महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-044
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति ब्रह्मणा देवान्प्रत्यनूदितसुपर्णोपाख्यानकथनसमापनम्।। 1 ।।
ऋषय ऊचुः। | 13-44-1x |
अहो श्रावितमाख्यानं भवताऽत्यद्भुतं महत्। पुण्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।। | 13-44-1a 13-44-1b |
एतत्पवित्रं देवानामेतद्गुह्यं परंतप। एतज्ज्ञानवता ज्ञेयमेषा गतिरनुत्तमा।। | 13-44-2a 13-44-2b |
य इमां श्रावयेद्विद्वान्कथां पर्वसुपर्वसु स लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यान्देवर्षिभिरभिष्टुतान्।। | 13-44-3a 13-44-3b |
श्राद्धकाले च विप्राणां य इमां श्रावयेच्छुचिः। न तत्र रक्षसां भागो नासुराणां च विद्यते।। | 13-44-4a 13-44-4b |
अनसूयुर्जितक्रोधः सर्वसत्वहिते रतः। यः पठेत्सततं युक्तः स व्रजेत्तत्सलोकताम्।। | 13-44-5a 13-44-5b |
वेदान्पारयते विप्रो राजा विजयवान्भवेत्। वैश्यस्तु धनधान्याढ्यः शूद्रः सुखमवाप्नुयात्।। | 13-44-6a 13-44-6b |
भीष्म उवाच। | 13-44-7x |
ततस्ते मुनयः सर्वे सम्पूज्य विनतासुतम्। स्वानेव चाश्रमाञ्जग्मुर्बभूवुः शान्तितत्पराः।। | 13-44-7a 13-44-7b |
स्थूलदर्शिभिराकृष्टो दुर्ज्ञेयो ह्यकृतात्मभिः। एषा धुतिर्महाराज धर्म्या धर्मभृतांवर।। | 13-44-8a 13-44-8b |
सुराणां ब्रह्मणा प्रोक्ता विस्मितानां परंतप। मयाप्येषा कथा तात कथिता मातुरन्तिके। वसुभिः सत्त्वसम्पन्नैस्तवाप्येषा मयोच्यते।। | 13-44-9a 13-44-9b 13-44-9c |
तदग्निहोत्रपरमा जपयज्ञपरायणाः। निराशीर्बन्धनाः सन्तः प्रयान्त्यक्षरसात्मतां।। | 13-44-10a 13-44-10b |
आरम्भयज्ञानुत्सृज्य जपहोमपरायणाः। ध्यायन्तो मनसा विष्णुं गच्छन्ति परमां गतिम्।। | 13-44-11a 13-44-11b |
तदेष परमो मोक्षो मोक्षद्वारं च भारत। यथा विनिश्चितात्मानो गच्छन्ति परमां गतिम्।। | 13-44-12a 13-44-12b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 44 ।। |
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