायुर्दिष्टान्तमगमत्प्रभुः।
ते तं क्षुधाभिसन्तप्ताः परिवार्योपतस्थिरे।।
13-141-9a
13-141-9b
याज्यात्मजमथो दृष्ट्वा गतासुमृषिसत्तमाः।
अपचन्त तदा स्थाल्यां क्षुधार्ताः किल भारत
13-141-10a
13-141-10b
नाजीव्ये मर्त्यलोकेऽस्मिन्नात्मानं ते परीप्सवः।
कृच्छ्रामापेदिरे वृत्तिमन्नहेतोस्तपस्विनः।।
13-141-11a
13-141-11b
अटमानोऽथ तान्मार्गे पचमानान्महीपतिः।
राजा शैब्यो वृषादर्भिः क्लिश्यमानान्ददर्श ह।।
13-141-12a
13-141-12b
वृषादर्भिरुवाच। 13-141-13x
प्रतिग्रहस्तारयति पुष्टिर्वै प्रतिगृह्णताम्।
मयि यद्विद्यते वित्तं तद्वृणुध्वं तपोधनाः।।
13-141-13a
13-141-13b
`प्रतिग्रहो ब्राह्मणानां सृष्टा वृत्तिरनिन्दिता।
तस्माद्ददामि वो वित्तं तद्वृणुध्वं तपोधनाः।।
13-141-14a
13-141-14b
प्रियो हि मे ब्राह्मणो याचमानो
दद्यामहं वोऽश्वतरीसहस्रम्।
धेनूनां दद्यामयुतं समग्र-
मेकैकशः सवृषाः सम्प्रसूताः।।
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दग्र्या गृष्टीर्धेनवः सुव्रताश्च।। 13-141-16f
वरान्ग्रमान्व्रीहिरसं यवांश्च
रत्नं चान्यद्दुर्लभं किं ददानि।
नास्मिन्नभक्ष्ये भावमेवं कुरुध्वं
पुष्ट्यर्थं वः किं प्रयच्छाम्यहं वै।।
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ऋषय ऊचुः। 13-141-18x
राजन्प्रतिग्रहो राज्ञं मध्वास्वादो विषोपमः।
तज्जानमानः कस्मात्त्वं कुरुषे नः प्रलोभनम्।।
13-141-18a
13-141-18b
`दशसूनासमश्चक्री दशचक्रिसमो ध्वजी।
दशध्वजिसमा वेश्या दशवेश्यासमो नृपः।।
13-141-19a
13-141-19b
दशसूनासहस्राणि यो वाहयति सौनिकः।
तेन तुल्यो भवेद्राजा घोरस्तस्य प्रतिग्रहः।।'
13-141-20a
13-141-20b
क्षेत्रं हि दैवतमिव ब्राह्मणान्समुपाश्रितम्।
अमलो ह्येष तपसा प्रीतः प्रीणाति देवताः।।
13-141-21a
13-141-21b
अह्नायेह तपो जातु ब्राह्मणस्योपजायते।
तद्दाव इव निर्दह्यात्प्राप्तो राजप्रतिग्रहः।।
13-141-22a
13-141-22b
कुशलं सह दानेन राजन्नस्तु सदा तव।
अर्थिभ्यो दीयतां सर्वमित्युक्त्वा तेन्यतो ययुः।।
13-141-23a
13-141-23b
अपक्वमेव तन्मांसमभूत्तेषां महात्मनाम्।
अथ हित्वा ययु सर्वे वनमाहारकाङ्क्षिणः।।
13-141-24a
13-141-24b
ततः प्रचोदिता राज्ञा वनं गत्वाऽस्य मन्त्रिणः।
प्रचीयोदुम्बराणि स्म दातुं तेषां प्रचक्रिरे।।
13-141-25a
13-141-25b
दृष्ट्वा फलानि मुनयस्ते ग्रहीतुमुपाद्रवन्।।' 13-141-26a
उदुम्बराण्यथान्यानि हेमगर्भाण्युपाहरन्।
भृत्यास्तेषां ततस्तानि प्रग्राहितुमुपाद्रवन्।।
13-141-27a
13-141-27b
गुरूणीति विदित्वाऽथ न ग्राह्याण्यत्रिरब्रवीत्।
नास्मेह मन्दविज्ञाना नास्म मानुषबुद्धयः।।
13-141-28a
13-141-28b
हैमानीमानि जानीमः प्रतिबुद्धाः स्म जागृम।
इह ह्येतदुपावृत्तं प्रेत्य स्यात्कटुकोदयम्।
अप्रतिग्राह्यमेवैतत्प्रेत्येह च सुखेप्सुना।।
13-141-29a
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13-141-29c
वसिष्ठ उवाच। 13-141-30x
शतेन निष्कगुणितं सहस्रेण च सम्मितम्।
तथा बहु प्रतीच्छन्वै पापिष्ठां लभते गतिम्।।
13-141-30a
13-141-30b
कश्यप उवाच। 13-141-31x
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
सर्वं तन्नालमेकस्य तस्माद्विद्वाञ्शमं व्रजेत्।।
13-141-31a
13-141-31b
भरद्वाज उवाच। 13-141-32x
उत्पन्नस्य रुरोः शृङ्गं वर्दमानस्य वर्धते।
प्रार्थना पुरुषस्येव तस्य मात्रा न विद्यते।।
13-141-32a
13-141-32b
गौतम उवाच। 13-141-33x
न तल्लोके द्रव्यमस्ति यल्लोभं प्रतिपूरयेत्।
समुद्रकल्पः पुरुषो न कदाचन पूर्यते।।
13-141-33a
13-141-33b
विश्वामित्र उवाच। 13-141-34x
कामं कामयमानस्य यदा कामः समृध्यते।
अथैनमपरः काम इष्टो विध्यति बाणवत्।।
13-141-34a
13-141-34b
`अत्रिरुवाच। 13-141-35x
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।'
13-141-35a
13-141-35b
जमदग्निरुवाच। 13-141-36x
प्रतिग्रहे संयमो वै तपो धारयते ध्रुवम्।
तद्धनं ब्राह्मणस्येह लुभ्यमानस्य विस्रवेत्।।
13-141-36a
13-141-36b
अरुन्धत्युवाच। 13-141-37x
धर्मार्थं सञ्चयो यो वा द्रव्याणां पक्षसम्मतः।
तपःसञ्चय एवेह विशिष्टो द्रव्यसञ्चयात्।।
13-141-37a
13-141-37b
चण्डोवाच। 13-141-38x
उग्रादितो भयाद्यस्माद्बिभ्यतीमे ममेश्वराः।
बलीयसो दुर्बलवद्बिभेम्यहमतः परम्।।
13-141-38a
13-141-38b
पशुसस्व उवाच। 13-141-39x
यद्वै धर्मात्परं नास्ति तादृशं ब्राह्मणा विदुः।
विनयात्साधु विद्वांसमुपासेयं यथातथम्।।
13-141-39a
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ऋषय ऊचुः। 13-141-40x
कुशलं सह दानेन तस्मै यस्य प्रजा इमाः।
फलान्युपधियुक्तानि य एवं नः प्रयच्छति।।
13-141-40a
13-141-40b
भीष्म उवाच। 13-141-41x
इत्युक्त्वा हेमगर्भाणि हित्वा तानि फलानि ते।
ऋषयो जग्मुरन्यत्र सर्व एव दृढव्रताः।।
13-141-41a
13-141-41b
अथ ते मन्त्रिणः सर्वे राजानमिदमब्रुवन्।
उपधिं शङ्कमानास्ते हित्वा तानि फलानि वै।
ततोऽन्यत्रैव गच्छन्ति विदितं तेऽस्तु पार्थिव।।
13-141-42a
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13-141-42c
इत्युक्तः स तु भृत्यैस्तैर्वृषादर्भिश्चुकोप ह।
तेषां वै प्रतिकर्तुं च सर्वेषामगमद्गृहम्।।
13-141-43a
13-141-43b
स गत्वाऽऽहवनीयेऽग्नौ तीव्रं नियममास्थितः।
जुहाव संस्कृतैर्मन्त्रैरेकैकामाहुतिं नृपः।।
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तस्मादग्नेः समुत्तस्थौ कृत्या लोकभयंकरी।
तस्या नाम वृषादर्भिर्यातुधानीत्यथाकरोत्।।
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13-141-45b
सा कृत्या कालरात्रीव कृताञ्जलिरुपस्थिता।
वृषादर्भि नरपतिं किं करोमीति चाब्रवीत्।।
13-141-46a
13-141-46b
वृषादर्भिरुवाच। 13-141-47x
ऋषीणां गच्छ सप्तानामरुन्धत्यास्तथैव च।
दासीभर्तुश्च दास्याश्च मनसा नाम धारय।।
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ज्ञात्वा नामानि चैवैषां सर्वानेतान्विनाशय।
विनष्टेषु तथा स्वैरं गच्छ यत्रेप्सितं तव।।
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सा तथेति प्रतिश्रुत्य यातुधानी स्वरूपिणी।
जगाम तद्वनं यत्र विचेरुस्ते महर्षयः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि<>BR दानधर्मपर्वणि एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 141 ।।

13-141-3 वृषा दर्वेश्च संवादमिति थ.ध.पाठः।। 13-141-5 गण्डाभूत्कर्मकारिकेति झ.पाठः। गण्डा नामतः।। 13-141-9 दिष्टान्तं मरणम्।। 13-141-11 आत्मानं शरीरं परीप्सवः रक्षितुकामाः। निरन्ने मर्त्यलोकेऽस्मिन्निति झ.पाठः।। 13-141-13 पुष्टिः पुष्टिहेतुः। तच्छृणुध्वं तपोधना इति ट.थ.ध.पाठः।। 13-141-30 प्रतीच्छन् प्रतिगृह्णन्।। 13-141-32 तस्य लाभसुखस्य मात्रा इयत्ता।। 13-141-36 तद्धनं तपोधनम्।। 13-141-37 पक्षसम्मतः पाक्षिकत्वेन मतः।। 13-141-39 यद्वै धर्मे परं नास्ति ब्राह्मणास्तद्धनं विदुरिति झ.पाठः। यत् यतो हेतोः। वैधर्मे विधर्म एव वैधर्मः तस्मिँलोभादिदोषे सति परं उत्कृष्टं पदं नास्ति न लभ्यतेऽतस्तदलोभाख्यमेव धनं ब्राह्मणा विदुः।। 13-141-40 उपधिश्छलम्। कश्मलाधमदानाय प्रतियत्नः प्रजाधमाः। फलान्युपधियुक्तानि यत्र यः सम्प्रच्छतीति थ.ध.पाठः।। 13-141-47 नाम नाम्नोर्थम्।। 13-141-48 ज्ञात्वा नामानुरूपं तेषां सामर्थ्यं परीक्ष्य तान् विनाशय। अन्यथा त्वामेव ते विनाशयिष्यन्तीति भावः।।

अनुशासनपर्व-140 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-142