महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-174
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बृहस्पतिना युधिष्ठिरंप्रति पश्चात्तापादेर्ब्राह्मणेभ्योऽन्नदानस्य च पापपरिहारोपायत्वकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-174-1x |
अधर्मस्य गतिर्ब्रह्मन्कथिता मे त्वयाऽनघ। धर्मस्य तु गतिं श्रोतुमिच्छामि वदतांवर।। | 13-174-1a 13-174-1b |
कृत्वा कर्माणि पापानि कथं यान्ति शुभां गतिम्। कर्मणा च कृतेनेह केन यान्ति शुभां गतिम्।। | 13-174-2a 13-174-2b |
बृहस्पतिरुवाच। | 13-174-3x |
कृत्वा पापानि कर्माणि अधर्मवशमागतः। मनसा विपरीतेन निरयं प्रतिपद्यते।। | 13-174-3a 13-174-3b |
मोहादधर्मं यः कृत्वा पुनः समनुतप्यते। मनःसमाधिसंयुक्तो न स सेवेत दुष्कृतम्।। | 13-174-4a 13-174-4b |
[यथायथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हते। तथातथा शरीरं तु तेनाधर्मेण मुच्यते।। | 13-174-5a 13-174-5b |
यदि व्याहरते राजन्विप्राणां धर्मवादिनाम्। ततोऽधर्मकृतात्क्षिप्रमपवादात्प्रमुच्यते।।] | 13-174-6a 13-174-6b |
यथायथा नरः सम्यगध्रममनुभाषते। समाहितेन मनसा विमुच्येत तथातथा। भुजङ्ग इव निर्मोकात्पूर्वभुक्ताज्जरान्वितात्।। | 13-174-7a 13-174-7b 13-174-7c |
दत्त्वा विप्रस्य दानानि विविधानि समाहितः। मनःसमाधिसंयुक्तः सुगतिं प्रतिपद्यते।। | 13-174-8a 13-174-8b |
प्रदानानि तु वक्ष्यामि यानि दत्त्वा युधिष्ठिर। नरः कृत्वाऽप्यकार्याणि ततो धर्मेण युज्यते।। | 13-174-9a 13-174-9b |
सर्वेषामेव दानानामन्नं श्रेष्ठमुदाहृतम्। पूर्वमन्नं प्रदातव्यमृजुना धर्ममिच्छता।। | 13-174-10a 13-174-10b |
प्राणा ह्यन्नं मनुष्याणां तस्माज्जन्तुश्च जायते। अन्ने प्रतिष्ठितो लोकस्तस्मादन्नं प्रशस्यते।। | 13-174-11a 13-174-11b |
अन्नमेव प्रशंसन्ति देवर्षिपितृमानवाः। अन्नस्य हि प्रदानेन स्वर्गमाप्नोति मानवः।। | 13-174-12a 13-174-12b |
न्यायलब्धं प्रदातव्यं द्विजातिभ्योऽन्नमुत्तमम्। स्वाध्यायसमुपेतेभ्यः प्रहृष्टेनान्तरात्मना।। | 13-174-13a 13-174-13b |
यस्य ह्यन्नमुपाश्नन्ति ब्राह्मणानां शतं दश। हृष्टेन मनसा दत्तं न स तिर्यग्गतिर्भवेत्।। | 13-174-14a 13-174-14b |
ब्राह्मणानां सहस्राणि दश भोज्य नरर्षभ। नरोऽधर्मात्प्रमुच्येत योगेष्वभिरतः सदा।। | 13-174-15a 13-174-15b |
भैक्ष्येणान्नं समाहृत्य दद्यादन्नं द्विजेषु वै। सुवर्णदानात्पापानि नश्यन्ति सुबहून्यपि।। | 13-174-16a 13-174-16b |
दत्त्वा वृत्तिकरीं भूमिं पातकेनापि मुच्यते। पारायणैश्च वेदानां मुच्यते पातकैर्द्विजः।। | 13-174-17a 13-174-17b |
गायत्र्याश्चैव लक्षेण गोसहस्रस्य तर्पणात्। वेदार्थं ज्ञापयित्वा तु शुद्धान्विप्रान्यथार्थतः।। | 13-174-18a 13-174-18b |
सर्वत्यागादिभिश्चैव मुच्यते पातकैर्द्विजः। सर्वातिथ्यं परं ह्येषां तस्माद्दानं परं स्मृतम्।। | 13-174-19a 13-174-19b |
अहिंसन्ब्राह्मणस्वानि न्यायेन परिपाल्य च। क्षत्रियस्तरसा प्राप्तमन्नं यो वै प्रयच्छति।। | 13-174-20a 13-174-20b |
द्विजेभ्यो वेदवृद्धेभ्यः प्रयतः सुसमाहितः। तेनापोहति धर्मात्मन्दुष्कृतं कर्म पाण्डव।। | 13-174-21a 13-174-21b |
षड्भागपरिशुद्धं च कृषेर्भागमुपार्जितम्। वैश्योऽददद्द्विजातिभ्यः पापेभ्यः परिमुच्यते।। | 13-174-22a 13-174-22b |
अवाप्य प्राणसंदेहं कार्कश्येन समार्जितम्। अन्नं दत्त्वा द्विजातिभ्यः शूद्रः पापात्प्रमुच्यते।। | 13-174-23a 13-174-23b |
औरसेन बलेनान्नमर्जयित्वाऽविहिंसकः। यः प्रयच्छति विप्रेभ्यो न स दुर्गाणि पश्यति।। | 13-174-24a 13-174-24b |
न्यायेनैवाप्तमन्नं तु नरो हर्षसमन्वितः। द्विजेभ्यो वेदवृद्धेभ्यो दत्त्वा पापात्प्रमुच्यते।। | 13-174-25a 13-174-25b |
अन्नमूर्जस्करं लोके दत्त्वोर्जस्वी भवेन्नरः। सतां पन्थानमावृत्य सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 13-174-26a 13-174-26b |
`शूद्रान्नं नैव भोक्तव्यं विप्रैर्धर्मपरायणैः। आपद्येव स्वदासानां भोक्तव्यं स्वयमुद्यतैः।। | 13-174-27a 13-174-27b |
दानवद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः। ते हि प्राणस्य दातारस्तेभ्यो धर्मः सनातनः।। | 13-174-28a 13-174-28b |
सर्वावस्थं मनुष्येण न्यायेनान्नमुपार्जितम्। कार्यं पात्रागतं नित्यमन्नं हि परमा गतिः।। | 13-174-29a 13-174-29b |
अन्नस्य हि प्रदानेन नरो रौद्रं न सेवते। तस्मादन्नं प्रदातव्यमन्यायपरिवर्जितम्।। | 13-174-30a 13-174-30b |
यतेद्ब्राह्मणपूर्वं हि भोक्तुमन्नं गृही सदा। अवन्ध्यं दिवसं कुर्यादन्नपानीयदानतः।। | 13-174-31a 13-174-31b |
भोजयित्वा दशशतं नरो वेदविदां नृप। न्यायविद्धर्मविदुषामितिहासविदां तथा।। | 13-174-32a 13-174-32b |
न याति नरकं घोरं संसारांश्च न सेवते। सर्वकामसमायुक्तः प्रेत्य चाप्यश्नुते सुखम्।। | 13-174-33a 13-174-33b |
एवं सुखसमायुक्तो रमते विगतज्वरः। रूपवान्कीर्तिमांश्चैव धनवांश्चोपपद्यते।। | 13-174-34a 13-174-34b |
एतत्ते सर्वमाख्यातमन्नदानफलं महूत्। मूलमेतत्तु धर्माणां प्रदानानां च भारत।। | 13-174-35a 13-174-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 117 ।। |
13-174-12 प्रदानेन रन्तिदेवो दिवं गतः इति झ.पाठः।।
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