महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-034
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति स्त्रीपुंसयोः समायोगे स्त्रियाएव सुखाधिक्ये सवादतया भङ्गास्वनोपाख्यानकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-34-1x |
स्त्रीपुंसयोः सम्प्रयोगे स्पर्शः कस्याधिको भवेत्। एतस्मिन्संशये राजन्यथावद्वक्तुमर्हसि।। | 13-34-1a 13-34-1b |
भीष्म उवाच। | 13-34-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। भङ्गास्वनेन शक्रस्य यथा वैरमभूत्पुरा।। | 13-34-2a 13-34-2b |
पुरा भङ्गास्वनो नाम राजर्षिरतिधार्मिकः। अपुत्रः पुरुषव्याघ्र पुत्रार्थं यज्ञमाहरत्।। | 13-34-3a 13-34-3b |
अग्निष्टुतं स राजर्षिरिन्द्रद्विष्टं महाबलः। प्रायश्चित्तेषु मर्त्यानां पुत्रकामेषु चेष्यते।। | 13-34-4a 13-34-4b |
इन्द्रो ज्ञात्वा तु तं यज्ञं महाभागः सुरेश्वरः। अन्तरं तस्य राजर्षेरन्विच्छन्नियतात्मनः। न चैवास्यान्तरं राजन्स ददर्श महात्मनः।। | 13-34-5a 13-34-5b 13-34-5c |
कस्य चित्त्वथ कालस्य मृगयां गतवान्नृपः। इदमन्तरमित्येव शक्रो नृपममोहयत्।। | 13-34-6a 13-34-6b |
एकाश्वेन च राजर्षिर्भ्रान्त इन्द्रेण मोहितः। न दिशोऽविन्दत नृपः क्षुत्पिपासार्दितस्तदा।। | 13-34-7a 13-34-7b |
इतश्चेतश्च धावन्वै श्रमतृष्णार्दितो नृप। सरोऽपश्यत्सुरुचिरं पूर्णं परमवारिणा।। | 13-34-8a 13-34-8b |
सोऽवगाह्य सरस्तात पाययामास वाजिनम्।। | 13-34-9a |
अथ पीतोदकं सोऽश्वं वृक्षे बद्ध्वा नृपोत्तमः। अवगाह्य ततः स्नातस्तत्र स्त्रीत्वमवाप्तवान्।। | 13-34-10a 13-34-10b |
आत्मानं स्त्रीकृतं दृष्ट्वा व्रीडितो नृपसत्तमः। चिन्तानुगतसर्वात्मा व्याकुलेन्द्रियचेतनः।। | 13-34-11a 13-34-11b |
आरोहिष्ये कथं त्वश्वं कथं यास्यामि वै पुरम्। इष्टेनाग्निष्टुता चापि पुत्राणां शतमौरसम्।। | 13-34-12a 13-34-12b |
जातं महाबलानां मे तान्प्रवक्ष्यामि किन्नवहम्। दारेषु चात्मकीयेषु पौरजानपदेषु च।। | 13-34-13a 13-34-13b |
मृदुत्वं च तनुत्वं च पराधीनत्वमेव च। `हासभावादि लावण्यं स्त्रीगुणाद्वा कुतूहलम्।' स्त्रीगुणा ऋषिभिः प्रोक्ता धर्मतत्त्वार्थदर्शिभिः।। | 13-34-14a 13-34-14b 13-34-14c |
व्यायामः कर्कशत्वं च वीर्यं च पुरुषे गुणाः।। | 13-34-15a |
पौरुषं विप्रनष्टं स्त्रीत्वं केनापि मेऽभवत्। स्त्रीभावात्पुनरश्वं तं कथमारोढुमुत्सहे।। | 13-34-16a 13-34-16b |
महता त्वथ खेदेन आरुह्याश्वं नराधिपः। पुनरायात्पुरं तात स्त्रीभूतो नृपसत्तमः। | 13-34-17a 13-34-17b |
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च पौरजानपदाश्च ते। किन्न्विदं त्विति विज्ञाय विस्मयं परमं गताः।। | 13-34-18a 13-34-18b |
अथोवाच स राजर्षिः स्त्रीभूतो वदतांवरः। मृगयामस्मि निर्यातो बलैः परिवृतो दृढम्। उद्भान्तः प्राविशं घोरामटवीं दैवमोहितः।। | 13-34-19a 13-34-19b 13-34-19c |
अटव्यां च सुघोंरायां तृष्णार्तो नष्टचेतनः। सरः सुरुचिरप्रख्यमपश्यं पक्षिभिर्वृतम्।। | 13-34-20a 13-34-20b |
तत्रावगाढः स्त्रीभूतो व्यक्तं दैवान्न संशयः। `अतृप्त एव पुत्राणां दाराणां च धनस्य च।।' | 13-34-21a 13-34-21b |
नामगोत्राणि चाभाव्य दाराणां मन्त्रिणां तथा। आह पुत्रांस्ततः सोऽथ स्त्रीभूतः पार्तिवोत्तमः। सम्प्रीत्या भुज्यतांराज्यं वनं यास्यामि पुत्रकाः।। | 13-34-22a 13-34-22b 13-34-22c |
स पुत्राणां शतं राजा अभिषिच्य वनं गतः। गत्वा चैवाश्रमं सा तु तापसं प्रत्यपद्यत।। | 13-34-23a 13-34-23b |
तापसेनास्य पुत्राणामाश्रमेष्वभवच्छतम्। अथ साऽऽदाय तान्सर्वान्पूर्वपुत्रानभाषत।। | 13-34-24a 13-34-24b |
पुरुषत्वे सुता यूयं स्त्रीत्वे चेमे शतं सुताः। एकत्र भुज्यतां राज्यं भ्रातृभावेन पुत्रकाः।। | 13-34-25a 13-34-25b |
सहिता भ्रातरस्तेऽथ राज्यं बुभुजिरे तदा।। | 13-34-26a |
तान्दृष्ट्वा भातृभावेन भुञ्जानान्राज्यमुत्तमम्। चिन्तयामास देवेन्द्रो मन्युनाऽथ परिप्लुतः। उपकारोऽस्य राजर्षेः कृतो नापकृतं मया।। | 13-34-27a 13-34-27b 13-34-27c |
ततो ब्राह्मणरुपेण देवराजः शतक्रतुः। भेदयामास तान्गत्वा नगरं वै नृपात्मजान्।। | 13-34-28a 13-34-28b |
भ्रातृणां नास्ति सौभ्रात्रं येऽप्येकस्य पितः सुताः। कश्यपस्य सुराश्चैव असुराश्व सुतास्तथा। | 13-34-29a 13-34-29b |
राज्यहेतोर्विवदिताः कश्यपस्य सुरासुराः।। यूयं भङ्गास्वनापत्यास्तापसस्येतरे सुताः। | 13-34-30a 13-34-30b |
युष्माकं भेदितास्ते तु युद्धेऽन्योन्यमपातयन्। तच्छ्रुत्वा तापसी चापि संतप्ता प्ररुरोद ह।। | 13-34-31a 13-34-31b |
ब्राह्मणच्छद्मनाऽभ्येत्य तामिन्द्रोऽथान्वपृच्छत। केन दुःखेन संतप्ता रोदिषि त्वं वरानने।। | 13-34-32a 13-34-32b |
ब्राह्म्णं तं ततो दृष्ट्वा सा स्त्री करणमब्रवीत्। पुत्राणां द्वे शते ब्रह्मन्कालेन विनिपातिते।। | 13-34-33a 13-34-33b |
अहं राजाऽभव विप्र तत्र पूर्वं शतं मम। समुत्पन्नं सुरूपाणां पुत्राणां ब्राह्मणोत्तम।। | 13-34-34a 13-34-34b |
कदाचिन्मृगयां यात उद्धान्तो गहने वने। अवगाढश्च सरसि स्त्रीभूतो ब्राह्मणोत्तम।। | 13-34-35a 13-34-35b |
पुत्रान्राज्ये प्रतिष्ठाप्य वनमस्मि ततो गतः।। | 13-34-36a |
स्त्रियाश्च मे पुत्रशतं तापसेन महात्मना। आश्रमे जनितं ब्रह्मन्नीतं तन्नगरं मया।। | 13-34-37a 13-34-37b |
तेषां च वैरमुत्पन्नं कालयोगेन वै द्विज। एतच्छोचाम्यहं ब्रह्मन्दैवेन समभिप्लुता।। | 13-34-38a 13-34-38b |
इन्द्रस्तां दुःशितां दृष्ट्वा अब्रवीत्परुषं वचः।। | 13-34-39a |
पुरा सुदुःसहं भद्रे मम दुःखं त्वया कृतम्। इन्द्रद्विष्टेन यजता मामनाहूय धिष्ठितम्। इन्द्रोऽहमस्मि दुर्बुद्धे वैरं ते पातितं मया।। | 13-34-40a 13-34-40b 13-34-40c |
इन्द्रं दृष्ट्वा तु राजर्षिः पादयोः शिरसा गतः। प्रसीद त्रिदशश्रेष्ठ पुत्रकामेन स क्रतुः। इष्टस्त्रिदशशार्दूल तत्र मे क्षन्तुमर्हसि।। | 13-34-41a 13-34-41b 13-34-41c |
प्रणिपातेन तस्येन्द्रः परितुष्टो वरं ददौ।। | 13-34-42a |
पुत्रास्ते कतमे राजञ्जीवन्त्वेतत्प्रचक्ष्व मे। स्त्रीभूतस्य हि ये जाताः पुरुषस्याथ येऽभवन्।। | 13-34-43a 13-34-43b |
तापसी तु ततः शक्रमुवाच प्रयताञ्जलिः। स्त्रीभूतस्य हि ये पुत्रास्ते मे जीवन्तु वासव।। | 13-34-44a 13-34-44b |
इन्द्रस्तु विस्मितो दृष्ट्वा स्त्रियं पप्रच्छ तां पुनः। पुरुषोत्पादिता ये ते कथं द्वेष्याः सुतास्तव।। | 13-34-45a 13-34-45b |
स्त्रीभूतस्य हि ये जाताः स्नेहस्तेभ्योऽधिकः कथम्। कारणं श्रोतुमिच्छामि तन्मे वक्तुमिहार्हसि ।। | 13-34-46a 13-34-46b |
स्त्र्युवाच। | 13-34-47x |
स्त्रियास्त्वभ्यधिकः स्नेहो न तता पुरुषस्य वै। तस्मात्ते शक्र जीवन्तु ये जाताः स्त्रीकृतस्य वै।। | 13-34-47a 13-34-47b |
भीष्म उवाच। | 13-34-48x |
एवमुक्तस्ततस्त्विन्द्रः प्रीतो वाक्यमुवाच ह। सर्व एवेह जीवन्तु पुत्रास्ते सत्यवादिनि।। | 13-34-48a 13-34-48b |
वरं च वृणु राजेन्द्र यं त्वमिच्छसि सुव्रत। पुरुषत्वमथ स्त्रीत्वं मत्तो यदभिकाङ्क्षसे।। | 13-34-49a 13-34-49b |
स्त्र्युवाच। | 13-34-50x |
स्त्रीत्वमेव वृणे शक्र पुंस्त्वं नेच्छामि वासव। एवमुक्तस्तु देवेन्द्रस्तां स्त्रियं प्रत्युवाच ह।। | 13-34-50a 13-34-50b |
पुरुषत्वं कथं त्यक्त्वा स्त्रीत्वं रोचयसे विभो। एवमुक्तः प्रत्युवाच स्त्रीभूतो राजसत्तमः।। | 13-34-51a 13-34-51b |
स्त्रियाः पुरुषसंयोगे प्रीतिरभ्यधिका सदा। एतस्मात्कारणाच्छक्र स्त्रीत्वमेव वृणोम्यहम्।। | 13-34-52a 13-34-52b |
रमाभि चाधिकं स्त्रीत्वे सत्यं वै देवसत्तम। स्त्रीभावेन हि तुष्यामि गम्यतां त्रिदशाधिप।। | 13-34-53a 13-34-53b |
एवमस्त्विति चोक्त्वा तामापृच्छ्य त्रिदिवं गतः। एवं स्त्रिया महाराज अधिका प्रीतिरुच्यते।। | 13-34-54a 13-34-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।। 34 ।। |
13-34-1 स्पर्शः वैषयिकं सुखम्।। 13-34-4 तत्र ह्यग्निदेव स्तूयते। सच पुत्रप्रदः क्रतुः सचेन्द्रद्विष्टस्तत्रेन्द्रस्य प्राधान्याभावात्।। 13-34-5 यज्ञं कृतमिति शेषः।। 13-34-14 मृदुत्वादयः स्त्रीगुणा आगताः।। 13-34-15 कर्कशत्वादयः पुरुषगुणाः नष्टाः।। 13-34-23 प्रत्यपद्यत भर्तृत्वेन स्वीकृतवती।। 13-34-27 स्त्रीत्वदानेन द्विगुणितपुत्रप्राप्तिरूप उपकारएव जातो न स्त्रीत्वकृतोऽपकार इत्यर्थः।। 13-34-40 इन्दद्विष्टेन अप्रिष्टुता यज्ञेन। धिष्ठितमधिष्ठितम्। क्रतूनिति शेषः।।
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