महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-132
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वसिष्ठेन परशुरामंप्रति सुवर्णप्रभावकथनप्रसङ्गेन रुद्रयज्ञे भृग्वङ्गिरः प्रभृतिप्रभावादिकथनम्।। 1 ।।
वसिष्ठ उवाच। | 13-132-1x |
अपि चेदं पुरा राम श्रुतं मे ब्रह्मदर्शनम्। पितामहस्य यद्वृत्तं ब्रह्मणः परमात्मनः।।[१] | 13-132-1a 13-132-1b |
देवस्य महतस्तात वारुणीं बिभ्रतस्तनुम्। ऐश्वर्ये वारुणेवाऽथ रुद्रस्येशस्य वै प्रभो।। | 13-132-2a 13-132-2b |
आजग्मुर्मुनयः सर्वे देवाश्चाग्निपुरोगमाः। यज्ञाङ्गानि च सर्वाणि वषट्कारश्च मूर्तिमान्।। | 13-132-3a 13-132-3b |
मूर्तिमन्ति च सामानि यजूंषि च सहस्रशः। ऋग्वेदश्चागमत्तत्र पदक्रमविभूषितः।। | 13-132-4a 13-132-4b |
लक्षणानि स्वरास्तोभा निरुक्ताः स्वरभक्तयः। ओंकारश्छन्दसां नेत्रं निग्रहप्रग्रहौ तथा।। | 13-132-5a 13-132-5b |
वेदाश्च सोपनिषदो विद्या सावित्र्यथापि च। भूतं भव्यं भविष्यच्च दधार भगवाञ्शिवः।। | 13-132-6a 13-132-6b |
संजुहावात्मनाऽऽत्मानं स्वयमेव तदा प्रभो। यज्ञं च शोभयामास बहुरूपं पिनाकधृत्।। | 13-132-7a 13-132-7b |
द्यौर्नभः पृथिवी खं च तथा चैवैष भूपतिः। सर्वविद्येश्वरः श्रीमानेष चापि विभावसुः।। | 13-132-8a 13-132-8b |
एष ब्रह्मा शिवो रुद्रो वरुणोऽग्निः प्रजापतिः। कीर्त्यते भगवान्देवः सर्वभूतपतिः शिवः।। | 13-132-9a 13-132-9b |
तस्य यज्ञः पशुपतेस्तपः क्रतव एव च। दीक्षा दीप्तव्रता देवी दिशश्च सदिगीश्वराः।। | 13-132-10a 13-132-10b |
देवपत्न्यश्च कन्याश्च देवानां चैव मातरः। आजग्मुः सहितास्तत्र तदा भृगुकुलोद्वह। यज्ञं पशुपतेः प्रीता वरुणस्य महात्मनः।। | 13-132-11a 13-132-11b 13-132-11c |
स्वयंभुवस्तु ता दृष्ट्वा रेतः समपतद्भुवि।। | 13-132-12a |
तस्य शुक्रस्य निष्यन्दान्पांसून्सङ्गृह्य भूमितः। प्रास्यत्पूषा कराभ्यां वै तस्मिन्नेव हुताशने।। | 13-132-13a 13-132-13b |
ततस्तस्मिन्सम्प्रवृत्ते सत्रे ज्वलितपावके। ब्रह्मणो जुह्वतस्तत्र प्रादुर्भावो बभूवह।। | 13-132-14a 13-132-14b |
स्कन्नमात्रं च तच्छुक्रं स्रुवेण परिगृह्य सः। आज्यवन्मन्त्रतश्चापि सोऽजुहोद्भृगुनन्दन।। | 13-132-15a 13-132-15b |
ततः स जनयामास भूतग्रामं च वीर्यवान्। तस्य तत्तेजसस्तस्माज्जज्ञे लोकेषु तैजसम्।। | 13-132-16a 13-132-16b |
तमसस्तामसा भावा व्यापि सत्वं तथोभयम्। स गुणस्तेजसो नित्यं तमस्याकाशमेव च। सर्वभूतेषु च तथा सत्वं तेजस्तथोत्तमम्।। | 13-132-17a 13-132-17b 13-132-17c |
शुक्रे हुतेऽग्नौ तस्मिंस्तु प्रादुरासंस्त्रयः प्रभो। पुरुषा वपुषा युक्ताः स्वैः स्वैः प्रसवजैर्गुणैः।। | 13-132-18a 13-132-18b |
भर्जनाद्भृगुरित्येवमङ्गारेभ्योऽङ्गिराऽभवत्। अङ्गारसंश्रयाच्चैव कविरित्यपरोऽभवत्। सह ज्वालाभइरुत्पन्नो भृगुस्तस्माद्भृगुः स्मृतः।। | 13-132-19a 13-132-19b 13-132-19c |
मरीचिभ्यो मरीचिस्तु मारीचः कश्यपो ह्यभूत्। अङ्गोरभ्योऽङ्गिरास्तात वालखिल्याः कुशोच्चयात्।। | 13-132-20a 13-132-20b |
अत्रैवात्रेति च विभो जातमत्रिं वदन्त्यपि।। | 13-132-21a |
तथा भस्मव्यपोहेभ्यो ब्रह्मर्षिगणसम्मताः। वैखानसाः समुत्पन्नास्तपः श्रुतगुणेप्सवः।। | 13-132-22a 13-132-22b |
अश्रुतोऽस्य समुत्पन्नावश्विनौ रूपसम्मतौ। शेषाः प्रजानां पतयः स्रोतोभ्यस्तस्य जज्ञिरे। ऋषयो रोमकूपेभ्यः स्वेदाच्छन्दो बलान्मनः।। | 13-132-23a 13-132-23b 13-132-23c |
एतस्मात्कारणादाहुरग्निः सर्वास्तु देवताः। ऋषयः श्रुतसम्पन्ना वेदप्रामाण्यदर्शनात्।। | 13-132-24a 13-132-24b |
यानि दारूणि निर्यासास्ते मासाः पक्षसंज्ञिताः। अहोरात्रा मुहूर्ताश्च वीतज्योतिश्च वारुणम्।। | 13-132-25a 13-132-25b |
रौद्रं लोहितमित्याहुर्लोहितात्कनकं स्मृतम्। तन्मैत्रमिति विज्ञेयं धूमाच्च वसवः स्मृताः।। | 13-132-26a 13-132-26b |
अर्चिषो याश्च ते रुद्रास्तथाऽऽदित्या महाप्रभाः। उद्दीप्तास्ते तथाऽङ्गारा ये धिष्ण्येषु दिवि स्थिताः।। | 13-132-27a 13-132-27b |
अग्निर्नाथश्च लोकस्य तत्परं ब्रह्म तद्भुवम्। सर्वकामदमित्याहुस्तत्र हव्यमुपावहन्।। | 13-132-28a 13-132-28b |
ततोऽब्रवीन्महादेवो वरुणः पवनात्मकः। मम सत्रमिदं दिव्यमहं गृहपतिस्त्विह।। | 13-132-29a 13-132-29b |
त्रीणि पूर्वाण्यपत्यानि मम तानि न संशयः। इति जानीत खगमा मम यज्ञफलं हि तत्।। | 13-132-30a 13-132-30b |
अग्निरुवाच। | 13-132-31x |
मदङ्गेभ्यः प्रसूतानि मदाश्रयकृतानि च। ममैव तान्मपत्यानि मम शुक्लं हुतं हि तत्।। | 13-132-31a 13-132-31b |
अथाब्रवील्लोकगुरुर्ब्रह्मा लोकपितामहः। ममैव तान्यपत्यानि मम शुक्लं हुतं हि तत्।। | 13-132-32a 13-132-32b |
अहं वक्ता च मन्त्रस्य होता शुक्रस्य चैव ह। यस्य बीजं फलं तस्य शुक्रं चेत्कारणं मतम्।। | 13-132-33a 13-132-33b |
ततोऽब्रुवन्देवगणाः पितामहमुपेत्य वै। कृताञ्जलिपुटाः सर्वे शिरोभिरभिवन्द्य च।। | 13-132-34a 13-132-34b |
वयं च भगवन्सर्वे जगच्च सचराचरम्। तवैव प्रसवाः सर्वे तस्मादग्निर्विभावसुः। वरुणश्चेश्वरो देवो लभतां काममीप्सितम्।। | 13-132-35a 13-132-35b 13-132-35c |
निसर्गाद्ब्रह्मणश्चापि वरुणो यादसाम्पतिः। जग्राह वै भृगु पूर्वमपत्यं सूर्यवर्चसम्।। | 13-132-36a 13-132-36b |
ईश्वरोऽङ्गिरसं चाग्नेरपत्यार्थमकल्पयत्। पितामहस्त्वपत्यं वैकविं जग्राह तत्त्ववित्।। | 13-132-37a 13-132-37b |
तदा स वारुणिः ख्यातो भृगुः प्रसवकर्मकृत्। आग्नेयस्त्वङ्गिराः श्रीमान्कविर्ब्राह्मो महायशाः। भार्गवाङ्गिरसौ लोके लोकसन्तानलक्षणौ।। | 13-132-38a 13-132-38b 13-132-38c |
एते विप्रवराः सर्वे प्रजानां पतयस्त्रयः। सर्वं सन्तानमेतेषामिदमित्युपधारय।। | 13-132-39a 13-132-39b |
भृगोस्तु पुत्राः सप्तासन्सर्वे तुल्या भृगोर्गुणैः। च्यवनो वज्रशीर्षश्च शुचिरौर्वस्तथैव च।। | 13-132-40a 13-132-40b |
शुक्रो वरेण्यश्च विभुः सवनश्चेति सप्त ते। भार्गवा वारुणाः सर्वे येषां वंशे भवानपि।। | 13-132-41a 13-132-41b |
अष्टौ चाङ्गिरसः पुत्रा वारुणास्तेऽप्यवारुणाः। बृहस्पतिरुचथ्यश्च वयस्यः शान्तिरेव च।। | 13-132-42a 13-132-42b |
घोरो विरूपः संवर्तः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः। एतेऽष्टौ वह्निजाः सर्वे ज्ञाननिष्ठा निरामयाः।। | 13-132-43a 13-132-43b |
ब्राह्मणाश्च कवेः पुत्रा वारुणास्तेऽप्युदाहृताः। अष्टौ प्रसवजैर्युक्ता गुणैर्ब्रह्मविदः शुभाः।। | 13-132-44a 13-132-44b |
कविः काव्यश्च विष्णुश्च बुद्धिमानुशना तथा। भृगुश्च वरुणश्चैव काश्यपोऽग्निश्च धर्मवित्।। | 13-132-45a 13-132-45b |
अष्टौ कविसुता ह्येते सर्वमेभिर्जगत्ततम्। प्रजापतय एते हि प्रजानां यैरिमाः प्रजाः।। | 13-132-46a 13-132-46b |
एवमङ्गिरसश्चैव कवेश्च प्रसवान्वयैः। भृगोश्च भृगुशार्दूल वंशजैः सततं जगत्।। | 13-132-47a 13-132-47b |
वरुणश्चादितो विप्र जग्राह प्रभुरीश्वरः। कविं तात भृगुं चापि तस्मात्तौ वारुणौ स्मृतौ।। | 13-132-48a 13-132-48b |
जग्राहाङ्गिरसं देवः शिखी तस्माद्भुताशनः। तस्मादाङ्गिरसा ज्ञेयाः सर्व एव तदन्वयाः।। | 13-132-49a 13-132-49b |
ब्रह्मा पितामहः पूर्वं देवताभिः प्रसादितः। इमे नः सन्तरिष्यन्ति प्रजाभिर्जगदीश्वराः।। | 13-132-50a 13-132-50b |
सर्वे प्रजानां पतयः सर्वे चातितपस्विनः। त्वत्प्रसादादिमं लोकं धारयिष्यन्ति शाश्वतं।। | 13-132-51a 13-132-51b |
तथैव वंशकर्तारस्तव तेजोविवर्धनाः। भवेयुर्वेदविदुषः सर्वे च कृतिनस्तथा।। | 13-132-52a 13-132-52b |
देवपक्षचराः सौम्याः प्राजापत्या महर्षयः। अनन्तं ब्रह्म सत्यं च तपश्च परमं भुवि।। | 13-132-53a 13-132-53b |
सर्वे हि वयमेते च तवैव प्रसवाः प्रभो। देवानां ब्राह्मणानां च त्वं हि कर्ता पितामह।। | 13-132-54a 13-132-54b |
मारीचमादितः कृत्वा सर्वे चैवाथ भार्गवाः। अपत्यानीति सम्प्रेक्ष्य क्षमयाम पितामह।। | 13-132-55a 13-132-55b |
अथ स्वेनैव रूपेणि प्रजनिष्यन्ति वै प्रजाः। स्थापयिष्यन्ति चात्मानं युगादिनिधने तथा।। | 13-132-56a 13-132-56b |
इत्युक्तः स तदा तैस्तु ब्रह्मा लोकपितामहः। ततेत्येवाब्रवीत्प्रीतस्तेऽपि जग्मुर्यथागतम्।। | 13-132-57a 13-132-57b |
एवमेतत्पुरावृत्तं तस्य यज्ञे महात्मनः। देवश्रेष्ठस्य लोकादौ वारुणीं बिभ्रतस्तनुम्।। | 13-132-58a 13-132-58b |
अग्निर्ब्रह्म पशुपतिः शर्वो रुद्रः प्रजापतिः। अग्नेरपत्यमेतद्वै सुवर्णमिति धारणाः।। | 13-132-59a 13-132-59b |
अग्न्यभावे च कुरुते वह्निस्थानेषु काञ्चनम्। जामदग्न्यप्रमाणज्ञो वेदश्रुतिनिदर्शनात्।। | 13-132-60a 13-132-60b |
कुशस्तम्बे जुहोत्यग्निं सुवर्णे तत्र च स्थिते। वल्मीकस्य वपायां च कर्णे वाजस्य दक्षिणे।। | 13-132-61a 13-132-61b |
शकटोर्व्या परस्याप्सु ब्राह्मणस्य करे तथा। हुते प्रीतिकरीमृद्धिं भगवांस्तत्र मन्यते।। | 13-132-62a 13-132-62b |
तस्मादग्निपराः सर्वे देवता इति शुश्रुम। ब्रह्मणो हि प्रभूतोऽग्निरग्नेरपि च काञ्चनम्।। | 13-132-63a 13-132-63b |
तस्माद्ये वै प्रयच्छन्ति सुवर्णं धर्मदर्शिनः। देवतास्ते प्रयच्छन्ति समस्ता इति नः श्रुतम्।। | 13-132-64a 13-132-64b |
तस्य वा तपसो लोकान्गच्छतः परमां गतिम्। स्वर्लोके राजराज्येन सोभिषिच्येत भार्गव।। | 13-132-65a 13-132-65b |
आदित्योदयने प्राप्ते विधिमन्त्रपुरस्कृतम्। ददाति काञ्चनं यो वाः दुःस्वप्नं प्रतिहन्ति सः।। | 13-132-66a 13-132-66b |
ददात्युदितमात्रे यस्यस्य पाप्मा विधूयते। मध्याह्ने ददतो रुक्मं हन्ति पापमनागतम्।। | 13-132-67a 13-132-67b |
ददाति पस्चिमां सन्ध्यां यः सुवर्णं यतव्रतः। ब्रह्मवाय्वग्निसोमानां सालोक्यमुपयाति सः।। | 13-132-68a 13-132-68b |
सेन्द्रेषु चैव लोकेषु प्रतिष्ठा विन्दते शुभाम्। इह लोके यशः प्राप्य शान्तपाप्मा च मोदते।। | 13-132-69a 13-132-69b |
ततः सम्पद्यतेऽन्येषु लोकेष्वप्रतिमः सदा। अनावृतगतिश्चैव कामचारो भवत्युत।। | 13-132-70a 13-132-70b |
न च क्षरति तेभ्यश्च यशश्चैवाप्नुते महत्। सुवर्णमक्षयं दत्त्वा लोकांश्चाप्नोति पुष्कलान्।। | 13-132-71a 13-132-71b |
यस्तु सञ्जनयित्वाऽग्निमादित्योदयनं प्रति। दद्याद्वै व्रतमुद्दिश्य सर्वकामान्समश्नुते।। | 13-132-72a 13-132-72b |
अग्निरित्येव तत्प्राहुः प्रदानं च सुखावहम्। यथेष्टगुणसंवृत्तं प्रवर्तकमिति स्मृतम्।। | 13-132-73a 13-132-73b |
एषा सुवर्णस्योत्पत्तिः कथिता ते मयाऽनघ। कार्तिकेयस्य च विभो तद्विद्धि भृगुनन्दन।। | 13-132-74a 13-132-74b |
कार्तिकेयस्तु संवृद्धः कालेन महता तदा। देवैः सेनापतित्वेन वृतः सेन्द्रैर्भृगूद्वह।। | 13-132-75a 13-132-75b |
जघान तारकं चापि दैत्यमन्यांस्तथाऽसुरान्। त्रिदशेन्द्राज्ञया ब्रह्मँल्लोकानां हितकाम्यया।। | 13-132-76a 13-132-76b |
सुवर्णदाने च मया कथितास्ते गुणा विभो। तस्मात्सुवर्णं विप्रेभ्यः प्रयच्छ तदतांवर।। | 13-132-77a 13-132-77b |
भीष्म उवाच। | 13-132-78x |
इत्युक्तः स वसिष्ठेन जामदग्न्यः प्रतापवान्। ददौ सुवर्णं विप्रभ्यो व्यमुच्यत च किल्बिषात्।। | 13-132-78a 13-132-78b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं सुवर्णस्य महीपते। प्रदानस्य फलं चैव जन्म चास्य युधिष्ठिर।। | 13-132-79a 13-132-79b |
तस्मात्त्वमपि विप्रेभ्यः प्रयच्छ कनकं बहुः। ददत्सुवर्णं नृपते किल्बिषाद्विप्रमोक्ष्यसि।। | 13-132-80a 13-132-80b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 132 ।। |
13-132-4 ऋग्वेदोऽथर्ववेदश्चेति क.ङ.ध.पाठः।। 13-132-14 प्रादुर्भावश्चरमधातुः।। 13-132-16 भूतग्रामं चतुर्विधं तत्तेजसस्तस्य त्रिगुणमयस्य रेतसः सम्बन्धी यस्तेजोंशो रजोंशस्तस्मात्तैजसप्रवृत्तिप्रधानं जङ्गममभूत्।। 13-132-17 तमसस्तमोंशात्तामसं स्थावरम्। सत्वांशस्तूभयत्रानुगतः।। 13-132-18 प्रसवजैः कारणजैर्गुणैः।। 13-132-19 सहयज्वभिरुत्पन्न इति ध.पाठः।। 13-132-20 वालखिल्याः शरोच्चयादिति ध.पाठः।। 13-132-21 अत्रैव कुशोच्चये। अत्र अत्रैवेति सम्बन्धः। अत्रैवात्रिं च हि विभो इति ध. पाठः।। 13-132-22 व्यपोहेभ्यः समूहेभ्यः। तथाग्नेस्तस्य भस्मभ्य इति.ध.पाठः।। 13-132-23 अश्रुतः अश्रुसकाशात्। स्नोतोभ्यः श्रोत्रादीन्द्रियेभ्यः। बलात् वीर्यात्। बलान्मख इति क.ट.ध.पाठः।। 13-132-24 एतस्मादग्निजत्वात्।। 13-132-25 निर्यासा दारुगता लाक्षादयो वृक्षरसाः।। 13-132-27 दिविस्थिताः ग्रहतारादयः धिष्ण्येषु स्थानेषु।। 13-132-30 त्रीणि भृग्वङ्गिरःकविसंज्ञानि।। 13-132-44 कवेः पुत्रा वारुणा इत्यनेनि स्वीयभागोपि कविर्ब्रह्मणा वरुणाय समर्पित इत्युन्नेयम्।। 13-132-50 नोऽस्मान् सन्तरिष्यन्ति सन्तारयिष्यन्ति।। 13-132-52 विदुषो विद्वांसः।। 13-132-56 आदिनिधने उत्पत्तिप्रलययोरन्तराले।। 13-132-58 देवश्रेष्ठस्य रुद्रस्य।। 13-132-59 धारणा निश्चयः।। 13-132-61 ब्राह्मणपाण्यजकर्णदर्भस्तम्बाप्सु काष्ठेष्वित्येतानि श्रुतौ दृश्यन्ते। वपायां रन्ध्रे।। 13-132-62 शकटोर्वीं तु श्रुत्यन्तरात् ज्ञेया। परस्य तीर्थादेरप्सु।। 13-132-64 सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति नराः शुद्धेन चेतसेति ध.पाठः।। 13-132-71 तेभ्यो लोकेभ्यो न च क्षरति।।
अनुशासनपर्व-131 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-133 |
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