महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-101
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति जलतिलभूम्यन्नगोदानादिफलकथनम्। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-101-1x |
दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ। यत्फलं तस्य भवति तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-101-1a 13-101-1b |
भीष्म उवाच। | 13-101-2x |
उपानहौ प्रयच्छेद्यो ब्राह्मणेभ्यः समाहितः। मर्दते कण्टकान्सर्वान्विषमान्निस्तरत्यपि।। | 13-101-2a 13-101-2b |
स शत्रूणामुपरि च सन्तिष्ठति युधिष्ठिर। यानं चाश्वतरीयुक्तं तस्य शुभ्रं विशाम्पते।। | 13-101-3a 13-101-3b |
उपतिष्ठति कौन्तेय रौप्यकाञ्चनभूषितम्। शकटं दम्यसंयुक्तं दत्तं भवति चैव हि।। | 13-101-4a 13-101-4b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-101-5x |
यत्फलं तिलदाने च भूमिदाने च कीर्तितम्। गोदाने चान्नदाने च भूयस्तद्ब्रूहि कौरव।। | 13-101-5a 13-101-5b |
भीष्म उवाच। | 13-101-6x |
शृणुष्व मम कौन्तैय तिलदानस्य यत्फलम्। निशम्य च यथान्यायं प्रयच्छ कुरुसत्तम।। | 13-101-6a 13-101-6b |
पितॄणां प्रथमं भोज्यं तिलाः सृष्टाः स्वयंभुवा। तिलदानेन वै तस्मात्पितृपक्षः प्रमोदते।। | 13-101-7a 13-101-7b |
माघमासे तिलान्यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। सर्वसत्वसमाकीर्णं नरकं स न पश्यति।। | 13-101-8a 13-101-8b |
सर्वसत्रैश्च यजते यस्तिलैर्यजते पितॄन्। न चाकामेन दातव्यं तिलैः श्राद्धं कदाचन।। | 13-101-9a 13-101-9b |
महर्षेः कश्यपस्यैते गात्रेभ्यः प्रसृतास्तिलाः। ततो दिव्यं गता भावं प्रदानेषु तिलाः प्रभो | 13-101-10a 13-101-10b |
पौष्टिका रूपदाश्चैव तथा पापविनाशनाः। तस्मात्सर्वप्रदानेभ्यस्तिलदानं विशिष्यते।। | 13-101-11a 13-101-11b |
आपस्तम्बश्च मेधावी शङ्खश्च लिखितस्तथा। महर्षिर्गौतमश्चापि तिलदानैर्दिवं गताः।। | 13-101-12a 13-101-12b |
तिलहोमरता विप्राः सर्वे संयतमैथुनाः। समा गव्येन हविषा प्रवृत्तिषु च संस्थिताः।। | 13-101-13a 13-101-13b |
सर्वेषामिति दानानां तिलदानं विशिष्यते। अक्षयं सर्वदानानां तिलदानमिहोच्यते।। | 13-101-14a 13-101-14b |
उच्छिन्ने तु पुरा हव्ये कुशिकर्षिः परन्तपः। तिलैरग्नित्रयं हुत्वा प्राप्तवान्गतिमुत्तमाम्।। | 13-101-15a 13-101-15b |
इति प्रोक्तं कुरुश्रेष्ठ तिलदानमनुत्तमम्। विधानं येन विधिना तिलानामिह शस्यते।। | 13-101-16a 13-101-16b |
अत ऊर्ध्वं निबोधेदं देवानां यष्टुमिच्छताम्। समागमे महाराज ब्रह्मणा वै स्वयंभुवा।। | 13-101-17a 13-101-17b |
देवाः समेत्य ब्रह्माणं भूमिभागे यियश्रवः। शुभं देशमयाचन्त यजेम इति पार्थिव।। | 13-101-18a 13-101-18b |
देवा ऊचुः। | 13-101-19x |
भगवंस्त्वं प्रभुर्भूमेः सर्वस्य त्रिदिवस्य च। यजेम हि महाभाग यज्ञं भवदनुज्ञया।। | 13-101-19a 13-101-19b |
नाननुज्ञातभूमिर्हि यज्ञस्य फलमश्नुते। त्वं हि सर्वस्य जगतः स्थावरस्य चरस्य च। प्रभुर्भवसि तस्मात्त्वं समनुज्ञातुमर्हसि।। | 13-101-20a 13-101-20b 13-101-20c |
ब्रह्मोवाच। | 13-101-21x |
ददानि मेदिनीभागं भवद्भ्योऽहं सुरर्षभाः। यस्मिन्देशे करिष्यध्वं यज्ञान्काश्यपनन्दनाः।। | 13-101-21a 13-101-21b |
दैवा ऊचुः। | 13-101-22x |
भगवन्कृतकामाः स्म यक्ष्महे स्वाप्तदक्षिणैः। इमं तु देशं मुनयः पर्युपासन्ति नित्यदा।। | 13-101-22a 13-101-22b |
ततोऽगस्त्यश्च कण्वश्च भृगुरत्रिर्वृषाकपिः। असितो देवलश्चैव देवयज्ञमुपागमन्।। | 13-101-23a 13-101-23b |
ततो देवा महात्मान ईजिरे यज्ञमच्युतम्। तथा समापयामासुर्यथाकालं सुरर्षभाः।। | 13-101-24a 13-101-24b |
त इष्टयज्ञास्त्रिदशा हिमवत्यचलोत्तमे। षष्ठमंशं क्रतोस्तस्य भूमिदानं प्रचक्रिरे। | 13-101-25a 13-101-25b |
प्रादेशमात्रं भूमेस्तु यो दद्यादनुपस्कृतम्। न सीदति स कृच्छ्रेषु न च दुर्गाण्यवाप्नुते।। | 13-101-26a 13-101-26b |
शीतवातातपसहां यागभूमिं सुसंस्कृताम्। प्रदाय सुरलोकस्थः पुण्यान्तेऽपि न चाल्यते।। | 13-101-27a 13-101-27b |
मुदितो वसति प्राज्ञः शक्रेण सह पार्थिव। पतिश्रयप्रदानाच्च सोऽपि स्वर्गे महीयते।। | 13-101-28a 13-101-28b |
अध्यापककुले जातः श्रोत्रियो नियतेन्द्रियः। गृहे यस्य वसेत्तुष्टः प्रधानं लोकमश्नुते।। | 13-101-29a 13-101-29b |
तथा गवार्थे शरणं शीतवर्षसहं दृढम्। आसप्तमं तारयति कुलं भरतसत्तम।। | 13-101-30a 13-101-30b |
क्षेत्रभूमिं ददल्लोके शुभां श्रियमवाप्नुयात्। रत्नभूमिं प्रदद्यात्तु कुलवंशं प्रवर्धयेत्।। | 13-101-31a 13-101-31b |
न चोषरां न निर्दग्धां महीं दद्यात्कथञ्चन। न श्मशानपरीतां च न च पापनिषेविताम्।। | 13-101-32a 13-101-32b |
पारक्ये भूमिदेशे तु पितॄणां निर्वपेत्तु यः। तद्भूमिं वाऽपि पितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते।। | 13-101-33a 13-101-33b |
तस्मात्क्रीत्वा महीं दद्यात्स्वल्पामपि विचक्षणः। पिण्डः पितृभ्यो दत्तो वै तस्यां भवति शाश्वतः।। | 13-101-34a 13-101-34b |
अटवी पर्वताश्चैव नद्यस्तीर्थानि यानि च। सर्वाण्यस्वामिकान्याद्दुर्न हि तत्र परिग्रहः।। | 13-101-35a 13-101-35b |
इत्येतद्भूमिदानस्य फलमुक्तं विशाम्पते। अतः परं तु गोदानं कीर्तयिष्यामि तेऽनघ।। | 13-101-36a 13-101-36b |
गावोऽधिकास्तपस्विभ्यो यस्मात्सर्वेभ्य एव च। तस्मान्महेश्वरो देवस्तपस्ताभिः सहास्थितः।। | 13-101-37a 13-101-37b |
ब्राह्मे लोके वसन्त्येताः सोमेन सह भारत। यां तां ब्रह्मर्षयः सिद्धाः प्रार्थयन्ति परां गतिम्।। | 13-101-38a 13-101-38b |
पयसा हविषा दध्ना शकृता चाथ चर्मणा। अस्थिभिश्चोपकुर्वन्ति शृङ्गैर्वालैश्च भारत।। | 13-101-39a 13-101-39b |
नासां शीतातपौ स्यातां सदैताः कर्म कुर्वते। न वर्षविषयं वाऽपि दुःखमासां भवत्युत।। | 13-101-40a 13-101-40b |
ब्राह्मणैः सहिता यान्ति तस्मात्पारमकं पदम्। एकं गोब्राह्मणं तस्मात्प्रवदन्ति मनीषिणः।। | 13-101-41a 13-101-41b |
रन्तिदेवस्य यज्ञे ताः पशुत्वेनोपकल्पिताः। अतश्चर्मण्वती राजन्गोचर्मभ्यः प्रवर्तिता। पशुत्वाच्च विनिर्मुक्ताः प्रदानायोपकल्पिताः।। | 13-101-42a 13-101-42b 13-101-42b |
ता इमा विप्रमुख्येभ्यो यो ददाति महीपते। निस्तरेदापदं कृच्छ्रां विषमस्थोऽपि पार्थिव।। | 13-101-43a 13-101-43b |
गवां सहस्रदः प्रेत्य नरकं न प्रपद्यते। सर्वत्र विजयं चापि लभते मनुजाधिप।। | 13-101-44a 13-101-44b |
अमृतं वै गवां क्षीरमित्याह त्रिदशाधिपः। तस्माद्ददाति यो धेनुममृतं स प्रयच्छति।। | 13-101-45a 13-101-45b |
अग्नीनामव्ययं ह्येतद्धौम्यं वेदविदो विदुः। तस्माद्ददाति यो धेनुं स हौम्यं सम्प्रयच्छति।। | 13-101-46a 13-101-46b |
स्वर्गो वै मूर्तिमानेष वृषभं यो गवां पतिम्। विप्रे गुणयुते दद्यात्स वै स्वर्गे महीयते।। | 13-101-47a 13-101-47b |
प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ। तस्माद्ददाति यो धेनुं प्राणानेष प्रयच्छति।। | 13-101-48a 13-101-48b |
गावः शरण्या भूतानामिति वेदविदो विदुः। तस्माद्ददाति यो धेनुं शरणं सम्प्रयच्छति।। | 13-101-49a 13-101-49b |
न वधार्थं प्रदातव्या न कीनाशे न नास्तिके। गोजीविने न दातव्या तथा गौर्भरतर्षभ। `गोरसानां न विक्रेतू रसं च यजनस्य च।।' | 13-101-50a 13-101-50b 13-101-50c |
ददत्स तादृशानां वै नरो गां पापकर्मणाम्। अक्षयं नरकं यातीत्येवमाहुर्महर्षयः।। | 13-101-51a 13-101-51b |
न कृशां नापवत्सां वा वन्ध्यां रोगान्वितां तथा। न व्यङ्गां न परिश्रान्तां दद्याद्गां ब्राह्मणाय वै।। | 13-101-52a 13-101-52b |
दशगोसहस्रदः सम्यक् शक्रेण सह मोदते। अक्षयाँल्लभते लोकान्नरः शतसहस्रशः।। | 13-101-53a 13-101-53b |
इत्येतद्गोप्रदानं च तिलदानं च कीर्तितम्। तथा भूमिप्रदानं च शृणुष्वान्ने च भारत।। | 13-101-54a 13-101-54b |
अन्नदानं प्रधानं हि कौन्तेय परिचक्षते। अन्नस्य हि प्रदानेन रन्तिदेवो दिवं गतः।। | 13-101-55a 13-101-55b |
श्रान्ताय क्षुधितायान्नं यः प्रयच्छति भूमिप। स्वायंभुवं महात्स्थानं स गच्छति नराधिप।। | 13-101-56a 13-101-56b |
न हिरण्यैर्न वासोभिर्नान्यदानेन भारत। प्राप्नुवन्ति नराः श्रेयो यथा ह्यन्नप्रदाः प्रभो।। | 13-101-57a 13-101-57b |
अन्नं वै प्रथमं द्रव्यमन्नं श्रीश्च परा मता। अन्नात्प्राणः प्रभवति तेजो वीर्यं बलं तथा।। | 13-101-58a 13-101-58b |
सद्यो ददाति यश्चान्नं सदैकाग्रमना नरः। न स दुर्गाण्यवाप्नोतीत्येवमाह पराशरः।। | 13-101-59a 13-101-59b |
अर्चयित्वा यथान्यायं देवेभ्योऽन्नं निवेदयेत्। यदन्ना हि नरा राजंस्तदन्नास्तस्य देवतः।। | 13-101-60a 13-101-60b |
कौमुद्यां शुक्लपक्षे तु योऽन्नदानं करोत्युत। स सन्तरति दुर्गाणि प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते।। | 13-101-61a 13-101-61b |
अभुक्त्वाऽतिथेये चान्नं प्रयच्छेद्यः समाहितः। स वै ब्रह्मविदां लोकान्प्राप्नुयाद्भरतर्षभ।। | 13-101-62a 13-101-62b |
सुकृच्छ्रामापदं प्राप्तश्चान्नदः पुरुषस्तरेत्। पापं तरति चैवेह दुष्कृतं चापकर्षति।। | 13-101-63a 13-101-63b |
इत्येतदन्नदानस्य तिलदानस्य चैव ह। भूमिदानस्य च फलं गोदानस्य च कीर्तितम्।। | 13-101-64a 13-101-64b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकाधिकशततमोऽध्यायः।। 101 ।। |
13-101-7 वै पुण्यं पितृलोके महीयते इति ध.पाठः।। 13-101-9 सर्वकामैश्च जयति यस्तिलैरिति नच कामेन दातव्यमिति च ध.पाठः।। 13-101-22 इमं हिमवत्सन्निहितम्।। 13-101-27 प्रतिश्रयो वासार्थं स्थलम्।। 13-101-33 तद्भूमिं परकीयां भूमिं वा यो निर्वपेत् पितृभिः पितृभ्यो दद्यात्तर्हि तच्छ्राद्धं तद्भूमिदानाख्यं कर्म चोभयं विहन्यते वृथा भवति।। 13-101-34 तस्यां क्रीतायाम्।। 13-101-46 आकुञ्चितमपि ह्येतद्धव्यं वेदविदो विदुरिति ध.पाठः।। 13-101-56 स्वयंभुवं महाभागं स पश्यति नराधिपेति ध.पाठः।। 13-101-58 अन्नं वै परमं दैवमिति ध.पाठः।।
तिलादिदानफलम्
युधिष्ठिर उवाच॥
दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ |
यत्फलं तस्य भवति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥१॥
भीष्म उवाच॥
उपानहौ प्रयच्छेद्यो ब्राह्मणेभ्यः समाहितः |
मर्दते कण्टकान्सर्वान्विषमान्निस्तरत्यपि ॥२॥
स शत्रूणामुपरि च सन्तिष्ठति युधिष्ठिर ॥२॥
यानं चाश्वतरीयुक्तं तस्य शुभ्रं विशां पते |
उपतिष्ठति कौन्तेय रूप्यकाञ्चनभूषणम् ॥३॥
शकटं दम्यसंयुक्तं दत्तं भवति चैव हि ॥३॥
युधिष्ठिर उवाच॥
यत्फलं तिलदाने च भूमिदाने च कीर्तितम् |
गोप्रदानेऽन्नदाने च भूयस्तद्ब्रूहि कौरव ॥४॥
भीष्म उवाच॥
शृणुष्व मम कौन्तेय तिलदानस्य यत्फलम् |
निशम्य च यथान्यायं प्रयच्छ कुरुसत्तम ॥५॥
पितॄणां प्रथमं भोज्यं तिलाः सृष्टाः स्वयम्भुवा |
तिलदानेन वै तस्मात्पितृपक्षः प्रमोदते ॥६॥
माघमासे तिलान्यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति |
सर्वसत्त्वसमाकीर्णं नरकं स न पश्यति ॥७॥
सर्वकामैः स यजते यस्तिलैर्यजते पितॄन् |
न चाकामेन दातव्यं तिलश्राद्धं कथञ्चन ॥८॥
महर्षेः कश्यपस्यैते गात्रेभ्यः प्रसृतास्तिलाः |
ततो दिव्यं गता भावं प्रदानेषु तिलाः प्रभो ॥९॥
पौष्टिका रूपदाश्चैव तथा पापविनाशनाः |
तस्मात्सर्वप्रदानेभ्यस्तिलदानं विशिष्यते ॥१०॥
आपस्तम्बश्च मेधावी शङ्खश्च लिखितस्तथा |
महर्षिर्गौतमश्चापि तिलदानैर्दिवं गताः ॥११॥
तिलहोमपरा विप्राः सर्वे संयतमैथुनाः |
समा गव्येन हविषा प्रवृत्तिषु च संस्थिताः ॥१२॥
सर्वेषामेव दानानां तिलदानं परं स्मृतम् |
अक्षयं सर्वदानानां तिलदानमिहोच्यते ॥१३॥
उत्पन्ने च पुरा हव्ये कुशिकर्षिः परन्तप |
तिलैरग्नित्रयं हुत्वा प्राप्तवान्गतिमुत्तमाम् ॥१४॥
इति प्रोक्तं कुरुश्रेष्ठ तिलदानमनुत्तमम् |
विधानं येन विधिना तिलानामिह शस्यते ॥१५॥
अत ऊर्ध्वं निबोधेदं देवानां यष्टुमिच्छताम् |
समागमं महाराज ब्रह्मणा वै स्वयम्भुवा ॥१६॥
देवाः समेत्य ब्रह्माणं भूमिभागं यियक्षवः |
शुभं देशमयाचन्त यजेम इति पार्थिव ॥१७॥
देवा ऊचुः॥
भगवंस्त्वं प्रभुर्भूमेः सर्वस्य त्रिदिवस्य च |
यजेमहि महाभाग यज्ञं भवदनुज्ञया ॥१८॥
नाननुज्ञातभूमिर्हि यज्ञस्य फलमश्नुते ॥१८॥
त्वं हि सर्वस्य जगतः स्थावरस्य चरस्य च |
प्रभुर्भवसि तस्मात्त्वं समनुज्ञातुमर्हसि ॥१९॥
ब्रह्मोवाच॥
ददामि मेदिनीभागं भवद्भ्योऽहं सुरर्षभाः |
यस्मिन्देशे करिष्यध्वं यज्ञं काश्यपनन्दनाः ॥२०॥
देवा ऊचुः॥
भगवन्कृतकामाः स्मो यक्ष्यामस्त्वाप्तदक्षिणैः |
इमं तु देशं मुनयः पर्युपासन्त नित्यदा ॥२१॥
भीष्म उवाच॥
ततोऽगस्त्यश्च कण्वश्च भृगुरत्रिर्वृषाकपिः |
असितो देवलश्चैव देवयज्ञमुपागमन् ॥२२॥
ततो देवा महात्मान ईजिरे यज्ञमच्युत |
तथा समापयामासुर्यथाकालं सुरर्षभाः ॥२३॥
त इष्टयज्ञास्त्रिदशा हिमवत्यचलोत्तमे |
षष्ठमंशं क्रतोस्तस्य भूमिदानं प्रचक्रिरे ॥२४॥
प्रादेशमात्रं भूमेस्तु यो दद्यादनुपस्कृतम् |
न सीदति स कृच्छ्रेषु न च दुर्गाण्यवाप्नुते ॥२५॥
शीतवातातपसहां गृहभूमिं सुसंस्कृताम् |
प्रदाय सुरलोकस्थः पुण्यान्तेऽपि न चाल्यते ॥२६॥
मुदितो वसते प्राज्ञः शक्रेण सह पार्थिव |
प्रतिश्रयप्रदाता च सोऽपि स्वर्गे महीयते ॥२७॥
अध्यापककुले जातः श्रोत्रियो नियतेन्द्रियः |
गृहे यस्य वसेत्तुष्टः प्रधानं लोकमश्नुते ॥२८॥
तथा गवार्थे शरणं शीतवर्षसहं महत् |
आसप्तमं तारयति कुलं भरतसत्तम ॥२९॥
क्षेत्रभूमिं ददल्लोके पुत्र श्रियमवाप्नुयात् |
रत्नभूमिं प्रदत्त्वा तु कुलवंशं विवर्धयेत् ॥३०॥
न चोषरां न निर्दग्धां महीं दद्यात्कथञ्चन |
न श्मशानपरीतां च न च पापनिषेविताम् ॥३१॥
पारक्ये भूमिदेशे तु पितॄणां निर्वपेत्तु यः |
तद्भूमिस्वामिपितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते ॥३२॥
तस्मात्क्रीत्वा महीं दद्यात्स्वल्पामपि विचक्षणः |
पिण्डः पितृभ्यो दत्तो वै तस्यां भवति शाश्वतः ॥३३॥
अटवीपर्वताश्चैव नदीतीर्थानि यानि च |
सर्वाण्यस्वामिकान्याहुर्न हि तत्र परिग्रहः ॥३४॥
इत्येतद्भूमिदानस्य फलमुक्तं विशां पते |
अतः परं तु गोदानं कीर्तयिष्यामि तेऽनघ ॥३५॥
गावोऽधिकास्तपस्विभ्यो यस्मात्सर्वेभ्य एव च |
तस्मान्महेश्वरो देवस्तपस्ताभिः समास्थितः ॥३६॥
ब्रह्मलोके वसन्त्येताः सोमेन सह भारत |
आसां ब्रह्मर्षयः सिद्धाः प्रार्थयन्ति परां गतिम् ॥३७॥
पयसा हविषा दध्ना शकृताप्यथ चर्मणा |
अस्थिभिश्चोपकुर्वन्ति शृङ्गैर्वालैश्च भारत ॥३८॥
नासां शीतातपौ स्यातां सदैताः कर्म कुर्वते |
न वर्षं विषमं वापि दुःखमासां भवत्युत ॥३९॥
ब्राह्मणैः सहिता यान्ति तस्मात्परतरं पदम् |
एकं गोब्राह्मणं तस्मात्प्रवदन्ति मनीषिणः ॥४०॥
रन्तिदेवस्य यज्ञे ताः पशुत्वेनोपकल्पिताः |
ततश्चर्मण्वती राजन्गोचर्मभ्यः प्रवर्तिता ॥४१॥
पशुत्वाच्च विनिर्मुक्ताः प्रदानायोपकल्पिताः |
ता इमा विप्रमुख्येभ्यो यो ददाति महीपते ॥४२॥
निस्तरेदापदं कृच्छ्रां विषमस्थोऽपि पार्थिव ॥४२॥
गवां सहस्रदः प्रेत्य नरकं न प्रपश्यति |
सर्वत्र विजयं चापि लभते मनुजाधिप ॥४३॥
अमृतं वै गवां क्षीरमित्याह त्रिदशाधिपः |
तस्माद्ददाति यो धेनुममृतं स प्रयच्छति ॥४४॥
अग्नीनामव्ययं ह्येतद्धौम्यं वेदविदो विदुः |
तस्माद्ददाति यो धेनुं स हौम्यं सम्प्रयच्छति ॥४५॥
स्वर्गो वै मूर्तिमानेष वृषभं यो गवां पतिम् |
विप्रे गुणयुते दद्यात्स वै स्वर्गे महीयते ॥४६॥
प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ |
तस्माद्ददाति यो धेनुं प्राणान्वै स प्रयच्छति ॥४७॥
गावः शरण्या भूतानामिति वेदविदो विदुः |
तस्माद्ददाति यो धेनुं शरणं सम्प्रयच्छति ॥४८॥
न वधार्थं प्रदातव्या न कीनाशे न नास्तिके |
गोजीविने न दातव्या तथा गौः पुरुषर्षभ ॥४९॥
ददाति तादृशानां वै नरो गाः पापकर्मणाम् |
अक्षयं नरकं यातीत्येवमाहुर्मनीषिणः ॥५०॥
न कृशां पापवत्सां वा वन्ध्यां रोगान्वितां तथा |
न व्यङ्गां न परिश्रान्तां दद्याद्गां ब्राह्मणाय वै ॥५१॥
दशगोसहस्रदः सम्यक्षक्रेण सह मोदते |
अक्षयाँल्लभते लोकान्नरः शतसहस्रदः ॥५२॥
इत्येतद्गोप्रदानं च तिलदानं च कीर्तितम् |
तथा भूमिप्रदानं च शृणुष्वान्ने च भारत ॥५३॥
अन्नदानं प्रधानं हि कौन्तेय परिचक्षते |
अन्नस्य हि प्रदानेन रन्तिदेवो दिवं गतः ॥५४॥
श्रान्ताय क्षुधितायान्नं यः प्रयच्छति भूमिप |
स्वायम्भुवं महाभागं स पश्यति नराधिप ॥५५॥
न हिरण्यैर्न वासोभिर्नाश्वदानेन भारत |
प्राप्नुवन्ति नराः श्रेयो यथेहान्नप्रदाः प्रभो ॥५६॥
अन्नं वै परमं द्रव्यमन्नं श्रीश्च परा मता |
अन्नात्प्राणः प्रभवति तेजो वीर्यं बलं तथा ॥५७॥
सद्भ्यो ददाति यश्चान्नं सदैकाग्रमना नरः |
न स दुर्गाण्यवाप्नोतीत्येवमाह पराशरः ॥५८॥
अर्चयित्वा यथान्यायं देवेभ्योऽन्नं निवेदयेत् |
यदन्नो हि नरो राजंस्तदन्नास्तस्य देवताः ॥५९॥
कौमुद्यां शुक्लपक्षे तु योऽन्नदानं करोत्युत |
स सन्तरति दुर्गाणि प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते ॥६०॥
अभुक्त्वातिथये चान्नं प्रयच्छेद्यः समाहितः |
स वै ब्रह्मविदां लोकान्प्राप्नुयाद्भरतर्षभ ॥६१॥
सुकृच्छ्रामापदं प्राप्तश्चान्नदः पुरुषस्तरेत् |
पापं तरति चैवेह दुष्कृतं चापकर्षति ॥६२॥
इत्येतदन्नदानस्य तिलदानस्य चैव ह |
भूमिदानस्य च फलं गोदानस्य च कीर्तितम् ॥६३॥
अनुशासनपर्व-100 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-102 |