महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-220
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ईश्वरेणोमांप्रति अन्धत्वपङ्गुत्वादिनानादोषकारणीभूतानां दुष्कर्मणां विशिष्य कथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-220-1x |
भगवन्देवदेवेश मम प्रीतिविवर्धन। `जात्यन्धाश्चैव दृश्यन्ते जाता वा नष्टचक्षुषः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-1a 13-220-1b 13-220-1c |
महेश्वर उवाच। | 13-220-2x |
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्।। | 13-220-2a |
ये पुरा कामकारेणि परवेश्मसु लोलुपाः। परस्त्रियोऽभिवीक्षन्ते दुष्टेनैव स्वचक्षुषाः।। | 13-220-3a 13-220-3b |
अन्धीकुर्वन्ति यन्मर्त्यान्क्रोधलोभसमन्विताः। लक्षणज्ञाश्च रूपेषु अयथावत्प्रदर्शकाः।। | 13-220-4a 13-220-4b |
एवं युक्तसमाचाराः कालधर्मवशास्तु ते। दण्डिता यमदण्डेन निरयस्थाश्चिरं प्रिये।। | 13-220-5a 13-220-5b |
यदि चेन्मानुषं जन्म लभेरंस्ते तथापि वा। स्वभावतो वा जाता वा अन्धा एव भवन्ति ते। अक्षिरोगयुता वाऽपि नास्ति तत्र विचारणा।। | 13-220-6a 13-220-6b 13-220-6c |
उमोवाच। | 13-220-7x |
मुखरोगयुताः केचिद्दृश्यन्ते सततं नराः। दन्तकण्ठकपोलस्थैर्व्याधिभिर्बहुपीडिताः।। | 13-220-7a 13-220-7b |
आदिप्रभृति वै मर्त्या जाता वाऽप्यथ कारणात्। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-8a 13-220-8b |
महेश्वर उवाच। | 13-220-9x |
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु देवि समाहिता।। | 13-220-9a |
कुवक्तारस्तु ये देवि जिह्वया कटुकं भृशम्। असत्यं परुषं घोरं गुरून्प्रति परान्प्रति।। | 13-220-10a 13-220-10b |
जिह्वाबाधां तदाऽन्येषां कुर्वते कोपकारणात्। प्रायशोऽनृतभूयिष्ठा नराः कार्यवशेन वा। तेषां जिह्वाप्रदेशस्था व्याधयः सम्भवन्ति ते।। | 13-220-11a 13-220-11b 13-220-11c |
कुश्रोतारस्तु ये चार्यं परेषां कर्णनाशकाः। कर्णरोगान्बहुविधाँल्लभन्ते ते पुनर्भवे।। | 13-220-12a 13-220-12b |
दन्तरोगशिरोरोगकर्णरोगास्तथैव च। अन्ये दुःखाश्रिता दोषाः सर्वे चात्मकृतं फलम्।। | 13-220-13a 13-220-13b |
उमोवाच। | 13-220-14x |
पीड्यन्ते सततं देव मानुषेष्वेव केचन। कुक्षिपक्षाश्रितैर्दोषैर्व्याधिभिश्चोदराश्रितैः।। | 13-220-14a 13-220-14b |
तीक्ष्णिशूलैश्च पीड्यन्ते नरा दुःखपरिप्लुताः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-15a 13-220-15b |
महेश्वर उवाच। | 13-220-16x |
ये पुरा मनुजा देवि कामक्रोधवशा भृशम्। आत्मार्थमेव चाहारं भुञ्जन्ते निरपेक्षकाः।। | 13-220-16a 13-220-16b |
अभक्ष्याहारदानैश्च विश्वस्तानां विषप्रदाः। अभक्ष्यभक्षदाश्चैव शौचमङ्गलवर्जिताः।। | 13-220-17a 13-220-17b |
मांसयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। कथञ्चित्प्राप्य मानुष्यं तत्र ते व्याधिपीडिताः।। | 13-220-18a 13-220-18b |
तैस्तैर्बहुविधाकारैर्व्याधिभिर्दुःखसंश्रिताः। भवन्त्येवं तथा देवि यथा चैवं तथा कृतम्।। | 13-220-19a 13-220-19b |
उमोवाच। | 13-220-20x |
दृश्यन्ते सततं देव व्याधिभिर्मेहनाश्रितैः। पीड्यमानास्तथा मर्त्या अश्मरीशर्करादिभिः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-20a 13-220-20b 13-220-20c |
महेश्वर उवाच। | 13-220-21x |
ये पुरा मनुजा देवि परदारप्रधर्षकाः। तिर्यग्योनिषु धूर्ता वै मैथुनार्थं चरन्ति च।। | 13-220-21a 13-220-21b |
कामदोषेणि ये धूर्ताः कन्यासु विधवासु च। बलात्कारेण गच्छन्ति रूपदर्पसमन्विताः।। | 13-220-22a 13-220-22b |
तादृशा मरणं पुनर्जन्मनि शोभने। यदि चेन्मानुषं जन्म लभेरंस्ते तथाविधाः। मेहनस्थैस्तथा घोरैः पीड्यन्ते व्यधिभिः प्रिये।। | 13-220-23a 13-220-23b 13-220-23c |
उमोवाच। | 13-220-24x |
भगवन्मानुषाः केचिद्दृश्यन्ते शोषिणः कृशाः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-24a 13-220-24b |
महेश्वर उवाच। | 13-220-25x |
ये पुरा मनुजा देवि मांसलुब्धाः सुलोलुपाः। आत्मार्थे स्वादुगृद्धाश्च परभोगोपतापिनः।। | 13-220-25a 13-220-25b |
अभ्यसूयाश्चोपतापाः परभोगेषु ये नराः। एवं युक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने।। | 13-220-26a 13-220-26b |
शेषव्याधियुतास्तत्र नरा धमनिसंतताः। भवन्त्येव नरा देवि पापकर्मोपभोगिनः।। | 13-220-27a 13-220-27c |
उमोवाच। | 13-220-28x |
भगवन्मानुषाः केचित्क्लिश्यन्ते कण्ठरोगिणः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-28a 13-220-28b |
महेश्वर उवाच। | 13-220-29x |
ये पुरा मनुजा देवि परेषां रूपनाशनाः। आघातवधबन्धैश्च वृथा दण्डेन मोहिताः।। | 13-220-29a 13-220-29b |
इष्टनाशकरा ये तु अपथ्याहारदा नराः। चिकित्सका वा दुष्टास्च द्वेषलोभसमन्विताः।। | 13-220-30a 13-220-30b |
निर्दयाः प्राणिहिंसायां मलदाश्चित्तनाशनाः। एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने।। | 13-220-31a 13-220-31b |
यदि वै मानुषं जन्म लभेरंस्तेषु दुःखिताः। अत्र ते क्लेशसंयुक्ताः कण्ठरोगशतैर्वृताः।। | 13-220-32a 13-220-32b |
केचित्त्वग्दोषसंयुक्ता व्रणकुष्ठैश्च संयुताः। श्वित्रकुष्ठयुता वाऽपि बहुधा कृच्छ्रसंयुताः। भवन्त्येव नरा देवि यथा तेन कृतं फलम्।। | 13-220-33a 13-220-33b 13-220-33c |
उमोवाच। | 13-220-34x |
भगवन्मानुषाः केचिदङ्गहीनाश्च पङ्गव। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-34a 13-220-34b |
महेश्वर उवाच। | 13-220-35x |
ये पुरा मनुजा देवि लोभमोहसमावृताः। प्राणिनां प्राणहिंसार्थमङ्गविघ्नं प्रकुर्वते। शस्त्रेणोत्कृत्य वा देवि प्राणिनां चेष्टनाशकाः।। | 13-220-35a 13-220-35b 13-220-35c |
एवं युक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। तदङ्गहीना वै प्रेत्य भवन्त्येव न संशयः। स्वभावतो वा जाता वा पङ्गवश्च भवन्ति ते।। | 13-220-36a 13-220-36b 13-220-36c |
उमोवाच। | 13-220-37x |
भगवन्मानुषाः केचिद्ग्रन्थिभिः पिलकैस्तथा। क्लिश्यमानाः प्रदृश्यन्ते तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-37a 13-220-37b |
महेश्वर उवाच। | 13-220-38x |
ये पुरा मनुजा देवि ग्रन्थिभेदकरा नृणाम्। मुष्टिप्रहारपरुषा नृशंसाः पापकारिणः। पाटकास्तोटकाश्चैव शूलतुन्नास्तथैव च।। | 13-220-38a 13-220-38b 13-220-38c |
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। ग्रन्थिभिः पिलकैश्चैव क्लिश्यन्ते भृशदुःखिताः।। | 13-220-39a 13-220-39b |
उमोवाच। | 13-220-40x |
भगवन्मानुषाः केचित्पादरोगसमन्विताः। दृश्यन्ते सततं देव तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-40a 13-220-40b |
महेश्वर उवाच। | 13-220-41x |
ये पुरा मनुजा देवि क्रोधलोभसमन्विताः। मनुजा देवतास्थानं स्वपादैर्भ्रंशयन्त्युत। जानुभिः पार्ष्णिभिश्चैव प्राणिहिंसां प्रकुर्वते।। | 13-220-41a 13-220-41b 13-220-41c |
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। पादरोगैर्बहुविधैर्बाध्यन्ते विपदादिभिः।। | 13-220-42a 13-220-42b |
उमोवाच। | 13-220-43x |
भगवन्मानुषाः केचिद्दृश्यन्ते बहवो भुवि। वातजैः पित्तजै रोगैर्युगपत्सान्निपातकैः।। | 13-220-43a 13-220-43b |
रोगैर्बहुविधैर्देव क्लिश्यमानाः सुदुःखिताः। असमस्तैः समस्तैश्च आढ्या वा दुर्गतास्तथा। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-220-44a 13-220-44b 13-220-44c |
महेश्वर उवाच। | 13-220-45x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्।। | 13-220-45a |
ये पुरा मनुजा देवि त्वासुरं भावमाश्रिताः। स्ववशाः कोपनपरा गुरुविद्वेषिणस्तथा।। | 13-220-46a 13-220-46b |
परेषां दुःखजनका मनोवाक्कायकर्मभिः। छिन्दन्भिन्दन्स्तुदन्नेव नित्यं प्राणिषु निर्दयाः।। | 13-220-47a 13-220-47b |
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। यदि वै मानुषं जन्म लभेरंस्ते तथाविधाः। तत्र ते बहुभिर्घोरैस्तप्यन्ते व्याधिभिः प्रिये।। | 13-220-48a 13-220-48b 13-220-48c |
केचिद्वातादिसंयुक्ताः केचित्काससमन्विताः। ज्वरातिसारतृष्णाभिः पीड्यमानास्तथा परे।। | 13-220-49a 13-220-49b |
पादगुल्मैश्च बहुभिः श्लेष्मदोषसमन्विताः। पादरोगैश्च विविधैर्व्रणकुष्ठभगंदरैः। आढ्या वा दुर्गता वाऽपि दृश्यन्ते व्याधिपीडिताः। | 13-220-50a 13-220-50b 13-220-50c |
एवमात्मकृतं कर्म भुञ्जन्ते तत्रतत्र ते। अभिभूतुं न शक्यं हि केनचित्स्वकृतं फलम्। इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-220-51a 13-220-51b 13-220-51c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। |
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